गुरुवार, 21 नवंबर 2024
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Written By स्मृति आदित्य

मीठा बचपन-सौंधा बचपन

‍खनकता-खिलखिलाता बचपन

Childrens Day 2009 India | मीठा बचपन-सौंधा बचपन
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बचपन, एक ऐसा मधुर शब्द जिसे सुनते ही लगता है मानो शहद की मीठी बूँद जुबान पर रख ली हो। जिसकी कोमल कच्ची यादें जब दिल में उमड़ती है तो मुस्कान का गुलाबी छींटा होंठों पर सज उठता है। जब भी इन महकते हरियाले पन्नों को फुरसत में बैठकर खोला और इन पर जमी धूल की परतों पर यादों की फुहारें डाली, भीनी-भीनी सुगंध की बयार ने उठकर मन को भावुक बना दिया।

बचपन वही तो होता है जो कंचे और अंटियों को जेबों में भरकर सो जाए, बचपन यानी जो पतंगों को बस्ते में छुपाकर लाए, बचपन मतलब जो मिट‍्टी को सानकर लड्डू बनाए, बचपन बोले तो जो बड़ों की हर चीज को छुपकर आजमाएँ। बचपन यानी पेड़ पर चढ़ने के बाद जो उतरने के लिए चिल्लाए, बचपन कहें तो वो जो अंदर से दरवाजा बंद कर बड़ों की परेशानी बन जाए, कुमिलाकर बचपन यानी शरारत और मस्ती की खिलखिलाती पाठशाला।

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गुलेल, गिल्ली-डंडा, तितली पकड़ना, घरौंदे बनाना ये सब आज बीते बचपन की बात हो गई है। आज का बचपन इतना सुविधायुक्त और वैभवशाली है कि उन खेलों से कोसों दूर है जिन्हें खेलकर कपड़ों से गीली मिट्टी की खुशबू आती है। आज का साफ-सुथरा बचपन वीडियो गेम, कंप्यूटर, मोबाइल, ऑनलाइन गेम्स के बीच व्यतीत हो रहा है। कभी-कभी लगता है अभिभावक ये सब इन्हें नहीं देंगे तो जैसे ये बड़े ही नहीं होंगे। पालकों को लगता है इनके बिना बच्चों का मानसिक विकास अधूरा रह जाएगा। सच तो यह है कि पुराने और पारंपरिक खेलों से हमने और हमारे बड़ों ने जो सीखा-समझा है वह इन अत्याधुनिक खेलों के बस की बात ही नहीं है।

धूल और माटी में सनकर ही हमने जाना कि आँगन में कितने और कैसे-कैसे पौधे हैं। छुईमुई कैसी होती है? तुलसी को आँगन की रानी क्यों कहा जाता है? घोंघें कैसे अपने ही घर को सिर पर उठाए घुमते हैं। हाथ के ऊपर रेत और मिट्टी चढ़ाकर घरौंदे बनाते हुए अपना घर बनाने की सीख ले ली। जब नन्हे शंख और सीपी से उसे सजाकर आत्मीयता से थपथपाया तो खूबसूरत घर की परिभाषा भी जानी।

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गेहूँ, धान, ज्वार और मूँग के इधर-उधर बिखरे दाने भीगकर कैसे अंकुरित हो जाते हैं, यही प्रस्फुटित अंकुर पहले पौधे और बाद में पेड़ बन जाते हैं, यह सब हमने किताबों में बहुत बाद में पढ़ा हमारे भोले बाल-मन ने तो बगिया में घुमते हुए ही अनुभूत कर लिया था। हो सकता है उस वक्त का समझा वैज्ञानिक रूप से पूर्णत: सत्य और वास्तविक ना हो लेकिन मिट्टी में रच-बस कर प्रकृति से जो अनमोल रिश्ता और संवेगात्मक लगाव हमारे दिलों ने उस वक्त बनाया था वह आज तक कायम है।

मिट्टी की वह मीठी और महकती सौंधी गंध भावनाओं में उतर कर ह्रदय को स्पर्श कर गई थी उसे आज भी शब्दों में पिरोकर व्यक्त करना मुश्किल है। तितली की सुंदर चित्रकारी को देखकर हमने ना जाने कितने कल्पना के घोड़े दौड़ाए, कौन बैठकर इतनी बारीकी से रंगों को सजाता है? उन्हें देखते हुए कब छोटे-छोटे हाथों ने नन्ही तुलिका उठा ली, पता ही नहीं चला।

माँ के आटा गूँथते ही चहचहाती गौरेयों का समूह खिड़की पर मँडराने लगता तो माँ बताती, देखों इसे कहते हैं समय की पाबंदी। अक्सर सोचती हूँ कि यदि बचपन में ही सबकुछ सैद्धांतिक, तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से सीख लिया होता तो आज किस भोली समझ और मासूम ज्ञानार्जन को याद करके मुस्कराती?

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बचपन आज भी भोला और भावुक ही होता है लेकिन हम उन पर ऐसे-ऐसे तनाव और दबाव का बोझ डाल रहे हैं कि वे कुम्हला रहे हैं। उनकी खनकती-खिलखिलाती किलकारियाँ बरकरार रहें इसके ईमानदार प्रयास हमें ही तो करने हैं। देश के ये गुलाबी नवांकुर कोमल बचपन की यादें सहेजें, इसके लिए जरूरी है कि हम उन्हें कठोर और क्रूर नहीं बल्कि मयूरपंख सा लहलहाता बचपन दें।