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Last Updated : शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019 (10:08 IST)

हरियाणा चुनाव: जाटों से सत्ता की कमान छीनने वाला '35 बनाम 1' का नारा

हरियाणा चुनाव: जाटों से सत्ता की कमान छीनने वाला '35 बनाम 1' का नारा - Haryana election
प्रशांत चाहल, बीबीसी संवाददाता, रोहतक (हरियाणा)
'हरियाणा में आजकल कुछ लोग किसी से बात करते हुए उसकी जाति पता करने की कोशिश में लगे रहते हैं क्योंकि जाति ही तय कर रही है कि उनके बीच क्या और कितनी बात होगी।'
 
हरियाणा के स्थानीय पत्रकार और बीबीसी के सहयोगी सत सिंह धनखड़ ये बताते हुए अपने मोबाइल पर आए कुछ भड़काऊ वॉट्सऐप मैसेज दिखाते हैं जिनका मजमून लोगों को '35 बनाम 1' के नारे की याद दिलाना है। इस नारे का मतलब है कि समाज की सभी 35 बिरादरियां जाटों के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाएं। हमें बताया गया कि इसी तरह के भड़काऊ संदेश वॉट्सऐप और सोशल मीडिया पर लोकसभा चुनाव-2019 के दौरान भी शेयर हो रहे थे।
 
माना जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कुछ विवादित नेताओं द्वारा राजनीतिक मंचों से इस नारे का इस्तेमाल शुरू हुआ था जो अब हरियाणा में जाति आधारित ध्रुवीकरण करने वाला सबसे मज़बूत हथियार बन गया है।
 
इस नारे को किसने शुरू किया, ये ज़रूर विवाद का एक विषय हो सकता है, लेकिन मौजूदा समय में निश्चित रूप से इसका राजनीतिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलता दिखाई देता है।
 
2014 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में जो भी चुनाव हुए हैं, उनमें बीजेपी की पकड़ मज़बूत होती चली गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक की पहचान के साथ सूबे के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे मनोहर लाल खट्टर के बारे में शुरुआती दिनों में कहा जाता था कि ये 5 साल सरकार कैसे चला पाएंगे? लेकिन खट्टर ने ना सिर्फ़ बाबा रामपाल, जाट आंदोलन और बाबा राम रहीम की गिरफ़्तारी के बाद हुए हंगामों को मैनेज करते हुए अपने 5 साल पूरे किए, बल्कि राज्य में एक ऐसी 'पॉलिटिकल टोन' सेट की जिसके दम पर इस चुनाव में उनकी पार्टी सबसे आगे मानी जा रही है।
 
हरियाणा के अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी ने गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों के साथ जो किया, वही वो हरियाणा में सबसे बड़ी और राजनीतिक रूप से सक्रिय जाति 'जाटों' के साथ कर रही है।
 
जबकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि हरियाणा अपने राजनीतिक इतिहास को दोहरा रहा है। लेकिन इस बार जाट-ग़ैर जाट की राजनीति करने वाली और उससे लाभ उठाने वाली पार्टी का नाम बदल गया है। क्या है '35 बनाम एक' के पीछे की कहानी और क्या कहता है हरियाणा में जाति आधारित राजनीति का इतिहास, हमने इसकी पड़ताल की।
 
ये नारा बना कैसे?
हरियाणा के ग्रामीण अंचल में ये एक पुरानी सामाजिक कहावत रही है कि 'समाज में 36 बिरादरी होती हैं और सबको मिलकर रहना चाहिए'। गाँव की पंचायतों में आज भी भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए बुज़ुर्गवार ये कहावत कहते मिल जाते हैं।
 
किसी आधिकारिक डेटा के आधार पर इन 36 बिरादरियों को कभी नहीं गिना गया। ये भारतीय परिप्रेक्ष्य में चलने वाले 'हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई' जैसे नारे की तरह है।
 
