राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी)
हर पहलवान यही चाहता है कि दंगल वही जीते, हर पहलवान यही चाहता है कि चुनौती देने वाले को आसानी से पटका जा सके लेकिन, वो दिखे तगड़ा ताकि उसे चित करते ही अपना खूँटा और मज़बूती से गड़ जाए।
इस मामले में मोदी की नज़रों में राहुल गांधी सबसे फिट कैंडिडेट हैं। भले ही वो सदन में विपक्ष के नेता की हैसियत भी हासिल न कर सके हों, भले ही पंजाब के अलावा किसी राज्य में आज उनकी कोई ठोस हैसियत न हो, उनको हराना नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी की साझी विरासत को हराने जैसा दिखेगा या दिखाया जाएगा, और ये मुश्किल भी नहीं होगा।
दरअसल, पिछले सवा चार वर्षों में जिस तरह विधानसभाओं के ही नहीं, स्थानीय निकायों के चुनाव पीएम मोदी के नाम पर लड़े गए हैं, यहाँ तक कि यूनिवर्सिटियों के छात्र संघ के चुनाव ऐसे लड़े गए हैं, मानो अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव हों जिसमें एक तरफ़ मोदी हैं, दूसरी तरफ़ कोई और।
चार साल के कार्यकाल में कभी एक खुला संवादादाता सम्मेलन न कराने वाले प्रधानमंत्री की इमेज चमकाने के लिए मंगलयान के कुल ख़र्च से कई गुना ज़्यादा पैसे विज्ञापन और प्रचार पर ख़र्च किए गए हैं, हर पेट्रोल पंप पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की तुलना में काफ़ी मोटी रकम भर रहे लोगों को उज्ज्वला स्कीम की सफलता के दो मुस्कुराते चेहरे दिखाए जाते हैं, एक पीएम, दूसरी ग़रीब गृहिणी।
ये जानना दिलचस्प होगा कि उज्ज्वला स्कीम के तहत कनेक्शन लेने वाली कितनी महिलाओं ने दोबारा भरा हुआ सिलिंडर ख़रीदा?
जवाब नहीं मिलेगा, ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के बाद जमा हुए नोट आज तक नहीं गिने जा सके। अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण ने सवाल पूछे हैं, देखें क्या और कैसा जवाब मिलता है, इन तीन में से दो तो वाजपेयी सरकार के कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। उन्हें वामपंथी, भ्रष्ट या कांग्रेसी बताकर ख़ारिज करना आसान नहीं होगा।
वैसे यहाँ मुद्दा वो है भी नहीं, बात मुख़्तसर ये है कि सफल-विफल योजनाओं की घोषणा और उसके बाद बहरहाल उनके सफल होने के ऐलान के साथ पीएम मोदी का देश भर में रेडियो, टीवी, प्रिंट और आउटडोर बिलबोर्ड पर जितना प्रचार किया गया है, उसके मुक़ाबले विपक्ष का कोई नेता कहाँ टिक सकता है?
