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Written By Author डॉ. प्रवीण तिवारी
Last Updated : गुरुवार, 11 अगस्त 2016 (15:29 IST)

क्या है नीतीश कुमार की शराबबंदी का सच?

क्या है नीतीश कुमार की शराबबंदी का सच? - Nitish Kumar, wine closures
नीतीश कुमार शराबबंदी पर अपने विरोधियों के खिलाफ खुलकर सामने आए हैं। उन्होंने एक ब्लॉग के जरिए कहा है कि ये एक बड़ी चुनौती है लेकिन वे इससे पीछे नहीं हटेंगे। दूसरी तरफ उनके गृह जिले नालंदा में शराब बनाने वाले लोगों पर हुए सामूहिक जुर्माने ने शराबबंदी से बेरोजगार हुए लोगों की एक नई कहानी सामने रख दी है। 
10 पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड कर भी उन्होंने शराबबंदी को लेकर अपनी सख्ती दिखाने की कोशिश की है। इन तमाम उठापटक के बीच अब ये सवाल गहरा रहा है कि नीतीश कुमार की शराबबंदी को लेकर आखिर क्या सोच है? क्या सचमुच बिहार को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने शराबबंदी की इस मुहिम को शुरू किया है या फिर इस पीछे भी कोई सियासी गणित है?
 
निजी तौर पर मैंने पहले भी नीतीश कुमार की इस पहल को एक बेहतरीन कदम बताया है। शराब इस देश को खोखला कर रही है और शराबबंदी के जरिए देश में अपराध और युवाओं के भटकाव की समस्या से बहुत हद तक निपटा जा सकता है। बिहार में शराबबंदी के बाद से ही नीतीश कुमार शराब माफिया और विरोधियों के निशाने पर रहे हैं। 
 
बिहार में शराबबंदी के बाद से एक छटपटाहट देखने को मिली है। इसी का नतीजा है कि उनके अपने गृह जिले नालंदा से लगातार अवैध शराब मिलना उनके लिए चुनौती बना हुआ है। इस सबके बीच नीतीश कुमार ने एक ब्लॉग के जरिए शराबबंदी की पुरजोर वकालत करते हुए गांधीजी को कोट किया। 
 
उन्होंने लिखा है कि महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में 1931 में लिखा था- 'यदि मुझे 1 दिन के लिए भारत का तानाशाह बना दिया जाए तो मैं सबसे पहले पूरे देश में बिना कोई मुआवजा दिए सभी शराब की दुकानों को बंद करवा दूंगा।' 
 
साथ ही उन्होंने गांधीजी की इस बात को भी पुरजोर तरीके से लिखा कि 'किसी भी देश की जड़ों को खोखला करने के लिए नशा ही जिम्मेदार होता है। बड़ी-बड़ी सियासतों का अंत इसी शराब की वजह से हुआ है।' नीतीश ने जितनी भी बातें लिखी हैं उनसे शायद ही कोई इंकार कर पाए। 
 
इसमें सियासत की बू तब सामने आती है, जब वो इसी ब्लॉग में गुजरात का नाम लिए बगैर कहते हैं कि जिन राज्यों में शराबबंदी लागू भी की गई है वहां ये पूरी तरह से कामयाब नहीं है। 
ये बात सच भी है कि जिन राज्यों में शराबबंदी होती है, वहां शराब उपलब्ध हो जाती है। 
गुजरात भी इससे अछूता नहीं है। ये जरूर है कि जिन राज्यों में शराबबंदी होती है, वहां अपेक्षाकृत इसके दुष्प्रभाव कुछ कम हो जाते हैं। हालांकि शराब के दुष्प्रभाव सामने आते हैं तो शराबबंदी के भी कुछ दुष्प्रभाव हमारे सामने आए हैं।
 
एक तरफ नीतीश कुमार शराबबंदी का दावा कर रहे दूसरी तरफ उनके गृह जिले नालंदा के इसलामपुर नामक एक गांव के दलित परिवार उनकी सरकार पर बरसते दिखाई दे रहे हैं। दरअसल, शराबबंदी के बावजूद यहां से बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी शराब मिलने का सिलसिला जारी है। 
 
इसी वजह से प्रशासन ने हर परिवार पर 5-5 हजार रुपए का जुर्माना लगा दिया है। इन लोगों का कहना है कि उनके पास खाने को पैसा नहीं है तो वो जुर्माना कहां से भर पाएंगे? प्रशासन इस मामले को लेकर कितना सख्त है इसकी बानगी 10 एसएचओ को सस्पेंड करने की कार्रवाई से लगाया जा सकता है।
 