चूंकि हरियाणा में यूपी और बिहार की तरह धर्म के आधार पर राजनीति नहीं की जा सकती क्योंकि यहां मुस्लिम आबादी सिर्फ़ मेवात क्षेत्र की 4-5 सीटों तक ही सीमित है। इसलिए इस सामाजिक कहावत/भाईचारे को तोड़कर '35 बनाम एक' का नारा बनाया गया है यानी समाज की 35 जातियों को किसी एक जाति के ख़िलाफ़ लामबंद करने की ये कोशिश है।
 
यहां वो एक जाति जाट है जिसका हरियाणा में लंबे समय तक राजनीतिक वर्चस्व कायम रहा है और खट्टर सरकार से पहले सूबे में साढ़े 18 वर्ष तक इसी जाति के मुख्यमंत्री रहे।
 
2016 में जमकर हुआ इस नारे का प्रयोग
क़रीब दो दशक से हरियाणा में राजनीति कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक बताते हैं, '2016 में जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान इस नारे का खुलकर इस्तेमाल हुआ था। जाट आंदोलन से बाकी जातियों को ऐसा लगा कि जाट हमेशा सत्ता में रहना चाहते हैं और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो आंदोलन करके, हिंसा करके किसी सरकार को चलने नहीं देना चाहते।'
 
'इसी दौरान भाजपा सांसद राजकुमार सैनी ने आह्वान किया कि 35 बिरादरी के लोग एक हो जाएं और मिलकर इस एक जाति का बहिष्कार करें। इसे लेकर उन्होंने कई सम्मेलन किए। इसमें उनका साथ दे रहे थे गुर्जर समुदाय से आने वाले पूर्व विधायक रोशन लाल आर्य जो जगह-जगह जाकर लोगों को जाटों के ख़ात्मे की शपथ दिलाते थे। वो कहते थे कि जाटों की दुकान से कोई सामान ना ख़रीदें, उनसे ताल्लुक ना रखें और रोज़ पाँच बार पाँच मिनट जाट जाति के नाश के लिए कामना करें।'
 
इन दोनों नेताओं के वीडियो सोशल मीडिया पर 2016 में बहुत वायरल हुए और इनकी चर्चा होने लगी। लेकिन बयानबाज़ी दूसरी तरफ से भी हो रही थी।
 
चालीस वर्षों से हरियाणा की राजनीति को क़रीब से देख रहे लेखक और वरिष्ठ पत्रकार पवन बंसल कहते हैं, 'हरियाणा में सैनी और आर्य का राजनीतिक क़द कुछ भी नहीं था। लेकिन जब उन्होंने जाटों को गालियाँ देनी शुरू कीं, उनके वर्चस्व को नकारा, तो वो सुर्खियों में आए। एक तरफ हरियाणा के ये दो नेता थे तो दूसरी तरफ यूपी से आयातित नेता यशपाल मलिक लगातार जाट आंदोलन के मंचों पर दिख रहे थे और वो दावे कर रहे थे कि जाट आंदोलन उनके नेतृत्व में चल रहा है।'
 
बंसल के अनुसार, "कुछ लोग मानते हैं कि मलिक जाटों का मार्गदर्शन नहीं कर रहे थे बल्कि उन्हें भड़का रहे थे। ये भी माना जाता है कि यशपाल बीजेपी के इशारे पर ही काम कर रहे थे क्योंकि देशद्रोह जैसे मुक़दमों के बाद भी बीजेपी सरकार ने कभी मलिक को गिरफ़्तार नहीं किया। वो '35 बनाम 1' के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करते रहे, सूबे में घूमते रहे। ऐसी स्थिति में समाज दो धड़ों में टूटना तय था।"
 
बंसल मानते हैं कि हरियाणा में ग़ैर-जाट समुदायों के बीच उस वक़्त '35 बनाम एक' के नारे को इसलिए तेज़ी से स्वीकार किया गया क्योंकि लोगों को हुड्डा का विवादित बयान भी याद था।
 
