आगरा एक्सप्रेस वे से ग्राउंड रिपोर्ट : 5 दिनों में सिर्फ 2 बार ही मिला खाना, नदी के पानी से बुझाई प्यास, पता नहीं जिंदा गांव पहुंच पाएंगे या नहीं
लखनऊ। देश में कोरोना महामारी के चलते प्रवासी मजदूर अब हर कीमत में अपने अपने घर लौटना चाहते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों को सरकार की सुविधाओं का फायदा भी मिला। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो घर वापसी में सरकार की सुविधा का फायदा नहीं ले पाए हैं लेकिन फिर भी ऐसे प्रवासी मजदूरों ने घर पहुंचने की ठान रखी है।
उत्तर प्रदेश के हाईवे की सड़कों पर ऐसे प्रवासी मजदूर पैदल व साइकिल उसे जाते हुए देखे जा सकते हैं। ऐसे ही कुछ प्रवासी मजदूरों से आगरा एक्सप्रेस वे पर वेबदुनिया संवाददाता ने बात की।
दिल्ली से बाराबंकी अपने गांव जाने के लिए पैदल निकले नागेंद्र व आदित्य ने बातचीत करते हुए अपना दर्द बयां किया और कहा कि इस सफर में दर्द,दुख और डर सब कुछ देखने को मिला है। इस सफर को इस जन्म में भुला पाना मुमकिन नहीं है।
नागेंद्र व आदित्य या दोनों बाराबंकी के रहने वाले हैं। नागेंद्र सन 2007 में दिल्ली आया था और दिल्ली में ऑटो रिक्शा चला कर अपना खर्चा चला रहा था और घर को भी पैसे भेज रहा था। कुछ दिनों के बाद नागेंद्र ने अपने छोटे भाई आदित्य को भी दिल्ली बुलवा लिया था और एक फैक्ट्री में उसका छोटा भाई मजदूरी करने लगा था।
लॉकडाउन के चलते फैक्ट्री मालिक ने उसे काम पर आने से मना कर दिया और वहीं दूसरी ओर नागेंद्र को ऑटो भी खड़ा करना पड़ा। जैसे-तैसे जमा पूंजी से एक महीना कांटा लेकिन धीरे धीरे एक वक्त की रोटी कटा पाना भी दोनों भाइयों के लिए नामुमकिन हो गया तो नागेंद्र व आदित्य ने ठान लिया उन्हें गांव वापस जाना है। वहीं पर रहकर छोटा-मोटा काम करना है। उस समय उन्हें नहीं पता था कि गांव वापसी इतनी आसान नहीं है।
उन्होंने बहुत हाथ-पैर मारे लेकिन गांव जाने के लिए उन्हें किसी भी प्रकार की सरकारी सुविधा का फायदा नहीं मिला। मजबूर होकर वह साइकिल से ही दिल्ली से बाराबंकी उत्तर प्रदेश के लिए निकल पड़े। दिल्ली से बाराबंकी का सफर उनके लिए बेहद कठिन साबित हुआ।
नागेंद्र ने बताया कि हम साइकिल से निकल तो पड़े थे लेकिन सबसे पहले पुलिस का सामना करना पड़ा। पुलिस ने दोनों को जमकर लताड़ा। उन्होंने बताया कि सीधे रास्ता तय करना आसान था लेकिन पुलिस की डर के वजह से हमें कई बार हाईवे से उतरकर जंगलों के रास्ते होकर आगे बढ़ना पड़ा। इस दौरान हम लोगों को नदियों का पानी पीकर प्यास बुझानी पड़ी लेकिन अन्न का एक दाना भी हमें नसीब जल्दी नहीं हो रहा था।
नागेंद्र ने बताया दिल्ली से निकले हुए 5 दिन हो चुके हैं और इन 5 दिनों में हमें मात्र 2 बार ही खाना नसीब हुआ है वह भी एक बार एक पुलिस वाले को हम पर दया आ गई तो उन्होंन खिला दिया। दूसरी बार सड़क किनारे पंचर की दुकान मैं छोटा सा मकान बनाए रहने वाले रामसेवक यादव ने हमें खाना खिला दिया और एक रात सोने का भी इंतजाम कर दिया।
उन्होंने बताया कि कई बार तो रास्ते में ऐसा लगा कि हम दोनों भाइयों की जिंदगी यहीं खत्म हो जाएगी और यह डर इतना खतरनाक था कि हमें अपनी आंखों के सामने अपने माता-पिता दिखने लगे। भूख से हम तड़प रहे थे ऐसे में हमने पानी पी पीकर अपने आप को जिंदा रखा है और अभी भी गांव पहुंचने में आधी दूरी तय करनी बाकी है।
नागेंद्र के अनुसार, हमें नहीं पता है यह आधी दूरी हम तय कर पाएंगे कि नहीं लेकिन भूख से मरने से तो अच्छा है कि घर जाकर अपनों के बीच रहकर अगर मौत आती है तो कोई परवाह नहीं नागेंद्र ने बताया कि यह सफर वह व उसका भाई आदित्य कभी भी भुला नहीं पाएंगे।