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डेढ़ वर्ष पूर्व जीइओ-4 ने चेताया था कि यदि आर्थिक विकास के नाम पर प्राकृतिक संसांधनों का इसी तरह दोहन होता रहा तो आने वाले 150 वर्ष में जलवायु परिवर्तन के चलते धरती का पर्यावरण किसी भी प्राणी और मानव के रहने लायक नहीं रह जाएगा।
हजारों फिट नीचे खदान से कोयला और हीरा निकाला जाता है। बोरिंग के प्रचलन के चलते जगह-जगह से धरती में छिद्र कर दिए गए है। पहले वृक्ष कटते थे अब जंगल कटते हैं। पहाड़ कटते हैं। नदियों को प्रदूषित कर दिया गया है और समुद्र के भीतर भी खुदाई का काम जारी है। अंतरिक्ष में भी कचरा फैला दिया गया है।
उक्त सभी कारणों के चलते तूफानों और भूकंपों की संख्या बढ़ गई है। मौसम पूरी तरह से बदल गया है कहीं अधिक वर्षा तो कहीं सूखे की मार है। प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाकर बार-बार मानव को चेतावनी दे रही है, लेकिन मानव ने धरती पर हर तरह के अत्याचार जारी रखे हैं।
खेतों की जगह तेजी से कालोनियाँ ले रही है। शहरी और ग्रामीण विकास के चलते अंधाधुंध वृक्ष काटे जा रहे हैं। चिपको आंदोलन अब कहीं नजर नहीं आता। हरित क्रांति के नाम पर शुरुआत में रासायनिक खाद और तमाम तरह के जहरीले उत्पादन बेचे गए और जब इसके नुकसान सामने आने लगे तो बाजारवादी ले आए हैं जैविक खाद का नया फंडा।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसके पिघलने से धरती के तापमान में वृद्धि हो रही है। ग्रीन हाऊस गैसों के 'प्रमुख उत्सर्जक देशों' में अमेरिका सबसे आगे है। नवीनत आँकड़े कहते हैं कि वैश्विक कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन में अमेरिका तथा चीन का हिस्सा लगभग 20 प्रतिशत है।
वैज्ञानिकों ने अतीत और वर्तमान के आँकड़े इकठ्ठे कर कम्प्यूटर में दर्ज कर जब तीस साल के बाद की पृथ्वी के हालात जानना चाहे तो पता चला कि धरती का तापमान पूरे एक डिग्री बढ़ चुका है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ती जा रही है, समुद्र का जल स्तर 1.5 मिलीमीटर प्रतिवर्ष बढ़ रहा है और अमेजन के वर्षा वन तेजी से खत्म होने के लिए तैयार है बस यह तीन स्थिति ही धरती को खत्म करने के लिए काफी है। यह स्थिति क्यों बनी जरा इस पर सोचे।

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तमाम तरह का औद्योगिक उत्पादन और उसका कचरा समेटे नहीं सिमट रहा है तो कुछ को समुद्र में और कुछ को इस कदर जलाया जा रहा है, जिससे आसमान के नीले और सफेद रंग को भी अपने नीले और सफेद होने पर सोचना पड़ रहा है। अब एकदम साफ आसमान की कल्पना धूमिल होती जा रही है। दुनिया के हर बंदरगाह की हालत खराब हो चली है। समुद्र और आसमान को स्वच्छ रखना मुश्किल होता जा रहा है।
न्यूक्लियर टेस्ट तो बहुत बड़ी घटना है, लेकिन छोटी-छोटी घटनाओं से ही धरती माता का दिल दहल जाता है। अमेरिका या ब्रिटेन जैसे विकसित राष्ट्रों में पुरानी बिल्डिंग या स्टेडियम को गिराने के लिए धरती के भीतर 50-50 टन डाइनामाइट लगाए जाते हैं। इससे धरती भीतर से टूटती जा रही है।

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इस धरती के पर्यावरण को बिगाड़ने के लिए प्रत्येक व्यक्ति, संस्था, समाज, संगठन और राष्ट्र जिम्मेदार है। सभी अपने-अपने स्तर पर धरती को नुकसान पहुँचाने में लगे हैं।
हर साल किसी न किसी देश में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन होते हैं। रियो डी जेनेरियो में पर्यावरण को लेकर विकसित और विकासशील राष्ट्र कई दफे इकठ्ठे हुए, फिर वे ही जिनेवा में भी मिटिंग करते हैं। लेकिन क्या इसका कोई परिणाम निकला? यही सब सोचते हुए लगता है आखिर कौन चाहता है पर्यावरण का संरक्षण करना?