हुड्डा की बड़ी ग़लती!
जुलाई 2013 में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने दिल्ली में हुए 'अखिल भारतीय जाट महासभा सम्मेलन' में कहा था कि वो मुख्यमंत्री बाद में हैं, जाट पहले हैं। प्रदेश में उनके इस बयान की काफ़ी आलोचना हुई और राजनीतिक विश्लेषक इसे हुड्डा की एक बड़ी ग़लती मानते हैं।
 
बंसल कहते हैं, "कौन नहीं जानता था कि वो जाति से जाट हैं। लेकिन संवैधानिक पद पर बैठकर ऐसा बात उन्हें नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि अन्य जातियों के बीच इससे बड़ा ख़राब संदेश गया। वो बिना सोचे-समझे ऐसा कर रहे थे, ये भी नहीं माना जा सकता क्योंकि देवीलाल परिवार के साथ लगने वाले जाट वोटों को वो अपनी तरफ़ आकर्षित करना चाहते थे।"
 
"हुड्डा 2004 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उनके पास आक्रामक समझे जाने वाले देसवाली (सोनीपत, रोहतक, झज्जर ज़िले) जाटों का वोट बैंक तो था, पर बांगड़ (हिसार ज़िले के आसपास का क्षेत्र) के जाटों का वोट चौटाला परिवार के पास था। ये दोनों अलग क्षेत्रों के नेता हैं। ऐसे में हुड्डा ने ये कोशिश की कि सभी जाटों को अपनी तरफ खींचा जाए। इसके लिए साल 2014 में चुनाव से पहले उन्होंने बिश्नोई, त्यागी, रोड़ जाति समेत जाटों को दस परसेंट आरक्षण की घोषणा की। ये माँग कई सालों से लंबित थी। इस दौरान वो आक्रामक बयानबाज़ी कर रहे थे और दिल्ली वाला बयान इसी सिलसिले का एक हिस्सा था।"
 
लेकिन इससे अन्य समुदायों में क्या संदेश गया, इस बारे में बलवंत तक्षक कहते हैं, "जाटों को आरक्षण की घोषणा से दक्षिण हरियाणा (अहीरवाल क्षेत्र) में हलचल पैदा हुई और गुर्जर-यादव बहुल इस इलाक़े में ये चर्चा फैली कि जाट उनका हिस्सा खा जाएंगे। बाकी हरियाणा की तुलना में अहीरवाल क्षेत्र वैसे भी आर्थिक रूप से पिछड़ा इलाक़ा है और इस क्षेत्र के लोग तुलनात्मक रूप से कम समृद्ध हैं। वो कहने लगे कि सीएम भी जाट होगा, नौकरियाँ भी वो लेंगे तो ये तो राज करेंगे। जबकि हुड्डा ने जाटों को अलग से आरक्षण देने की बात की थी जो कि 27 परसेंट ओबीसी के आरक्षण से अलग था और बाद में कोर्ट में ये आरक्षण टिक भी नहीं पाया। नतीजा ये हुआ कि अहीरवाल क्षेत्र की सभी 11 सीटें उस चुनाव में बीजेपी को मिल गईं।"
 
बलवंत कहते हैं कि "90 सीटों की विधानसभा में एकतरफा 11 सीटों की बढ़त बहुत बड़ी बात थी। राज्य में जाट-ग़ैर जाट की राजनीतिक के लिए बीजेपी को हुड्डा की ऐसी ही किसी ग़लती का इंतज़ार था। हुड्डा ने चुनाव के नज़दीक पहुँचकर लोगों को समझाने की काफ़ी कोशिश भी की, पर उनके स्पष्टीकरण काम नहीं आए।"
 
