अग्नि परीक्षाओं से गुजरता अमेरिकी प्रजातंत्र
विश्व के सबसे शक्तिशाली गणराज्य अमेरिका के सर्वोच्च पद के लिए इस वर्ष चुनाव होने जा रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में विश्व के प्रत्येक देश के कूटनीतिज्ञ अपनी पैनी नज़रें रखते हैं क्योकि ये चुनाव भविष्य की वैश्विक राजनैतिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालते हैं। किन्तु पिछले कुछ चुनावों से कूटनीतिज्ञों के साथ विश्व के सभी देशों के नागरिक भी इन चुनावों के परिणामों में गहन रुचि लेने लगे हैं।
दो चुनावों पहले जब ओबामा पहली बार प्रत्याशी बने थे तब विश्व के नागरिकों को यह जानने की उत्सुकता थी कि क्या अमेरिका का प्रजातंत्र इतना विकसित हो चुका है कि वह एक अश्वेत राष्ट्रपति को निर्वाचित कर देगा? अमेरिकी प्रजातंत्र ने विश्व की जनता को निराश नहीं किया और इतिहास में पहली बार एक अश्वेत नागरिक राष्ट्रपति बन गए। पिछले चुनावों में अमेरिका ने ओबामा को चुनकर पुनः साबित किया कि ओबामा की पहली जीत कोई संयोग नहीं थी। दूसरी जीत प्रजातंत्र के और अधिक परिपक्व होने का संकेत थी। किन्तु ऐसा नहीं है कि प्रजातंत्र को अग्नि परीक्षा मात्र एक बार ही देनी होती है।
हर चुनावों में कुछ न कुछ ऐसे कारण बन जाते हैं जब प्रजा की अपेक्षाएं प्रजातंत्र से और अधिक बढ़ जाती हैं तथा प्रजातान्त्रिक व्यवस्था पुनः कठघरे में खड़ी हो जाती है। वर्तमान वर्ष में होने जा रहे चुनाव अब ओबामा कौतूहल से आगे निकलकर ट्रम्प जिज्ञासा का केंद्र बन चुके हैं। यही विषय आज की चर्चा का है। विश्व के साथ भारत की जनता भी इस चर्चा में व्यस्त है कि अमेरिकी राष्ट्रपति उम्मीदवारों ट्रम्प और हिलेरी में भारत के लिए बेहतर कौन होगा? अमेरिका की तरह भारत में भी जनता विभाजित दिख रही है। सबके अपने अपने मत हैं और अपने अपने तर्क। लेकिन पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अमेरिका में कोई उम्मीदवार जीते भारत से अमेरिका के रिश्तों पर कोई अन्तर नहीं आने वाला। पिछले कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका बहुत करीब आए हैं और सकारात्मक रिश्ते की ओर निरंतर बढ़ रहे हैं। वे उसी गति से बढ़ते रहेंगे।
भारत के सम्बन्ध अमेरिका के किसी दल या उसकी सोच के साथ नहीं है अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र के साथ हैं। अतः कोई भी राष्ट्रपति बने उसके सामने भारत के साथ संबंधों को गति देने की प्राथमिकता और अनिवार्यता दोनों रहेगी। आज की वैश्विक कूटनीतिक व्यवस्था में भारत का एक महत्वपूर्ण किरदार है और कोई भी उसकी उपेक्षा करने का साहस नहीं कर सकता। इस समय विश्व मीडिया में जो सर्वाधिक चर्चा का विषय हैं वह हैं राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी ट्रम्प द्वारा दिए गए कुछ अटपटे बयान। इन बयानों के पश्चात् ट्रम्प पर कई तरह के आरोप लग रहे हैं जैसे धार्मिक धुवीकरण का या जातीय भेदभाव का। इन बयानों को चुनावी स्टंट से अधिक कुछ नहीं लिया जाना चाहिए। अमेरिकी प्रशासन प्रणाली इतनी सुलझी हुई है कि किसी भी विषय पर यदि निर्णय लेना होता है तो राष्ट्रपति के सामने प्रशासन विकल्प देता है चुनने के लिए।
अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय मसलों पर ये विकल्प तात्कालिक और भविष्य में होने वाले अमेरिकी हितों पर होने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए ही बनाए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति कुछ भी निर्णय लेने या देने को स्वतन्त्र है। अतः जाहिर है कि कोई भी राष्ट्रपति हो अपने देश में या विदेश में किसी भी पुरानी व्यवस्था को रातों-रात परिवर्तित नहीं कर सकता। अतः जब अमेरिकी राष्ट्रपति के पास निर्बंध अधिकार नहीं है तो फिर इतनी चिल्लपों क्यों हो रही है? सच तो शायद यह है कि अमेरिकी चुनाव के इतिहास में पहली बार चुनाव नकारत्मक मतों के आधार पर होंगे। पार्टी व्यवस्था में दरार पड़ती दिख रही है। दोनों मुख्य दलों में ऐसे अनेक लोग हैं जो समझते हैं कि उनके दल द्वारा घोषित प्रत्याशी उचित नहीं है। अतः उनके क्रॉस वोटिंग (प्रति-मतदान) करने की सम्भावना है।
लगता है इस वर्ष चुनाव दलों की सोच और नीतियों के आधार पर नहीं उम्मीदवार की योग्यता/अयोग्यता के आधार पर होंगे। इस नकारात्मकता के चलते आरोप-प्रत्यारोप का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है और इसलिए ये चुनाव आवश्यकता से अधिक सुर्खियां बटोर रहे हैं। यही कारण है प्रजातंत्र के कटघरे में खड़े होने का जब चुनाव पहली बार योग्यता/अयोग्यता और कई मायनों में नकारात्मक वोटिंग आधार पर होंगे।
प्रजातंत्र में सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की बात है किन्तु प्रजातान्त्रिक प्रशासन में धर्म या मान्यताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। इन चुनावों में इस मसले को तूल देने की कोशिश की गयी है। ध्यान रहे प्रजातंत्र में किसी का हव्वा या डर बताकर चुनाव नहीं जीते जा सकते। उदाहरण के लिए भारत के पिछले लोकसभा चुनावों में कुछ लोगों ने मोदीजी का डर दिखाने की कोशिश की और मुंह की खाई। वैसे ही इंग्लैंड में हाल ही में हुए जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ से अलग होने को लेकर इंग्लैंड के राजनेताओं ने जनता को कई तरह के डर दिखाए और हार गए।
जब नेता नकारात्मक तर्क देकर भय दिखाने की कोशिश करते हैं तो जनता अपनी जिद में विरोध पर आ जाती है क्योंकि प्रजातंत्र अब इतना परिपक्व तो हो चुका है कि किसी अज्ञात का भय दिखाकर चुनाव नहीं जीते जा सकते। विश्व की जनता अग्नि कुंड में खड़े अमेरिकी प्रजातंत्र को जिज्ञासा से देख रही है कि इन चुनावों में उठे प्रश्नों पर अमेरिकी प्रजातंत्र क्या उत्तर देता है और इस आंच में तपकर और अधिक कैसे निखरता है। जो भी उत्तर मिलेगा उसके दूरगामी परिणाम निश्चित हैं।