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Written By Author अनिल जैन
Last Updated : मंगलवार, 17 दिसंबर 2019 (17:56 IST)

सवाल तो तसलीमा की नागरिकता का भी कम महत्वपूर्ण नहीं है!

सवाल तो तसलीमा की नागरिकता का भी कम महत्वपूर्ण नहीं है! - Question of taslima nasreen citizenship
बहुचर्चित और बहुविवादित नागरिकता संशोधन कानून सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि भारत के बाहर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खासी चर्चा का विषय बना हुआ है। इस कानून के मुताबिक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ना का शिकार हो रहे गैर मुस्लिम धर्मावलंबियों को भारतीय नागरिकता दी जा सकेगी।
 
नागरिकता संशोधन विधेयक पर संसद में बहस के दौरान कुछ विपक्षी सदस्यों के सवालों का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि अगर इन देशों का कोई मुस्लिम नागरिक भी धार्मिक आधार पर प्रताड़ना के चलते भारत की नागरिकता लेना चाहेगा तो सरकार उसके आवेदन भी विचार करेगी। गृहमंत्री के इस आश्वासन के मद्देनजर बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन का जिक्र किया जाना लाजिमी हो जाता है, जिन्होंने लंबे समय से भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदन कर रखा है।
 
बांग्लादेश में कट्टरपंथियों और सरकार की प्रताड़ना का शिकार होकर करीब ढाई दशक से निर्वासित जीवन बीता रहीं चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन पिछले करीब डेढ़ दशक से भारत में रह रही हैं। वर्ष 2004 में भारत सरकार ने उन्हें रेजीडेंट परमिट जारी कर अस्थायी तौर पर दिल्ली में रहने की इजाजत दी थी।
 
उस वक्त केंद्र में यूपीए की सरकार थी। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने तस्लीमा को हासिल रेजीडेंट परमिट रद्द कर दिया था और उसकी जगह उन्हें दो माह का टूरिस्ट वीजा जारी किया था। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि उनका दीर्घकालिक रेजीडेंट परमिट जल्दी ही जारी कर दिया जाएगा और उनके अच्छे दिन आएंगे।
 
तसलीमा को जब बांग्लादेश से निर्वासित होना पड़ा था तब वहां खालिदा जिया के नेतृत्व वाली कट्टरपंथी सरकार थी, लेकिन बाद में शेख हसीना के नेतृत्व में एक लोकतांत्रिक और अपेक्षाकृत उदारवादी सरकार आ जाने के बावजूद तसलीमा की अपने वतन लौट पाने की तमन्ना पूरी नहीं हो सकी।
 
इसलिए जब भारत के गृहमंत्री ने उन्हें अच्छे दिन आने का आश्वासन दिया तो तस्लीमा को उम्मीद बंधी थी कि उनकी उस कोलकाता में बसने की हसरत पूरी हो सकेगी, जिसे वह अपना दूसरा घर मानती हैं। लेकिन उनके अच्छे दिन आए और दो महीने बाद उनके टूरिस्ट वीजा की अवधि महज एक साल के लिए बढाई गई। अभी भी वे अस्थायी रेजीडेंट परमिट पर ही दिल्ली में रह रही हैं, जिसका हर साल उन्हें नवीनीकरण कराना होता है।
 
तसलीमा को इस वर्ष जुलाई में तो अपने परमिट के नवीनीकरण के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ी, क्योंकि उनके परमिट की अवधि समाप्त हो जाने पर गृह मंत्रालय ने उन्हें महज तीन सप्ताह का ही रेजीडेंट परमिट दिया था। लेकिन जब बाद में तसलीमा ने ट्‍विटर पर गृहमंत्री अमित शाह से अनुरोध किया तो उस परमिट को एक साल के लिए बढाया गया।
 
तसलीमा ने 17 जुलाई को अमित शाह को ट्‍वीट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था- 'मैंने वीजा परमिट में पांच साल के एक्सटेंशन के लिए आवेदन किया था, लेकिन मुझे एक साल का ही एक्सटेंशन मिल रहा है। राजनाथ जी ने मुझे आश्वासन दिया कि वह मेरा वीजा परमिट 50 साल तक के लिए बढ़वा देंगे। अब भारत ही मेरा एकमात्र घर है।
 
मुझे यकीन है कि आप मेरे बचाव मे आएंगे। हर बार जब मैं अपने भारतीय रेजीडेंट परमिट के लिए पांच साल के लिए आवेदन करती हूं, तो मुझे एक वर्ष के लिए एक्सटेंशन मिलता है। इस बार भी मैंने 5 साल के एक्सटेंशन के लिए आवेदन किया, लेकिन मुझे केवल तीन महीने का ही एक्सटेंशन मिला है। आशा है कि माननीय गृहमंत्री मेरे रेजीडेंट परमिट को कम से कम एक साल के लिए बढाने पर विचार करेंगे।’
 
दरअसल, तसलीमा को तो केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद उम्मीद बंधी थी कि उनके परमिट की अवधि को टुकड़ों-टुकड़ों में बढ़ाने के बजाय नई सरकार उन्हें स्थायी नागरिकता प्रदान करने या उन्हें अपने यहां राजनीतिक शरण देने का फैसला करेगी, जिसके लिए उन्होंने कई वर्षों से आवेदन कर रखा है।
 
मूल नागरिकता क़ानून के तहत किसी को भी भारत का नागरिक बनने के लिए लगातार 11 साल तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती है और इसमें से भी आवेदन देने के पहले के बारह महीने तक लगातार भारत में रहना होता है। यूपीए सरकार के समय तो तक तो तस्लीमा को भारत में रहते हुए लगातार 11 साल नहीं हुए थे, लेकिन मौजूदा सरकार के दौर में तसलीमा यह शर्त पूरी कर चुकी हैं। इसके बावजूद उन्हें नागरिकता देने पर सरकार ने कोई विचार नहीं किया है। सरकार के इस रुख ने तसलीमा को बुरी तरह मायूस किया है।
 
