जीत मोदी की, सबक भाजपा को
एग्जिट पोल ने विधानसभा चुनाव नतीजों का रोमांच कुछ तो कम कर ही दिया था। चार-पाँच कोणीय मुकाबले में यों भी ठीक-ठीक अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। फिर भी हरियाणा में भाजपा को स्पष्ट बहुमत और महाराष्ट्र में भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने का अनुमान मोटे तौर पर ठीक ही बैठा है। हालाँकि महाराष्ट्र में भाजपा के लिए आँकड़ा अनुमानों से काफी पीछे रह गया।
हाल ही के उप-चुनावों में लालू-नीतीश के गठजोड़ और औंधे मुँह गिरे लव-जेहाद के मुद्दे से चोट खाई भाजपा के लिए इन दोनों ही राज्यों के चुनाव बहुत अहम हो गए थे। उप-चुनावों में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री ही बने रहे और चुनाव प्रचार का काम अमित शाह और उनकी टीम पर छोड़ दिया। हर जगह मोदी को ही अहमियत ना मिले, कुछ नेताओं और संघ के एक धड़े से आती इस आवाज़ को भी आजमा लेने का मौका उन उप-चुनावों ने दिया। लोकसभा की जीत केवल मोदी की जीत नहीं है ऐसा कहने वाले नेताओं को भी अपने नज़रिए को परखने का मौका मिल गया। सभी को पता चल गया कि मोदी बिना गति नहीं।
महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों ही राज्यों में तारनहार के रूप में मोदी की ज़रूरत इसलिए भी थी, क्योंकि भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था जो अपने दम पर भाजपा को जीत दिलवा सके। महाराष्ट्र में गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद उपलब्ध विकल्प उतने मजबूत नहीं थे। हरियाणा में जातिवाद के चलते किसी एक चेहरे को आगे करना जोख़िमभरा हो सकता था। ऐसे में फिर एक बार मोदी चेहरा बने।
16 मई को लोकसभा के परिणाम आने के पहले नरेंद्र मोदी का जो रूप देश ने देखा था, 26 मई को उनके शपथ ग्रहण के बाद बिलकुल बदला हुआ रूप। सधा हुआ और संतुलित। वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बन गए थे। वो जापान जाकर एक नई इबारत लिख रहे थे, यहाँ चीन के राष्ट्रपति को साबरमती दिखाने के साथ ही घुसपैठ को लेकर आँख भी दिखा रहे थे और अमेरिका जाकर एक 'रॉक स्टार' का दर्जा भी पा रहे थे। पर जैसे ही वो भारत वापस आकर अपना नवरात्रि का उपवास तोड़ते हैं और दशहरा मनाते हैं, उसके अगले ही दिन वो फिर से उस प्रचारक का चोला ओढ़ लेते हैं जो भाजपा की संजीवनी है। वो शिवसेना से 25 साल पुराने गठबंधन के टूटने की टीस भुलाकर पार्टी को और ख़ुद को धुआँधार प्रचार में झोंक देते हैं।
महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों ही राज्यों में शासन करने वाली कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन, जनता की सरकार से नाराजी के साथ ही इस जीत और बढ़त का श्रेय नरेंद्र मोदी को देना होगा। और अगर हार होती तो भी निश्चित ही ठीकरा भी उनके सिर ही फूटता। इसीलिए उन्हें ये भी मानना होगा कि तमाम कोशिशों के बाद भी वो महाराष्ट्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिलवा पाए हैं। जादू या लहर तो वो होती जो अपने दम पर पूरा बहुमत दिलवा देती। ये भी कि जनता देश और राज्य दोनों को लेकर एक ही तरह का वोट नहीं देती।
जहाँ ये जीत नरेंद्र मोदी को मजबूत करती है वहीं समूची भाजपा के लिए बड़ा सबक भी है। भाजपा को जल्दी ही प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री बने रहने देने का तरीका भी ढूँढना होगा। जिन वादों के साथ वो उस कुर्सी पर बैठे हैं वहाँ से उनको नीचे आकर बार-बार प्रचारक का चोला पहनना पड़े ये भाजपा के लिए भी ठीक नहीं है और ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी। भाजपा को ये पूरे पाँच साल अपने जमीनी नेटवर्क को मजबूत करने में और क्षेत्रीय नेतृत्व को मजबूत करने में लगाना होंगे। मोदी के बिना भी राज्य के और स्थानीय चुनावों में जीत का दमखम दिखाना होगा। ये जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा। देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरत है जितनी भाजपा को प्रचारक नरेंद्र मोदी की। चाहे ख़ुद मोदीजी को अपनी ये प्रचारक छवि पसंद हो।
बहरहाल कांग्रेस की तो नई शुरुआत ही वहाँ से होगी जहाँ से वो राहुल गाँधी का विकल्प ढूँढ लेगी। हालांकि हर चुनाव के बाद लगने वाला रस्मी नारा 'प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ' एक बार फिर जोर-शोर से सुनाई देने लगा है, लेकिन कांग्रेसियों को यह समझ लेना चाहिए कि इस नारे की स्थिति भी अब 'भेड़िया आया' से ज्यादा कुछ नहीं रह गई है। दूसरी ओर भाजपा महाराष्ट्र और हरियाणा में मुख्यमंत्री के रूप में किसे चेहरा बनाती है ये देखना भी दिलचस्प होगा। साथ ही ये भी कि महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का लघु तलाक लंबे समय में बेहतर रिश्तों की मेहंदी हाथ पर रचाए रख पाता है या नहीं।