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आदिवासी समाज के बिसरे गिरमिटियाओं की भूली दास्तान

आदिवासी समाज के बिसरे गिरमिटियाओं की भूली दास्तान - Mati Mati Arkati
- संतोष कुमार

नई दिल्ली। जब भी गिरमिटिया मजदूरों की बात होती है। हमारे सामने ऐसे किसी मजदूर की जो छवि उभरती है, वह भोजपुरी समाज का होता है। अभी तक जो भी बहुचर्चित साहित्यिक लेखन सामने आए हैं उनमें भोजपुरिया गिरमिटियों के बारे में ही खास तौर पर बात हुई है। लेकिन जो झारखंडी आदिवासी मजदूर बाहर गए जिनको हिल कुली कहा गया उनके बारे में कहां बात होती है। वे कहां और क्यों खो गए हमारी चिंता और चर्चा से, सोचने की बात तो है।

हिल कुली कोंता की कहानी पढ़िए, अब माटी माटी अरकाटी उपन्यास में। जिसे बहुत दिलचस्प ढंग से अश्विनी कुमार पंकज ने गहरी छानबीन के बाद लिखा है। यह उपन्यास आदिवासी समाज के इतिहास के भूले-बिसरे संदर्भों को नए सिरे से सामने ला रहा है। राधाकृष्ण प्रकाशन से पेपरबैक संस्करण में प्रकाशित इस किताब की कीमत 250 रुपए हैं।  
 
कोंता और कुंती की इस कहानी को कहने के पीछे लेखक का उद्देश्य पूरब और पश्चिम दोनों के गैर-आदिवासी समाजों में मौजूद नस्ली और ब्राह्मणवादी चरित्र को उजागर करना है, जिसे विकसित सभ्यताओं की बौद्धिक दार्शनिकता के जरिए अनदेखा किया जाता रहा है। कालांतर में मॉरीशस, गयाना, फिजीसूरीनाम, टुबैगो सहित अन्य कैरीबियन तथा लेटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में लगभग डेढ़ सदी पहले ले जाए गए गैर-आदिवासी गिरमिटिया मजदूरों ने बेशक लम्बे संघर्ष के बाद इन देशों को भोजपुरी बना दिया है और वहां के नीति-नियन्ताओं में शामिल हो गए हैं। लेकिन सवाल है कि वे हजारों झारखंडी जो सबसे पहले वहां पहुंचे थे, कहां चले गए। कैसे और कब वे गिरमिटिया कुलियों की नवनिर्मित भोजपुरी दुनिया से गायब हो गए। ऐसा क्यों हुआ कि गिरमिटिया कुली खुद तो आजादी पा गए लेकिन उनकी आजादी हिल कुलियों को चुपचाप गड़प कर गई। 
 
एक कुली की आजादी कैसे दूसरे कुली के खात्मे का सबब बनी। क्या थोड़े आर्थिक संसाधन जुटते ही उनमें बहुसंख्यक धार्मिक और नस्ली वर्चस्व का विषधर दोबारा जाग गया और वहां उस अनजान धरती पर फिर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, भूमिहार और वैश्य पैदा हो गए। सो भी इतनी समझदारी के साथ किशूद्र को नई सामाजिक संरचना में जन्मने ही नहीं दिया। 
 
लेखक के बारे में - अश्विनी कुमार पंकज का जन्म 1964 में हुआ। रांची विश्वविद्यालय रांची से कला स्नातकोतर। पिछले तीन दशकों रंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता एवं डॉक्यूमेंट्री से गहरी यारी। अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों से प्रिंट, ऑडियो, विजुअल, ग्राफिक्स, परफॉरमेंस और वेब में रचनात्मक उपस्थिति। पत्र-पत्रिकाओं में और आकाशवाणी से सभी विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण। झारखंड आंदोलन में सघन संस्कृतिकर्म। झारखंड एवं राजस्थान के आदिवासी जीवन, समाज, भाषा-संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर थियेटर, फिल्म और साहित्यिक माध्यमों में विशेष कार्य। नब्बे के शुरुआती दशक में जन संस्कृति मंच एवं उलगुलान संगीत नाट्य दलरांची के संस्थापक संगठक सदस्य। फिलहाल लोकप्रिय मासिक नागपुरी पत्रिका जोहार सहिया..., पाक्षिक बहुभाषी अखबार, जोहार दिसुम खबर... और रंगमंच एवं प्रदश्र्यकारी कलाओं की त्रैमासिकी रंगवार्ता का संपादन-प्रकाशन।
 
किताब का नाम - माटी माटी अरकाटी
लेखक- अश्विनी कुमार पंकज
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन
बाउंड- पेपेरबैक 
कीमत- 250 
आईएसबीएन - 978-81-8361-802-1