हालाँकि, ये कहना ज़रूरी है कि दिल्ली के अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के केसीआर, आंध्र के चंद्रबाबू या बंगाल की ममता, जिनके पास भी पब्लिक का पैसा है वो प्रचार में लुटा रहे हैं, विशुद्ध रूप से मोदी की देखा-देखी। राहुल के पास न तो ऐसी कोई हैसियत है न शायद कोई पैसा है, उनकी पार्टी के खजाँची कह चुके हैं कि पार्टी ओवर ड्राफ्ट पर चल रही है।
इन हालात में कभी तथाकथित चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी के लिए, देश पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी राज करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के वशंज को हराना एक बड़ी कामयाबी होगी, भले ही वे खुद मोदीनामी सूट पहन चुके हों जिसकी बाद में करोड़ों में नीलामी की गई।
विपक्ष का सजग चुनाव, मजबूरी और समझदारी दोनों
हाल ही में मोदी सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई उसी की पुरानी साझीदार तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी), लेकिन पीएम मोदी ने टीडीपी के बदले कांग्रेस, नेहरू-गांधी परिवार और राहुल पर निशाना साधा, ये बेवजह नहीं है।
मोदी बस आसानी से हराने लायक प्रतिद्वंद्वी चुन रहे थे लेकिन विपक्ष ने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। इस बात के आसार नहीं हैं कि विपक्ष मोदी के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय चेहरा आगे करेगा, उसकी रणनीति मोदी को अलग-अलग राज्यों में अलग तरह से टक्कर देने के बाद अंक-गणित की समस्या बाद में सुलझाने की है।
माने या न मानें, विपक्ष और मोदी-शाह दोनों एक तरह से सोच रहे हैं- नतीजे आने के बाद तय करेंगे क्या करना है, कैसे करना है। जनबल, धनबल, कॉर्पोरेट बल का हिसाब 2019 की गर्मियों में पूरी गर्मी के साथ दिखेगा, नतीजा चाहे जो हो।
बीजेपी के लिए ये बड़ा सिरदर्द यूँ है कि केंद्र और अधिकतर राज्यों की सत्ता पर काबिज़ बीजेपी अगर 272 के मैजिक नंबर तक नहीं पहुँच पाती तो उसे क्षेत्रीय दलों के सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी, कांग्रेस के साथ कोई साझेदारी असंभव है और क्षेत्रीय पार्टियाँ अपने स्थानीय हितों के नाम पर किसी के साथ जा सकती हैं, इसलिए ये समझदारी और मजबूरी दोनों है।
रणनीति शायद ये होगी कि बीजेपी अपना कैम्पेन कांग्रेस के ख़िलाफ़ चलाए और क्षेत्रीय-प्रांतीय दलों से 2019 आम चुनाव के नतीजे आने के बाद गठबंधन का रास्ता खुला रखे, अगले कुछ महीनों में आप देखेंगे कि निशाने पर केवल और केवल राहुल होंगे, और बीजेपी के लिए इसी में समझदारी है।
मोदी-शाह को लगता है कि टीडीपी को या राहुल की खुलेआम तारीफ़ करने वाली शिव सेना को, जो अगला चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर चुकी है, या फिर अकाली दल को जिसका राज्यसभा उपसभापति का टिकट काटकर नीतीश कुमार की पार्टी को दे दिया गया, इन सबको 2019 के आम चुनाव के बाद वक्त-ज़रूरत के मुताबिक मनाया जा सकता है।
यही वजह है कि शिव सेना के उद्धव ठाकरे बीजेपी की चाहे जितनी भी खिल्ली उड़ाएँ, अमित शाह ज़बर्दस्ती मुस्कुराते हुए कहते हैं कि "शिव सेना एनडीए की साझीदार है, हमारे बीच मतभेद हो सकते हैं, मनभेद नहीं"।
वैसे तो राजनीति में कुछ भी संभव है, जहाँ एक सप्ताह बहुत लंबा समय होता है लेकिन बीजेपी को हर तरह से ये बात रास आती है कि कांग्रेस और राहुल गांधी को ही मुख्य विपक्ष के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाए।
वैसे इस पर कांग्रेस को भी क्योंकर एतराज़ हो, ये उसकी राजनीतिक हैसियत को बढ़ाकर आँकने की बात है, जब चुनाव बाद के नंबर आएँगे तो देखा जाएगा, लेकिन अपनी सुविधा के लिए ही सही, बीजेपी जो कर रही है उससे कांग्रेस का क़द बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं।
