सोशल मीडिया पर अमिताभ बच्चन की सक्रियता देखते ही बनती है। यह मंच खुला हुआ है और लोग भी अपने कमेंट्स से कलाकारों को अपने अंदर की बात अवगत कराते रहते हैं। हाल ही में फेसबुक पर 'नवरंग' नामक व्यक्ति ने अमिताभ से तीखे सवाल पूछ डाले। अमिताभ ने उन सवालों को ध्यान से पढ़ा और फिर जवाब दिया। अमिताभ ने जो जवाब दिया उसे फेसबुक पर साझा किया ताकि सभी लोग उसे पढ़ सके। यहां पर उसे जस का तस दिया जा रहा है जो अमिताभ के फेसबुक पेज से साभार है।
नवरंग के सवाल
ये बताओ भाई बच्चन की तुम बचपन में क्या करते थे? क्या कभी गुल्ली डंडा या कंचे खेले है? क्या कभी लट्टू चलाया है? लट्टू में कौन कौन से खेल होते है? एक ऐसा भी होता है जिसमे हारने पर सभी साथी हारने वाले का लट्टू को अपने लट्टुओं के वार से तोड़ देते है, उसको क्या कहते है? क्या कभी गुलेल चलाई? या साइकिल चलाई हो जैसे कूली में चलाते हो। क्या कभी टायर भी चलाया है या टायर का खाली रिम चलाया है? इसी तरह अनेक बातें हैं जो तुम नही बताते हो। तुम सिर्फ पैसे कमाने की होड़ में लगे हो। चलो ये बताओ की क्या तुम मुझे मिलने का मौका दे सकते हो ??? या फिर मुझे उन सभी की तरह तुम्हारे गेट के बाहर घण्टों-घण्टों खड़ा हो के इंतज़ार करके एक झलक ही देखने को मिलेगी??? मैं चाहता हूं कि तुम मुझको अपने हिसाब से मिलने के लिए बुलाओ या अपॉइंटमेंट दो जिससे की मैं जिंदगी रहते हुए आपके साथ एक फोटो खिंचवा सकूं और बातें करूं। बताओ कि इस कमेंट के जरिये क्या वाकई में तुम दरियादिल हो या सिर्फ दिखावटी हो।
अमिताभ का जवाब
जी भाई साहेब , ...जितना कुछ आपने कहा है मैं उन सब को बचपन में कर चका हूँ .. और आज भी करता हूँ। गुल्ली-डंडा खेला है, गुल्ली मारते समय एक बार मेरे दोस्त को आँख में लग गई थी। कंचा भी खेला हूँ। जेब में कंचे अलग-अलग रंग के रख के स्कूल पैदल जाता था... और फिर इलाहबाद की गर्मी में बाद में साइकिल पे। लेकिन ज्यादातर पैदल .. कांचा में सोडा बोतल की जो सोडा कांचा होता था उसे पाना बड़ी चीज़ होती थी... उसे हम सोड्री बोलते थे। लट्टू भी चलाया है, लेकिन इतनी अच्छी तरह नहीं चला पाता था, लेकिन जैसा की आपने कहा वो खेल ज़रूर खेलते थे हम। ज़मीन पे लट्टू जब मारते थे और रस्सी खींचते थे तो लट्टू खूब ज़ोर से घूमता था। फिर घुमते हुए उसे हाथ में उठा लेना एक कला होती थी।