हरियाणा में BJP ने शुरु की जाट-ग़ैर जाट की राजनीति?
हरियाणा के कुछ हलकों में रिपोर्टिंग के दौरान हमने लोगों से सुना कि 'जब से राज्य में बीजेपी आई है, तभी से जाति की ये गंदी राजनीति शुरु हुई, वरना राज्य में सभी बिरादरियों का भाईचारा था'। लेकिन इतिहास का हवाला देकर कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस बात को ग़लत साबित करते हैं।
 
हरियाणा के राजनैतिक इतिहास पर 'पॉलिटिक्स ऑफ़ चौधरी' नाम की किताब लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार सतीश त्यागी कहते हैं, "जाट-ग़ैर जाट की राजनीति का प्रारम्भ मौजूदा दशक में, ख़ासकर 2014 के चुनाव से हुआ हो, ऐसा नहीं है। आज़ादी से पहले भी इस क्षेत्र में ये चीज़ें मौजूद थीं। जब 'रहबरे हिन्द' की उपाधि प्राप्त चौधरी छोटू राम का इस क्षेत्र में राजनीतिक दौर था, उसके इर्द-गिर्द भी ये चीज़ें आ गई थीं। जाट समुदाय से आने वाले छोटू राम पंजाब प्रांत में एक प्रभावशाली नेता थे और इस इलाक़े में कांग्रेस कमेटी के मुख्य पदों पर भी रहे थे। लेकिन जैसे ही राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी का बहुत ज़्यादा प्रभाव बढ़ा तो इस इलाक़े में आंदोलन की बागडोर वैश्यों और ब्राह्मणों के हाथ में चली गई।"
 
"पंडित श्री राम शर्मा इस इलाक़े से राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े चेहरे के रूप में उभरे। तो छोटू राम को यह महसूस हो गया कि 'वैश्यों और ब्राह्मणों' के नेतृत्व के रहते खेतों में काम करने वाली जातियों का एजेंडा वो स्थापित नहीं कर पाएंगे और उन्होंने अपनी धारा बदल ली। कई जगह आप देखते हैं कि वो गांधी की आलोचना भी करते हैं। इसके बाद के इतिहास पर नज़र डालें तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में पंडित श्री राम शर्मा बनाम चौधरी छोटू राम की राजनीति चलती रही है।"
 
"1962 के चुनाव के दौरान इसी राजनीति को एक नया मोड़ दिया कांग्रेस नेता भगवत दयाल शर्मा ने जिन्होंने जाट बहुल क्षेत्र झज्जर में प्रोफ़ेसर शेर सिंह जैसे कद्दावर जाट नेता को चुनौती दी। भगवत दयाल शर्मा को संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री रहे प्रताप सिंह कैरों का आशीर्वाद प्राप्त था और कैरों चाहते थे कि हरियाणा (अंबाला डिवीजन) में कोई समान्तर जाट नेतृत्व ठीक से ना उभरे। उस दौर में देवी लाल और प्रोफ़ेसर शेर सिंह नामी जाट चेहरों के तौर पर पहचान बना रहे थे।"
 
"इसलिए उनके कद को कम करने के लिए कैरों ने भगवत दयाल शर्मा का इस्तेमाल किया। इस चुनाव में शर्मा ने भरपूर कोशिश की थी कि समाज में ध्रुवीकरण हो और वोट दो हिस्सों में टूट जाएं। एक तरफ जाट हों और दूसरी तरफ अन्य समुदाय के लोग। इसका नतीजा भी वो पहले से जानते थे और वही हुआ। हरियाणा से केंद्र में मंत्री बनने वाले पहले नेता और तीन बार के विधायक प्रोफ़ेसर शेर सिंह को भगवत दयाल शर्मा ने पछाड़ दिया और जाति आधारित राजनीति ने अपना काम किया।"
 