दबंग बीजेपी के पास बहुमत के लिए ज़रूरी 272 के आंकड़े से इस वक़्त सिर्फ़ एक सीट ज़्यादा है, बीस से अधिक राज्यों में, और कई राज्यों में वर्षों से राज कर रही बीजेपी अपना अकेले का कुल आंकड़ा 273 से आगे ले जा पाएगी इसका कोई ठोस तार्किक आधार बीजेपी के प्रवक्ता भी नहीं पेश कर पा रहे हैं।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और एनआरसी जैसे मुद्दे 2019 में सत्ताधारी दल के लिए कितने मददगार होंगे इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है लेकिन, केसीआर, शरद पवार और यहाँ तक कि नारदा-शारदा की वजह से सीबीआई के फंदे में फँसी ममता बैनर्जी भी चुनाव के बाद दस-बीस सीटों की कमी पूरी करने के लिए आगे आ सकते हैं, या लाए जा सकते हैं।
यही वजह है कि मोदी और उनके प्रवक्ता आने वाले समय में ज़्यादा ध्यान आसान शिकार राहुल गांधी पर लगाएँगे ताकि भविष्य के रास्ते भी बंद न हों, लेकिन विपक्ष में बैठे लोग अब तक निष्प्रभावी भले रहे हों लेकिन वे मूर्ख कतई नहीं हैं। उन्होंने शायद ये समझ लिया है कि जैसे ही विपक्ष मोदी के ख़िलाफ़ अपना साझा उम्मीदवार घोषित करेगा, चाहे वो कोई भी हो, मोदी का काम आसान हो जाएगा।
विपक्ष की रणनीति मोदी को टुकड़े-टुकड़े में हराने की है, लेकिन विपक्ष के सबसे बड़े दुश्मन मोदी नहीं, बल्कि उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है जो हर क़दम पर आड़े आएगी।
इसी साल काफ़ी कुछ दिख जाएगा
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी सत्ता में है, बाद वाले दो राज्यों में तो लंबे समय से सत्ता में है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तो गुजरात के बाद हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहे हैं। इन राज्यों के बारे में ख़ास बात ये भी है कि यहाँ कांग्रेस के अलावा कोई और बड़ी या सशक्त विपक्षी पार्टी भी नहीं रही है।
जब इन तीन राज्यों में चुनाव होंगे तो उनके परिणाम ये तय करेंगे कि कांग्रेस कितनी मज़बूती से राष्ट्रीय विपक्ष के तौर पर उभरती है या इस मामले में नाकाम रहती है। दोनों नज़रिए से इन तीन राज्यों के इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव अहम होंगे।
पिछले लोकसभा चुनाव के 273 के आंकड़े को देखें तो 'बुआ-भतीजा' गठबंधन के बाद बीजेपी अपने मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की लोकसभा सीटें (गोरखपुर और फूलपुर) उप-चुनाव में हार चुकी है, यूपी की अधिकतर सीटों को जीतकर सत्ता में आई बीजेपी इस बात से इनकार नहीं कर सकती कि सपा-बसपा के साथ आने से होने वाले नुकसान की भरपाई करना उसके लिए मुश्किल ही नहीं, बहुत मुश्किल होगा।
मोदी-शाह चाहते हैं कि पूरे देश में "कोई नहीं है टक्कर में, कहाँ पड़े हो चक्कर में" का नारा चल पड़े, या उससे भी आसान हो कि "पप्पू है टक्कर में, कहाँ पड़े हो चक्कर में।" अब ये लिखना संभव है क्योंकि राहुल संसद में कह चुके हैं कि मोदी उन्हें पप्पू कहते हैं लेकिन वे इस बात से कतई नाराज़ नहीं हैं।
दूसरी ओर, विपक्ष चाहता है कि नारा लगाए बिना, "शहर-शहर में टक्कर हो, हर सीट मोदी के लिए चक्कर हो।" विपक्ष चाहता है कि पहले मोदी को हराया जाए फिर आगे क्या होता है, देखा जाए।
ऐसा लगता है कि 2019 में किसकी सरकार बनेगी और कौन पीएम होगा, इसका फ़ैसला 'पोस्ट पोल एलायंस' यानी चुनाव बाद गठबंधन से होगा लेकिन जैसा पहले ही कहा जा चुका है, राजनीति में एक सप्ताह बहुत होता है इसलिए भविष्यवाणी करने के बदले वर्तमान के ज़रिए भविष्य को समझने की कोशिश करें।