- कुलदीप मिश्र (अहमदाबाद)
जितने आटे में चार रोटियां बनें, उतने में यह एक बनता है। बाजरे के आटे का रोटला। तिस पर दो चम्मच घी में चुपड़ा हुआ। गुजरात के बनासकांठा ज़िले के सरकारी गोड़िया गांव में एक समृद्ध किसान के यहां भरपूर प्रेम से आधा रोटला, कढ़ी, छाछ, दही और शीरे (दलिये का हलवा समझ लें) के साथ परोस दिया गया, जिसे पूरा खा पाने को लेकर मैं सशंकित था। यह सुस्वाद भोजन ख़त्म करने के बाद मैंने पूछा कि रोटला पचाना आसान होता है या मुश्किल।
जवाब मिला, "पचाना थोड़ा मुश्किल होता है। लेकिन पचा लेने के बाद पेट के लिए अच्छा है। खाने के तुरंत बाद पानी मत पीजिएगा। थोड़ा रुककर पीजिएगा।" बनासकांठा आलू की खेती के मामले में अग्रणी ज़िला है। यहां की डीसा तहसील को आलू उत्पादन का हब माना जाता है। यहां क़रीब 250 कोल्ड स्टोरेज हैं। लेकिन इस साल आलू के दामों में रही भारी मंदी ने किसानों में एक निराशा पैदा की है।
पाकिस्तान को आलू!
पड़ोस की लाखणे तहसील के डेरा गांव में कुछ किसानों से मुलाक़ात तय हुई थी। वहां पहुंचा तो वहां किसान सड़े हुए और न बिक पाए आलुओं की बोरियों पर बैठे हुए मिले। उन्हें इस बार आलू दो रुपए किलो भी बेचना पड़ा है। उनसे पूछा कि आप लोग क्या चाहते हैं तो बोले कि आलू के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा ली जाए, ताकि वे बेहतर दामों पर पाकिस्तान तक आलू निर्यात कर सकें। पाकिस्तान सीमा यहां से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर है।
पटेल समाज के इन किसानों में से ज़्यादातर ने माना कि आलू पर उन्हें सरकार से सहयोग अपेक्षित था। इसके बावजूद सरकार बदलने को लेकर उनमें एक ग़ज़ब की अनिच्छा दिखी। एक किसान ने मेरे कंधे पर हाथ रख 'मैं आपको बता रहा हूं' के 'आत्मविश्वास' के साथ मुझे बताया कि सरकार भाजपा की ही अच्छी है और आप देखना कि वही इस बार भी आएगी।
धंधा हुआ आधा
छह रोज़ पहले हम अहमदाबाद के पांच कुआं सिंधी बाज़ार में थे। कपड़ों का बड़ा बाज़ार है। ज़्यादातर दुकानें पाकिस्तान से आए सिंधियों की हैं। आर्थिक तौर पर निचला और मंझला तबका यहां से ख़रीदारी करता है। जीएसटी के विरोध में यहां के व्यापारियों ने 15 दिनों तक अपनी दुकानें बंद रखी थीं। व्यापारियों के प्रतिनिधिमंडल की अमित शाह के स्तर तक मुलाक़ातें हुई थीं।
हमने जीएसटी का असर पूछा तो एक व्यापारी ने कहा कि कुछ कर पाओगे तो बताओ, खाली-पीली क्या बात करना। लेकिन बातचीत का सिलसिला क़ायम हुआ तो दुकानदारों की एक भीड़ अपनी शिकायतों के साथ जमा हो ही गई। उनमें से कई का कहना था कि जीएसटी के बाद धंधा आधे से भी कम हो गया है। मुकेशभाई ने बताया कि काग़ज़ी पचड़ा बढ़ गया है और ऊपर से ग्राहक जीएसटी का बोझ साझा करने को तैयार नहीं है।
