भाजपा को बीजेपी को असम में जीत मिली, लेकिन उसकी राज्य में क्या रणनीति रही? बीजेपी ने असम में असम की बात की, राज्य में बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकने की बात कही। विकास की बात की और स्थानीय नेताओं को प्रमुखता दी गई। सबसे प्रमुख बात यह है कि मुस्लिम वोटों पर रणनीति तय करते हुए राज्य के ही सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया। पार्टी ने बिहार और दिल्ली से सबक लेते हुए असम की रणनीति पर काम किया था और इसमें उसे सफलता मिली।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले दिल्ली और बिहार में भी पार्टी ने चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी के बड़े नेताओं में दावेदारी को लेकर असंतोष न फैले, इस कारण किसी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं किया। जबकि आम आदमी पार्टी की ओर से दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया गया था। विरोधियों की यह रणनीति कारगर भी रही और वे राज्यों में सरकारें बनाने में सफल रहे। दोनों ही राज्यों में पार्टी के प्रचार को हाई प्रोफाइल बना रखा था और मोदी-शाह की जोड़ी सर्वाधिक सक्रिय रही थी लेकिन परिणाम वांछित नहीं रहा।
असम की सफलता ने भाजपा को सीख दी है कि मुस्लिम वोटों की उपेक्षा करके आप अपना ही नुकसान करेंगे। इसलिए संभव है कि पार्टी मुस्लिम वोटों को लेकर खास रणनीति बनाए क्योंकि आम चुनावों में पार्टी को वहां से भी भारी सफलता मिली थी जहां मुस्लिम मत निर्णायक थे।
अहम प्रश्न यही है कि क्या असम की रणनीति यूपी में पार्टी के काम आएगी? यूपी में मुस्लिम वोट बैंक भले असम की तरह प्रभावी न हों लेकिन पश्चिम में सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बागपत, शामली से लेकर पूर्वांचल में बहराइच, आजमगढ़, मऊ जिलों में मुस्लिम वोट बैंक अच्छी खासी आबादी में है और यहां की सीटों पर यह निर्णायक साबित हो सकता है। ऐसे में बीजेपी को यूपी में भी एक ‘बदरुद्दीन अजमल’ तलाशना होगा। राज्य में उसके लिए यह काम ओवैसी की पार्टी एमआईएम, पीस पार्टी या सत्ताधारी समाजवादी पार्टी मिलकर कर सकते हैं।
लोकसभा के चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश को खास महत्व दिया और वे गुजरात से अपनी सुरक्षित सीट छोड़कर बनारस में चुनाव लड़ने जा पहुंचे। यह बात उनके पक्ष में साबित हुई और मां गंगा के प्रति भक्ति दिखाकर उन्होंने हिन्दू वोटों को भी अपने पक्ष में कर लिया। लोकसभा चुनाव के दौरान और इससे पहले मोदी पूर्वोत्तर की बात करते रहे हैं। वे चुनाव जीतने के बाद कई मर्तबा देश के इस हिस्से में आए भी और कई योजनाएं भी यहीं से शुरू कीं।
पूर्वोत्तर की जिस अस्मिता की दुहाई देकर बीजेपी ने असम में लोकसभा की 7 सीटें और विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल किया है उसी अस्मिता की डगर वह यूपी में भी चुन सकती है। आखिर आज भी यूपी के युवा और छात्र नौकरी, शिक्षा के लिए महाराष्ट्र, दिल्ली, दक्षिण के राज्यों का रुख करते हैं और यहां उन्हें परेशानी ही झेलनी पड़ती है। सत्ताधारी दल को जहां एंटी इनकम्बेंसी का खतरा हो सकता है और बहनजी को दलितों के साथ-साथ अगड़ों को भी जोड़ना होगा। वहीं सबका विकास-सबका साथ लेकर यूपी की अस्सी सीटों में से 71 सीटें जीतने में सफल रही थी।