जामुन और अमरुद के पेड़ पे चढ़ कर जामुन और कच्चा अमरुद कभी खाया है आपने??? "आती बाती किसकी पाती" !!! ये खेल कभी खेला है आपने?? जो डेन होता है उसे कहते हैं कि किसी एक पेड़ की पत्ती लाने को और बाकी सब लोग छुप जाते हैं। कभी खेला है आपने? 7 गोटी, पिट्ठू कभी खेले हो?? सारा बचपन रिक्शा, आटोरिक्शा नहीं नहीं , आदमी जो पांव से चलाता है वो रिक्शा, उसमें बीता है। तांगा में बैठे हो कभी। मैं तो गुदड़ी का लाल हूँ। गुदड़ी समझते हो?? टाट की बनी होती है। एक बहुत ही कड़क कपडा होता हैँ उसमे लपेट कर मुझे घर लाया गया था, पैदा होने के बाद!! गर्मियों में न पंखा था और न एअरकंडीशनर। एअरकंडीशनर तो मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद, एक फिल्म जब हिट हुई, तब ख़रीदा मैंने।
पहले तो, बर्फ का ढेला ज़मीन पे रख कर कमरे को ठंडा रखते थे और जब बाबूजी ने थोड़ा और कमाया तो खस की टट्टी पे पानी डाल कर कमरे को थोड़ा ठंडा रखते थे। सुतली की चारपाई पे सोते थे हम। और रात को गर्मी में हाथ का जो पंखा होता था उसे हाथ से चला घुमा के सोया करते थे।
और भाई साहेब, जो कुछ भी अब हमारी स्थिति है वो हमें अपनी मेहनत की कमाई से मिली है। खून पसीना लगा है उसमें। हाँ, हम पैसा कमाते हैं, तो उसमें बुराई क्या है। हर इंसान पैसा कमाता है। ईमानदारी और लगन और मेहनत से काम करते हैं। ईश्वर की कृपा रही है, माता-पिता का आशीर्वाद रहा है और आप जैसे लोगों का प्यार और स्नेह। अपने आप को भाग्य शाली समझता हूँ।
लेकिन भाई साहेब, आपके कटु वचन आपको शोभा नहीं देते और आप उन लोगों की निंदा मत कीजिए जो हर रविवार मेरे घर पे 35 साल से आ रहे हैं। ये उनका प्यार है, उनकी श्रद्धा है, जिसे मैं मरते दम तक कभी नहीं भूलूँगा। ये एक ऋण है जो मै कभी चूका नहीं सकूंगा। उनका अपमान मत कीजिए।
रही बात फोटो की तो आपको मैं व्यक्तिगत रूप से समय निकाल कर नहीं दे पाऊंगा। आप रविवार को मेरे घर मेरे गेट पे यदि दिख गए, तो फोटो खिंचवा लूँगा।
मेरा स्नेह आदर आप के साथ।
- अमिताभ बच्चन
आरर। .!! एक बात तो भूल ही गए। गुलेल खूब चलाए हैं, खुद ही लकड़ी काट के और साइकिल की दुकान से रद्दी टायर लेके उससे गुलेल बनाया है हमने और साइकिल टायर घुमा-घुमा के डंडी से भी खेले हैं हम। रेस लगाते थे हम, कि कौन जीतेगा टायर घूमा-घूमा के। टायर से याद आया, जब बाबूजी ने हमें एक साइकिल खरीद कर दी तो वो हमारे लिए अदभुत संपत्ति थी। पंक्चर होता था, तो नया टायर नहीं खरीद सकते थे, उसी टायर को सड़क पे बैठा पंक्चर वाले के पास पंक्चर चिपका के ठीक करवा के फिर उसी टायर को व्हील पहिये पे चढ़ा के साइकिल को चालू करते थे।
और सुनिए भाई साहेब, होली के त्यौहार में कभी 'टेसू' के फूल का रंग बनाया है आपने? पीला-गेरुआ रंग होता है उसका, सुन्दर और महकदार। होली के एक दिन पहले उस फूल को पानी की बाल्टी में या एक बड़े टैंक या डमरू में डाल देते थे, सुबह उसका बढ़िया रंग बन जाता था। पिचकारी में भर के जब उसको मारते हैं तो शरीर पे बहुत सुन्दर लगता है। आज की तरह का रंग नहीं, जहाँ कालिख पोत देते हैं मुँह पे। और केमिकल सिल्वर रंग लगाते हैं। . !!!
नमस्कार।