यह तो तय है कि बांग्लादेश में शेख हसीना की जम्हूरी हुकूमत होते हुए भी वहां जिस तरह का माहौल है, तसलीमा के लिए अपने वतन लौटना मुश्किलों भरा है। वहां उनकी सभी पुस्तकें प्रतिबंधित हैं और कई मुकदमे उनका इंतजार कर रहे हैं। हालांकि तसलीमा में इतनी क्षमता है कि वे इन मुकदमों का न्यायिक सामना कर सकें, लेकिन इसमें संदेह की पूरी गुंजाइश है कि मुकदमों की कार्यवाही शुद्ध न्यायिक आधार चल सकेगी।
 
आखिर एक कट्टरपंथी समाज में अदालतें भी तो हवा का रुख भांपकर ही काम करती हैं। इससे भी ज्यादा तकलीफदेह आशंका यह है कि बांग्लादेश में तसलीमा का जीवन सुरक्षित रहेगा या नहीं। क्योंकि उनके कटे हुए सिर पर काफी बड़ी राशियों के इनाम घोषित हैं और 'इस्लाम के मुहाफिज’ उन्हें संगसार करने पर आमादा हैं।
 
भारत में वर्ष 2004 से अब तक टुकड़ों-टुकड़ों में तसलीमा के रेजीडेंट परमिट की अवधि बढ़ाई जाती रही है। अफसोस की बात यह है कि उन्हें राजनीतिक शरण देने का मुद्दा तो कायदे से उठ ही नहीं पाया है। सभी राजनीतिक दलों ने इस मामले में अघोषित आम सहमति से शर्मनाक चुप्पी साध रखी है। तसलीमा को स्थायी नागरिकता या राजनीतिक शरण देने के सवाल पर शायद यह कूटनीतिक संकोच भी आड़े आता होगा कि इससे बांग्लादेश से हमारे द्विपक्षीय रिश्ते खराब होंगे।
 
सवाल उठता है कि क्या एक लेखिका के लिए इतनी बडी राजनयिक जोखिम उठाई जानी चाहिए? जी हां, जरूर उठाई जानी चाहिए। माना कि तसलीमा के लेखन का साहित्यिक मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? हर देश काल में कुछ ऐसा तूफानी लेखन होता है जो साहित्य के पैमाने पर बहुत ज्यादा ऊंचे दर्जे का भले ही न हो, पर तात्कालिक तौर पर गहरी हलचल मचाता है। भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न समाजों में ऐसा लेखन सामाजिक बदलाव का असरदार औजार बन सकता है। इसलिए तसलीमा को भारत में स्थायी रूप से बसने की अनुमति दी जानी चाहिए।
 
भारत सरकार का यह फर्ज बनता है कि वह तसलीमा को आश्वस्त करे कि भारत उनका घर है, वे जब तक चाहें, यहां रह सकती हैं और चाहे तो भारत की नागरिकता भी प्राप्त कर सकती है। भारत ने अपनी आजादी के तुरंत बाद लगभग सात दशक पहले चीन की नाराजगी मोल लेते हुए दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायियों को राजनीतिक शरण दी थी, जो आज भी भारत में यहां-वहां रह रहे हैं।
 
हालांकि स्टालिन की बेटी स्वेतलाना के मामले में हमारे तत्कालीन हुक्मरान सोवियत संघ (रूस) से डर गए थे। उस समय का कलंक अभी तक हमारे माथे पर लगा हुआ है। तसलीमा को भारत में शरण देकर उस कलंक को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
 
यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ईरान के मजहबी नेता अयातुल्लाह खुमैनी के फरमान की परवाह न करते हुए ब्रिटेन ने किस तरह सलमान रुश्दी का साथ दिया था। यह अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने या उसे संरक्षण देने की अद्वितीय मिसाल थी।
 
एशिया महाद्वीप में यह भूमिका भारत भी निभा सकता है। हमारा देश तो 'वादे वादे जायते तत्वबोध:’ का है। यहां तो वेदों को भी चुनौती दी गई है और ईश्वर को भी नकारा गया है। तसलीमा के रहने के लिए भारत से बेहतर जगह और हो भी क्या सकती है?

पचास के दशक में समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया ने विश्व नागरिकता की अपनी अवधारणा पेश करते हुए मनचाहे देश की नागरिकता हासिल करने के व्यक्ति के अधिकार को मानव अधिकारों की फेहरिस्त में शामिल करने पर जोर दिया था।
 
इसी संदर्भ में उन्होंने कहा था कि हमारी एक भारत माता है तो एक धरती माता भी है। इसी आधार पर तसलीमा के लिए एक बांग्ला मां है तो एक धरती मां भी होनी चाहिए। और फिर महज 72 वर्ष पहले तक तो भारत माता और बांग्ला माता एक ही थी। नालायक बेटों की नासमझी ने भले ही मां को बांट दिया हो, पर लायक बेटे तो समझदारी दिखाते हुए उसे फिर से जोड़ सकते हैं।
 
दरअसल, तसलीमा के रहने के लिए भारत और भारत में भी कोलकाता से ज्यादा उपयुक्त जगह कोई हो भी नहीं सकती। वह यहां एक ऐसे समाज में रह सकेंगी जो उनके संघर्ष को आदर की दृष्टि से देखता है और यहां वे बांग्ला बोल-सुन सकेंगी। मछली आखिर पानी में ही तो रह सकती है। उसे पानी में स्थायी रूप से रहने की इजाजत क्यों नहीं मिलनी चाहिए?
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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