प्रदेश में चुनाव हो और बिना सीएम प्रोजेक्ट किए मैदान में उतरा जाए ये कहां तक उचित है? या फिर किसी बाहरी को सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया जाए? इन दोनों ही बातों का असर भाजपा, दिल्ली और बिहार में देख चुकी थी। इसलिए उसने असम में गलती न करते हुए सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया। यूपी जैसे राज्य में तो पार्टी एक दमदार और युवा चेहरा चाहेगी। पार्टी यूपी में स्मृति ईरानी, वरुण गांधी जैसे युवा प्रत्याशियों को आजमाना चाहेगी। गौरतलब है कि ये दोनों चेहरे उप्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सुल्तानपुर में अगर वरुण गांधी ने अपनी जमीन तलाशी है तो मुरादाबाद की स्मृति ईरानी ने गांधी परिवार की पहली पसंद अमेठी को अपनी कर्मभूमि बनाया। हालांकि वे राहुल गांधी के मुकाबले जीत नहीं सकीं लेकिन उन्होंने कांग्रेस को दिखा दिया उन्हें सस्ते में नहीं लिया जा सकता है। इसके साथ-साथ ही वे अमेठी से अपना जीवंत सम्पर्क बनाए हुए हैं और अन्य खूबियां उन्हें एक आदर्श उम्मीदवार बनाने के लिए काफी हैं।
जिस तरह असम में भारतीय जनता पार्टी ने जनता के मन की बात पढ़ते हुए राज्य के लोगों का नौकरी के लिए पलायन, चाय बागान के मजदूरों की दुरावस्था, बांग्लादेशी घुसपैठ जैसी बातों से आम लोगों का मन जीतने में सफल रही। उसे यूपी में कानून-व्यवस्था की स्थिति, बसपा का जातिवाद, मुलायम का मुस्लिम यादव प्रेम और कांग्रेस की अल्पसंख्यकों को खुश करने की नीतियों पर जबरदस्त प्रहार करना होगा।
पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कई नाम उछाले भी जाने लगे हैं। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व सीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर एक नाम को आगे करने को लेकर कई तरह की दुविधा में दिख रहा है। पार्टी के बाहर ही नहीं, भीतर भी इतने समीकरण मौजूद हैं, जो भाजपा नेतृत्व को इस मामले में आगे बढ़ने से रोक रहे हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति अन्य राज्यों की तुलना में अधिक जटिल है।
चर्चा में आए कुछ नेता राष्ट्रीय राजनीति छोड़कर उत्तर प्रदेश की सियासत में लौटकर अपनी साख को दांव पर लगाने से हिचक रहे हैं। इसके अलावा जो नाम हैं उनको लेकर नेतृत्व के भीतर भी यह असमंजस दिख रहा है कि कहीं उनके इस प्रयोग से सूबे की भाजपा के भीतर इतनी खींचतान न हो जाए कि सरकार बनाना तो दूर पार्टी की साख बचा पाना ही मुश्किल हो जाए। नेतृत्व की यह आशंका यूं ही नहीं है।
अतीत में सूबे में भाजपा के नेताओं के बीच गुटबाजी और खींचतान सार्वजनिक हो चुकी है। कलराज मिश्र तो 2002 में सार्वजनिक रूप से इस बात को कह चुके हैं कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं में अब दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व को लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रयोग से दूसरे को न बनने देने की कोशिश में ऐसे जुट जाएं कि सारा किया बेकार हो जाए।
भाजपा के एक प्रमुख नेता मानते हैं कि राज्य के चुनावी समर में भाजपा का मुकाबला, मायावती व मुलायम सिंह यादव जैसे चेहरों से है, जिनका अपना जातीय वोट आधार है। यह बात ठीक है कि मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। उनके पुत्र अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री का चेहरा हैं। बावजूद इसके व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो चुनाव में मुकाबला मुलायम से ही होना है।
