रविवार, 22 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Rahul Gandhi
Written By Author अनिल जैन
Last Updated : सोमवार, 27 अगस्त 2018 (18:26 IST)

अच्छा होता कि राहुल गांधी 1984 के दंगे के लिए माफी मांग लेते

अच्छा होता कि राहुल गांधी 1984 के दंगे के लिए माफी मांग लेते - Rahul Gandhi
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 1984 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस की भूमिका से इंकार किया हैं। उन्होंने उस हिंसा को एक बड़ी त्रासदी बताया और उसके पीड़ितों के साथ सहानुभूति जताते हुए कहा कि दोषियों को कानून के मुताबिक दंडित किया जाना चाहिए।
 
 
ब्रिटेन की संसद में एक सवाल के जवाब में दिया गया राहुल गांधी का यह बयान वैसा ही है, जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत भाजपा और संघ के तमाम नेता गुजरात में 2001 के मुसलमान विरोधी दंगों में भाजपा या गुजरात सरकार की भूमिका से इंकार करते रहे हैं। दरअसल, 1984 और 2002 के दंगे स्पष्ट रूप से दो समुदायों के खिलाफ व्यापक पैमाने पर राज्य प्रायोजित नरसंहार थे जिनके लिए क्रमश: कांग्रेस और भाजपा स्पष्ट रूप से जिम्मेदार हैं।
 
जहां तक 1984 के सिख नरसंहार की बात है, यह सही है कि उसका आह्वान कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर नहीं किया था, लेकिन इतना ही सच यह भी है कि जो कुछ हुआ था, वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की शह पर ही हुआ था। हिंसा थमने के बाद उसे औचित्य प्रदान करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जो बयान दिया था, उसे कौन भूल सकता है? उन्होंने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो उसके आसपास की धरती में थोड़ा तो कंपन होता ही है। राजीव गांधी का यह बयान न सिर्फ उस व्यापक मार-काट के प्रति उनकी निष्ठुरता का परिचायक था, बल्कि उससे यह भी जाहिर हो रहा था कि जो भी कुछ हुआ और हो रहा है वह योजनाबद्ध है और उनकी जानकारी में है।
 
1984 की सिख विरोधी हिंसा के संदर्भ में एक भ्रांति यह भी है कि यह सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास तक ही सीमित थी। जब भी इसका जिक्र होता है तो संदर्भ सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित रहता है, जबकि हकीकत यह है कि यह हिंसा अखिल भारतीय थी। पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, केरल आदि कुछेक राज्य ही अपवाद थे, जो इस इससे अछूते रहे थे, क्योंकि वहां कांग्रेस सत्ता में नहीं थी। जिन राज्यों में सर्वाधिक हिंसा हुई थी, वहां सभी जगह कांग्रेस की सरकारें थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उन सभी जगह दंगाइयों को स्थानीय प्रशासन की ओर से खुलकर 'खेलने' की छूट मिली हुई थी।
 
कांग्रेस शासित विभिन्न राज्यों के हर छोटे-बड़े शहर और कस्बों में सिखों के मकानों-दुकानों में लूटपाट कर उन्हें आग के हवाले कर दिया गया था। उनके वाहन जला भी जला दिए गए थे। कई जगह सिखों को जिंदा जलाने और उनकी महिलाओं से सार्वजनिक रूप से बदसलूकी की गई थी। पूरे 3 दिन तक हर जगह कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के निर्देशन में चले इस पूरे उपक्रम में कांग्रेस के निचले स्तर के कॉडर के साथ संघ के भी निचले स्तर के स्वयंसेवकों की सहभागिता स्पष्ट रूप से नजर आ रही थी।
 
यह हिंसक तांडव पूरे 2-3 दिनों तक जारी रहा था और सब जगह पुलिस-प्रशासन न सिर्फ मूकदर्शक बना रहा था, बल्कि जो लोग सिखों को बचाने की कोशिश कर रहे थे, उनके साथ बदसलूकी भी कर रहा था। संघ के कॉडर ने न सिर्फ सिख विरोधी हिंसा और लूटपाट में भागीदारी की थी, बल्कि करीब डेढ़ महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में भी संघ ने व्यापक पैमाने पर परोक्ष रूप से कांग्रेस का समर्थन किया था जिसकी बदौलत कांग्रेस को 425 सीटें हासिल हुई थीं (हालांकि भाजपा के मुंहबली प्रवक्ता और बेखबरी टीवी चैनलों में कार्यरत पठित-अपठित मूर्ख 282 सीटों को ही प्रचंड और अभूतपूर्व बहुमत बताते रहते हैं)।
 
उस चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में हिन्दू बैकलेस इतना जबर्दस्त था कि भाजपा को महज 2 सीटें ही मिल पाई थीं- 1 गुजरात से और 1 आंध्रप्रदेश से। भाजपा के बाकी उम्मीदवार ही नहीं, बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज भी संघ के भीतरघात के शिकार होकर ग्वालियर में माधवराव सिंधिया के मुकाबले बुरी तरह हार गए थे, जबकि ग्वालियर को वे अपने लिए सबसे सुरक्षित सीट मानते थे।
 
1984 में सिखों को 'सबक सिखाने' का औपचारिक आह्वान भले ही कांग्रेस की ओर से संगठन या सरकार के स्तर पर न हुआ हो, फिर भी जो कुछ हुआ उससे यह तो साफ था कि कांग्रेस उस समय सिख समुदाय के खिलाफ एक तरह से हिन्दू सांप्रदायिकता की अगुवाई कर रही थी और इसमें संघ परोक्ष रूप से उसके साथ था इसलिए सिखों के साथ उस समय जो कुछ हुआ, उसकी जिम्मेदारी से कांग्रेस इंकार नहीं कर सकती।
 
इस बात को संभवतया डॉ. मनमोहन सिंह अच्छी तरह समझते हैं इसलिए प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने सिख समुदाय से माफी मांग ली थी। अच्छा तो यह होता कि राहुल भी 1984 की हिंसा में कांग्रेस की लिप्तता को कबूल करते हुए माफी मांग लेते। ऐसा करने से उन्हें कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला था, बल्कि फायदा यह होता कि इससे उनका नैतिक कद भी बढ़ता और इस बारे में बार-बार उठने वाले सवाल की धार भी कुंद पड़ जाती।
 
यह और बात है कि राहुल के माफी मांगने से उन लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ता, जो अक्सर 1984 को याद करते हुए राहुल या कांग्रेस से माफी की मांग करते रहते हैं। उन लोगों ने तो गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ सत्ता प्रायोजित हिंसा के लिए माफी मांगना तो दूर, खेद तक नहीं जताया है। यही नहीं, उन्होंने तो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी नकारात्मक भूमिका के लिए और 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद मनाए गए जश्न के लिए भी माफी नहीं मांगी है।
 
लेकिन इससे क्या होता है? यह जरूरी तो नहीं कि भाजपा के तब के या अब के नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया तो कांग्रेस भी ऐसा नहीं करे और अपने को भाजपा की घटिया फोटोकॉपी साबित करती रहे।
ये भी पढ़ें
किराने की ये 7 चीजें जिन्हें आपको MRP पर कभी नहीं खरीदना चाहिए