त्यागी कहते हैं कि "भगवत दयाल शर्मा ने इसके बाद एक काम और किया कि नया सूबा (हरियाणा) बनते ही जो चुनाव हुए उनमें अपनी ही पार्टी के उन सभी लोगों को उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी खड़े करके हरवा दिया जो सीएम की दौड़ में उनके प्रतिद्वंद्वी हो सकते थे। जब इसकी पोल खुली तो उनके ख़िलाफ़ एक मोर्चा बना जिसमें वो सब नेता शामिल हुए जिन्हें शर्मा ने हरवाया था। इनका नेतृत्व जाट नेता देवी लाल और यादवों के नेता राव बिरेंद्र सिंह कर रहे थे। इस मोर्चे के बारे में कहा गया था कि खेतों में काम करने वाली जातियाँ एक ब्राह्मण के नेतृत्व को ख़ारिज कर रही हैं। लेकिन उस समय इतनी खुलकर बातें नहीं होती थीं। सोशल मीडिया था नहीं। फिर भी समाज में एक समझ बनी कि कौन किसके वर्चस्व को ललकार रहा है।"
 
80 का दशक और भजन लाल का दौर
पवन बंसल बताते हैं कि हरियाणा की राजनीति में जातियों के बीच का संघर्ष 'ग़ैर जाट नेता' के तौर पर मशहूर हुए भजन लाल बिश्नोई के दौर में भी खुले तौर पर दिखाई देता था। भजन लाल चाहते भी थे कि जाट-ग़ैर जाट की राजनीति प्रदेश में चले जिसमें वो काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहे।
 
उन्होंने बताया, "1982 में 'शेरे हरियाणा' कहे जाने वाले चौधरी देवीलाल सिहाग को हटाकर भजन लाल बिश्नोई के मुख्यमंत्री बनने से 'जाति का झगड़ा' फिर शुरु हुआ। 1982 के चुनाव में देवीलाल और जनता पार्टी का गठबंधन था और कुछ निर्दलीय विधायकों को जोड़कर बहुमत भी उनके साथ था। लेकिन राज्य के पूर्व गवर्नर गणपत राव देवजी तपासे ने तय वक़्त से पहले भजन लाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। भजन लाल जोड़तोड़ कर सरकार बनाने में सफ़ल हो गए। पर उनके इस राजनीतिक स्टाइल से सूबे का सबसे बड़ा वोट बैंक यानी जाट समुदाय उनसे नाराज़ हो गया।"
 
"अपनी हाज़िर जवाबी के लिए चर्चा में रहने वाले भजन लाल ने हरियाणा में अपनी राजनीति की शुरुआत यह कहकर की थी कि 'बिश्नोई भी तो जाट ही होते हैं'। वो काफ़ी समय तक ख़ुद को जाट सिद्ध करने में लगे रहे और वो इसे लेकर गंभीर भी थे। वो हवाला देते थे कि हरियाणा के रेवेन्यु रिकॉर्ड में बिश्नोई समुदाय को जाट ही लिखा जाता है। लेकिन जाट कहते रहे कि बिश्नोइयों और जाटों में सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर है, इसलिए उन्होंने भजन लाल को स्वीकार नहीं किया।"
 
इसके बाद भजन लाल ने अपनी राजनीति को कैसे बदला, बलवंत तक्षक इसका ज़िक्र करते हैं।
 
वो बताते हैं, "भजन लाल जब खुलकर जाट नेता देवीलाल के सामने आए तो उन्होंने कहना शुरु किया कि वो भी शरणार्थी हैं, पाकिस्तान के बहावलपुर से आए हैं। वो ख़ुद को पंजाबियों और अन्य पिछड़ी जातियों का नेता कहने लगे थे। लेकिन हरियाणा में जाति आधारित राजनीति का वो दौर इतना उग्र नहीं था जितना अब है।"
 
"इसका एक कारण तो ये है कि सूबे में अन्य जातियाँ आज की तुलना में राजनीतिक रूप से कम सक्रिय थीं और 1987 के चुनाव में देवीलाल ने सबको साथ लेकर चुनाव लड़ा, तो सामाजिक टूट दिखाई देनी बंद हो गई। इसके बाद राज्य में जो चुनाव हुए, उनमें सरकारों की नीतियों की आलोचना तो हुई पर जाति के आधार पर राजनीति खुलेतौर पर नहीं दिखी। 2014 में इस फ़ॉर्मूले को दोबारा आज़माया गया।"
 