भाजपा के पास इन चेहरों का जवाब यूपी में कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार जैसे चेहरे ही हो सकते है, पर इनमें पहले तीनों नाम इस समय दूसरी भूमिका में हैं। लिहाजा ये लोग किसी चेहरे की मदद तो कर सकते हैं, लेकिन इनका मौजूदा भूमिका छोड़कर उत्तर प्रदेश की चुनौती स्वीकार करना काफी मुश्किल है। रही बात विनय कटियार की तो पार्टी से राज्यसभा सदस्य होने के बावजूद पार्टी ने उन्हें लंबे समय से नेपथ्य में बैठा रखा है।
ऐसी स्थिति में उन्हें एकदम से मैदान में लाकर चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। बाकी जो नाम चर्चा में हैं उनमें कोई ऐसा नहीं है जो अपनी छवि और पकड़ की बदौलत भाजपा की नैया पार लगा दे। स्मृति ईरानी जैसे बाहरी नामों पर चर्चा हो रही है, लेकिन उन्हें सामने लाने के बाद भाजपा नेतृत्व को पहले यूपी के प्रमुख नेताओं में उनके नाम पर सहमति बनानी होगी।
अगर नेतृत्व लोकसभा चुनाव की तरह स्थानीय नेताओं की अनदेखी करके किसी को चेहरा घोषित भी कर दे तो भी उस प्रयोग के सफल होने की गारंटी नहीं है। पार्टी के भीतर एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा है कि लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का चेहरा था, जिसके बतौर मुख्यमंत्री कामकाज को लेकर देशभर में चर्चा थी।
खुद मोदी का नाम व चेहरा भी काफी पहले से अलग-अलग कारणों से देश के आम लोगों के बीच अपना स्थान बना चुका था। इसलिए तब यूपी के नेताओं की अनदेखी चल गई, पर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जो भी नाम चर्चा में है उसके साथ न तो मोदी जैसी उपलब्धियां हैं और न लोगों के बीच उसकी पहचान है। ऐसे में अगर किसी कारण यूपी के प्रमुख नेता भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए तो काफी मुश्किल होगा। शायद यही वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने असम के प्रयोग को यूपी में दोहराने के सवाल पर यह कहा कि उन्होंने अभी कुछ तय नहीं किया है।
राजनाथ सिंह : प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा घर के दरवाजे खुले रखने और लगातार संपर्क व संवाद रखने के कारण प्रदेश के कार्यकर्ताओं में स्वीकार्यता भी है। प्रशासनिक क्षमता भी है। उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ने से भाजपा को लाभ हो सकता है।
कार्यकर्ता एकजुट होकर सिंह के नेतृत्व में इसलिए भी जुट सकता है क्योंकि उसे भरोसा रहेगा कि सरकार बनने पर भी उसकी मुख्यमंत्री आवास तक पहुंच व पकड़ रहेगी। साथ ही काम भी होते रहेंगे। सिंह के चेहरे को आगे करके भाजपा सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट का हवाला देकर अगड़ों, अति पिछड़ों व अति दलितों को भी अपने पक्ष में मोड़ सकती है, पर यह तभी संभव है जब राजनाथ खुद इस भूमिका के लिए तैयार हों।
कलराज मिश्र : प्रदेश में लंबे समय तक संगठन का नेतृत्व कर चुके हैं। प्रदेशभर के लिए जाने-पहचाने चेहरे हैं। सरलता और कार्यकर्ताओं से सतत् संवाद व संपर्क के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय भी हैं। उनका चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने से भी भाजपा को फायदा हो सकता है। कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की क्षमता कलराज मिश्र में है।
उनका चेहरा होने पर भी लोगों को सरकार बनने पर संपर्क व संवाद और समस्याओं के समाधान का भरोसा रहेगा। कलराज को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करके अगड़ा व पिछड़ा कार्ड खेल सकती है, पर इस फैसले में भी कलराज की अपनी इच्छा भी भूमिका निभाएगी।