जीएसटी के बाद हज़ार रुपए की साड़ी का दाम 50 रुपए बढ़ गया है, लेकिन ग्राहक 50 रुपए अतिरिक्त देने को तैयार नहीं है। तो सारा बोझ हम लोगों पर है। हमें बताया गया कि एक वक़्त इन गलियों में पांव रखने की जगह नहीं होती थी। लेकिन उस वक़्त वहां इक्का-दुक्का ग्राहक घूम रहे थे।
कुछ ने पचास फीसदी और कुछ ने अस्सी फीसदी ग्राहकी टूट जाने का दावा किया। कुछ दुकानदार यहां तक कह गए कि निकट भविष्य में वे दूसरा धंधा शुरू करने पर भी विचार कर रहे हैं। ये सब जीएसटी की कड़ी आलोचनाएं थीं। मुझे नहीं पता कि वाक़ई वे ऐसा सोच रहे थे या नहीं। समस्याग्रस्त व्यक्ति भावावेश में कभी-कभी चार का चौदह भी कर जाता है।
बच्चे को चोट लगती है तो दूसरे बच्चे को पिटवाने के लिए वह दर्द के अनुपात से थोड़ा अधिक ज़ोर से रोता है। मेरे पास किसी की बैलेंस शीट नहीं थी जो मैं उनके दावे जांच पाता। लेकिन एक बात तय थी कि जीएसटी से वे सब ख़ासे नाराज़ थे और उसके ख़िलाफ़ बात करते हुए एक भावनात्मक लापरवाही उनकी भाषा में नत्थी थी। कि हम बहुत परेशान हैं और हमारे आंसू फूट रहे हैं इत्यादि।
राजनीतिक पसंद
थोड़ी ही देर में कड़ी शिकायतों की एक पूरी फेहरिस्त मैं अपनी डायरी में नोट कर चुका था। लेकिन बात एक क़दम बढ़कर जब राजनीतिक पसंद पर आ टिकी तो वही व्यापारी मुझे अतिरिक्त सावधान नज़र आए।
राजनीति का कोई अध्येता आकर यह समझे कि जीएसटी के सख़्त विरोधी ये व्यापारी खुले तौर पर भाजपा की आलोचना से क्यों बचते रहे?
कुछ ने कहा कि बाज़ार के प्रेसिडेंट राजेशभाई को बुलवा लीजिए। वे बोलेंगे तो सब बोलेंगे। एक दुकानदार ने स्वीकार किया कि हां, जीएसटी इस बार चुनाव में उनके लिए एक मुद्दा हो सकता है। सबसे मज़बूत आलोचना यही थी। सिंधी व्यापारियों के इस वर्ग में अधिकांश ने माना कि वे भाजपा के वफ़ादार वोटर रहे हैं और उनकी पसंद अब भी भाजपा ही हैं। उनके स्वरों का सार यह था कि सारा ग़ुस्सा जीएसटी से है, भाजपा से नहीं।
क्योंकि काम भाजपा ही करवाती है। मोदी जी अपने हैं, उनसे ही लड़कर अपना काम करवा सकते हैं। कांग्रेस कौन सा जीएसटी को वापस ले लेगी? मनमोहन तो ख़ुद जीएसटी के समर्थक रहे। इसलिए कांग्रेस की दाल तो गुजरात में गलने से रही। गुजरात में बीते छह दिनों से हूं। भाजपा के पुराने समर्थक तबकों में नीतिगत नाराज़गियों के कुछ स्वर तो दिखे, तथापि उनमें से अधिकांश 'लेकिन मोदी जी अच्छे हैं' पर ही ख़त्म होते हैं।
जो दूसरी पार्टियों के वफ़ादार वोटर हैं, वे तो करते ही हैं। कर ही रहे हैं। लेकिन वे तबके जो शुरू से भाजपा के वफ़ादार समर्थक रहे, असंतोष के बावजूद अपने स्वर मद्धम किए हुए हैं। यह उत्तर प्रदेश नहीं है जहां कैमरा और माइक देखकर लोग 'हमसे पूछो' का भाव चेहरे पर लिए खिंचे चले आते हों और फिर सरकार की निकृष्टतम शब्दों में आलोचना कर जाते हों। यह फरवरी भी नहीं है, जब सर्दियां जा रही थीं। यह नवंबर है और यह गुजरात है।
रोटला पचाना आसान नहीं।