गांव वालों का आरोप है कि राज्य सरकार ने इन लोगों को बेरोजगार कर दिया है। बेरोजगारी के कारण ही ये लोग शराब बनाने के धंधे में आए थे। इनका कहना है कि वे जुर्माना कहां से भरेंगे? जब पेट भरने के लिए भी पैसा नहीं है। सबसे अहम बात उन महिलाओं की है, जो शराबबंदी के फैसले से बहुत खुश थीं लेकिन उनका अब कहना है कि वो शराबबंदी तो चाहती हैं लेकिन उनके पतियों के जेल जाने की कीमत पर नहीं। 
 
शराबबंदी करना और शराब का छूट जाना में बहुत फर्क होता है। शराब लाखों लोगों का कारोबार है तो करोड़ों लोगों की लत है। लत और रोजगार दोनों ही चुनौतियों को सामने रखकर कोई फैसला लेना ही कारगर हो सकता है। यही वजह है कि सुशासन बाबू को ये लोग तानाशाह कहने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।
 
उन्होंने अपने ब्लॉग के जरिए इन आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि सरकार को मिली शक्ति समाज की भलाई के लिए ही होती है। नशे का कारोबार किसी अधिकार के दायरे में नहीं आते हैं। ये आरोप बेबुनियाद हैं कि ये तानाशाही रवैया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा है कि नशे बेचना, खरीदना, आयात करना, निर्यात करना या भंडारण करना किसी मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं है। समाज के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सरकार की है और मैं ये जिम्मेदारी निभाता रहुंगा।
 
इन आरोपों के बीच सुशासन बाबू पर शराबबंदी को लेकर एक राजनीतिक आरोप भी लगा। ये आरोप उनकी सियासी दोस्त कही जाने वाली आम आदमी पार्टी के ही एक सदस्य ने लगाए। अपने एक ब्लॉग में इन्होंने लिखा कि शराबबंदी के बाद जब मैं बिहार गया तो लोगों में इसको लेकर सकारात्मकता तो दिखी लेकिन साथ ही साथ एक डर का माहौल भी देखने को मिला।
 
खासतौर पर महिलाएं जबरदस्ती शराबबंदी होने के बाद लगातार हो रही पुलिसिया कार्रवाई से बहुत खौफजदा हैं। उन्होंने ये भी लिखा कि नए कानून के मुताबिक सिर्फ शराब रखने वाला शख्स ही नहीं, उसके परिवार के 18 वर्ष से ज्यादा उम्र के सभी लोगों को जेल भेजने का प्रावधान है।
 
शराबबंदी के बाद राज्य सरकार को आबकारी आय में जबरदस्त घाटा उठाना पड़ रहा है। सुशासन बाबू को अपनी छबि मजबूत करने में तो इससे फायदा मिल रहा है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार को इस मोर्चे पर झटका लग रहा है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर वो ये काम कर ही क्यूं रहे हैं।
 
इसी ब्लॉग में एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से ये भी लिखा है कि अवैध शराब का कारोबार पार्टी फंड में ज्यादा पैसा लेकर आता है। नीतीश अगले लोकसभा चुनाव में खुद को मोदी की टक्कर में खड़ा मान रहे हैं, यही वजह है कि वो अगले चुनाव के लिए पैसा जुटाने में लगे हुए हैं।
 
ये तर्क कमजोर दिखाई पड़ सकता है लेकिन नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नीतीश कुमार ने बिहार लोकसभा चुनाव में अपनी हार को मोदी के खिलाफ हुई हार माना और लालू जैसे धुर विरोधी से हाथ मिलाने में भी गुरेज नहीं किया। केंद्र की राजनीति में मोदी के खिलाफ कोई और चेहरा विपक्ष की तरफ से नहीं दिखाई पड़ता है।
 
मुलायम, ममता, जयललिता और नीतीश कुमार जैसे चेहरे स्थानीय राजनीति में बड़े हो सकते हैं लेकिन जब केंद्र की राजनीति की बात आती है तो ये चेहरे मोदी के कद के दिखाई नहीं पड़ते।
 
इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि 2 साल पहले मोदी भी क्षेत्रीय राजनीति का ही चेहरा थे। गुजरात में रहते हुए उन्होंने खुद को राष्ट्रीय पटल पर एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने में कामयाबी हासिल की थी। नीतीश कुमार मोदी की ही राह पर चल रहे हैं। मोदी मंत्र को अपनाते हुए पहले उन्होंने अपने प्रचार को बिलकुल उन्हीं के अंदाज में सामने रखा। उन्हें किसी समय में मोदी की ही टीम का हिस्सा रहे प्रशांत किशोर का साथ भी मिला।
 
गौर करने वाली बात ये है कि प्रशांत औपचारिक तौर पर बिहार सरकार के सलाहकार भी हैं। नीतीश के शराबबंदी के फैसले को भी बहुत दूरदर्शिता के साथ लिए गए फैसले के बजाए चुपचाप मोदी मंत्र को मान लेने के तौर पर भी देखा जा सकता है। यही वजह है कि बेशक गांधी के बहाने ही सही, नीतीश कुमार को तानाशाह कहलाने में भी कोई हर्ज नहीं है।
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