वरुण गांधी : भाजपा के भीतर एक वर्ग वरुण गांधी में मुख्यमंत्री बनने की संभावना और क्षमता देख रहा है। एक तो गांधी परिवार की पृष्ठभूमि और दूसरे हिंदुत्व पर आक्रामक भाषा, लोगों को लगता है कि वरुण को आगे करने से भी भाजपा को चुनाव में लाभ हो सकता है।
भाजपा को इससे उस वोट का भी लाभ हो सकता है जो चेहरा और माहौल देखकर वोट डालने का फैसला करता है, पर वरुण को लेकर पार्टी के भीतर हिचकिचाहट हो सकती है कि चेहरा घोषित होने के बाद वरुण सूबे के पार्टी नेताओं से कितना बनाकर चलेंगे और पार्टी के साथ तालमेल बैठाकर कितना काम करेंगे।
स्मृति ईरानी : केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के रूप में लोकसभा व राज्यसभा में कई मुद्दों पर विपक्ष पर उन्होंने जिस तरह तर्कों के साथ हमला बोला। साथ ही लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जिस तरह अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से नाता जोड़कर रखा है। इससे स्मृति ईरानी की लोकप्रियता बढ़ी है।
लोग मान रहे हैं कि प्रदेश में मायावती जैसे नेताओं से मुकाबला करने के लिए ईरानी का प्रयोग ठीक रहेगा। एक तो इससे भाजपा महिलाओं के बीच पकड़ व पैठ बना सकेगी, पर स्मृति ईरानी की भूमिका का फैसला भी उन पर और राष्ट्रीय नेतृत्व पर निर्भर है।
महंत आदित्यनाथ : भाजपा अगर ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव मैदान में उतरना चाहेगी तो गोरक्षपीठ के महंत आदित्यनाथ भी एक चेहरा हो सकते हैं। आदित्यनाथ की एक तो हिंदुत्ववादी छवि है। साथ ही उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में अपने कार्यों से पूर्वांचल में मल्लाह, निषाद, काछी, कुर्मी, कुम्हार, तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और धानुक, पासी, वाल्मीकि जैसी तमाम अति दलित जातियों में पकड़ मजबूत की है।
दबंग छवि का होने के नाते लोग उन्हें पसंद भी करते हैं, पर भाजपा के भीतर इस बात को लेकर असमंजस हो सकता है कि उन्हें सीएम का चेहरा घोषित करने से उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए।
डॉ. दिनेश शर्मा : करीब एक दशक से लखनऊ के महापौर हैं। भाजपा के सांगठनिक ढांचे में भी कई पदों पर काम कर चुके हैं। इस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। आम लोगों के बीच उनकी छवि व साख ठीक-ठाक है। सरल हैं और लोगों को आसानी से उपलब्ध भी हैं।
प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं से भी उनका संपर्क व संवाद है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रिय लोगों में शुमार होते हैं। डॉ. शर्मा का नाम भी बतौर भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में शामिल रहा है, पर सूबे का जातीय गणित उन पर पूरी तरह अनुकूल नहीं बैठ रहा है क्योंकि वे ब्राह्मण समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।
तभी यूपी में भाजपा समाज के सभी वर्गों को उसी तरह से जोड़ने में कामयाब हो सकेगी जैसी कि पिछले आम चुनावों में उसने लोगों को जोड़ा था। इस काम में उसे अजीत सिंह चौधरी और मुख्यधारा से अलग-थलग पड़े नेताओं का सहयोग भी मिल सकेगा क्योंकि उनके जैसे ज्यादातर नेता जाति विशेष के वोटों पर ही आश्रित रहते आए हैं और रहेंगे लेकिन अगर भाजपा को समाज के सभी वर्गों के मत चाहिए तो उसे सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के मध्य तालमेल बनाकर अपनी जीत सुनिश्चित करनी होगी।