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Last Modified: गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017 (11:22 IST)

रोहिंग्या संकट: संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार से शीर्ष अधिकारी को वापस बुलाया

रोहिंग्या संकट: संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार से शीर्ष अधिकारी को वापस बुलाया - rohingya crisis
संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की है कि म्यांमार के रोहिंग्या इलाकों में काम कर रही शीर्ष अधिकारी रेनाटा लोक-डेसालियन को वापस न्यूयॉर्क बुलाया जा रहा है। पिछले महीने बीबीसी ने रेनाटा लोक-डेसालियन को अपनी ख़ास रिपोर्ट में जांच का फोकस बनाया था। उन पर रोहिंग्या मुसलमानों पर आंतरिक चर्चा को दबाने का आरोप था।
 
पिछले दिनों म्यांमार के रख़ाइन प्रांत में भड़की हिंसा के कारण पांच लाख से ज़्यादा रोहिंग्या पलायन कर गए हैं, इनमें से ज़्यादातर ने बांग्लादेश के शिविरों में शरण ली है। संयुक्त राष्ट्र के बयान के मुताबिक डेसालियन अक्टूबर के अंत तक म्यांमार छोड़ देंगी।
 
इससे पहले जून के महीने में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से कहा गया था कि जल्द ही उनको दूसरे पद पर भेजा जाएगा, लेकिन इस निर्णय का उनके काम के प्रदर्शन से कोई लेना देना नहीं है।
 
बीबीसी न्यूज़ की यंगून संवाददाता जोना फ़िशर को स्थानीय राजनयिक और सहायता समुदाय से मिली जानकारी के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र ने ये फैसला इसलिए लिया क्योंकि डेसालियन वहां मानवाधिकारों को प्रथामिकता देने में विफल रहीं। तब से रेनाटा लोक-डेसालियन म्यांमार की सरकार के साथ अपने प्रस्तावित उत्तराधिकारी को ख़ारिज़ करते हुए पद पर बनी थी। दो हफ्ते पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा था कि उन्हें डेसालियन पर पूरा भरोसा था। लेकिन बीबीसी संवाददाता का कहना है कि अब इसमें शक है।
 
बीबीसी की जांच में क्या मिला था?
बीबीसी की जांच में, म्यांमार के अंदर और बाहर संयुक्त राष्ट्र के अंदरूनी सूत्रों और सहायताकर्मियों ने बीबीसी को बताया था कि पिछले चार साल में जबसे ये संकट गहराना शुरू हुआ, संयुक्त राष्ट्र कंट्री टीम की प्रमुख रेनाटा लोक-डेसालियन ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रोहिंग्या इलाकों में जाने से रोकने की कोशिश की।
 
बीबीसी जांच के जवाब में म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र ने बयान जारी कर डेसालियन का बचाव किया और कहा कि उनको वापस बुलाए जाने के फैसले का रोहिंग्या मामले से कोई लेना देना नहीं है। ये सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। लेकिन म्यांमार में अब संयुक्त राष्ट्र का अगला मुख्य अधिकारी कौन होगा इसकी घोषणा नहीं की गई है।
 
2012 में रोहिंग्या मुस्लिम और रखाइन बौद्धों के बीच हिंसा में सौ लोगों की मौत हो गई थी और एक लाख से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम विस्थापित हुए थे और सिट्वे प्रांत में कैंपों में रह रहे थे।
 
रोहिंग्या चरमपंथी संगठन का उदय
तब से हिंसा अक्सर होती रही लेकिन पिछले साल रोहिंग्या चरमपंथी संगठन का भी उदय हुआ। बौद्धों को रोहिंग्या लोगों तक मदद पहुंचाए जाने से भी परेशानी है। ऐसे में रोहिंग्या की नागिरकता और मानवाधिकारों के सवाल उठाने पर बौद्धों को नाराज़ करने का भी डर रहा है।
 
इसलिए संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने रख़ाइन के विकास की दीर्घकालीक योजना बनाई कि शायद समृद्धि से रोहिंग्या और बौद्धों के बीच तनाव कम हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों के लिए ये मुद्दा ठंडे बस्ते में जाता रहा और अधिकारी इस विषय पर कुछ भी बोलने से कतराते रहे।
 
2015 में रख़ाइन प्रांत के प्रति यूएन अधिकारियों के रवैये पर संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट तैयार करवाई थी जिसका नाम था- 'स्लीपरी स्लोपः हेल्पिंग विक्टिम ऑर सपोर्टिंग सिस्टम ऑफ़ एब्यूज'।
 
बीबीसी को इसकी प्रति मिली थी जिसमें कहा गया था कि मानवाधिकार के मुद्दे पर यूएनसीटी का रवैया विकास से तनाव कम करने की उम्मीद पर टिका हुआ है। और वो इस बात को देखने से इनकार करता रहा है कि भेदभाव करने वाली सरकार की ओर से चलाए जा रहे भेदभावपूर्ण ढांचे में निवेश करने से उसमें बदलाव नहीं आएगा, बल्कि इसे और पक्षपाती बनाएगा।
 
म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र की वरिष्ठ अधिकारी डेसालिन ने बीबीसी को इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया था। जबकि म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र ने इस आरोप को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया और कहा कि म्यांमार में यूएन का रवैया सबको पूरी तरह साथ लेकर चलने का था।
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