राजकुमार सैनी: '35 बनाम 1' के झंडाबरदार
हरियाणा में चुनावी कवरेज के दौरान जब हमने जाट समुदाय के कुछ प्रभावशाली लोगों से बात की तो उन्होंने कहा कि बीजेपी के नेता जाट समुदाय को हरियाणा का 'मुसलमान' बना रहे हैं यानी जिस तरह देश में हिंदुओं के वोटों को एक तरफ करने के लिए वो मुसलमानों के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करते हैं, हरियाणा में जाटों के ख़िलाफ़ कर रहे हैं।
 
इसके लिए जाट समुदाय के अधिकांश लोग राजकुमार सैनी जैसे नेताओं को कसूरवार ठहराते हैं और कहते हैं कि बीजेपी ने सैनी के ख़िलाफ़ कभी कोई एक्शन नहीं लिया। लेकिन सैनी को तो बीजेपी के अन्य वरिष्ठ नेता भी ग़ैरज़िम्मदाराना बयानबाज़ी करने वाला नेता मानते हैं।
 
पत्रकार बलवंत तक्षक ने बताया, "साल 2016 में जब राजकुमार जाटों के ख़िलाफ़ तीखी बयानबाज़ी कर रहे थे, तब वो कुरुक्षेत्र से बीजेपी के सांसद थे। उस दौरान बीजेपी कहती रही कि सैनी के बयानों से पार्टी का कोई वास्ता नहीं, ये उनके व्यक्तिगत बयान हैं। लेकिन ये भी सच है कि तमाम आग उगलने के बाद भी राजकुमार सैनी को पार्टी से बाहर नहीं किया गया। बीजेपी ने उन्हें बदनाम होने दिया और जब उनके रास्ते बंद होने लगे तो उन्हें अपने खेमे में सबसे पीछे की कतार में बैठाना शुरु कर दिया।"
 
सैनी ने 1996 में पहली बार कोई चुनाव जीता था। वो हरियाणा विकास पार्टी (बंसी लाल) की सरकार में परिवहन मंत्री रहे। जब वो पार्टी टूटी तो चौटाला के साथ चले गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐलान किया कि उनकी 'लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी' को बीएसपी का समर्थन प्राप्त है, लेकिन वो कुछ हासिल नहीं कर पाए।
 
सैनी अब जाटों के साथ-साथ बीजेपी के ख़िलाफ़ भी बयानबाज़ी करते हैं और कहते हैं कि बीजेपी ने उनका इस्तेमाल किया।
 
वहीं '35 बनाम 1' के नारे को तूल देने के लिए लगभग सभी राजनीतिक पार्टियाँ, जाट समुदाय और तो और बीजेपी के प्रवक्ता भी आज राजकुमार सैनी को ही दोषी ठहराते हैं।
 
बीबीसी ने इस बारे में राजकुमार सैनी से बात की। उन्होंने कहा, "53 साल के हरियाणा में पाँच मुख्यमंत्रियों ने क़रीब 40 साल तक राज किया जो एक ही समाज के हैं। इन लोगों ने जमकर जातिवाद फैलाया। 50 परसेंट से ज़्यादा रोज़गार इन्होंने अपने लोगों को दिए। जबकि दलितों और अन्य पिछड़ों को सिर्फ़ 25 परसेंट हिस्सेदारी मिली। तो इन दो वर्गों का जो रोष था, हमने उसे आवाज़ दी। '35 बनाम 1' का जो नारा है वो इनकी गुंडागर्दी को एक अल्टिमेटम था कि हम तुम्हें ठिकाने लगाएंगे।"
 
"जब हम सूबे की सबसे बड़ी जाति को ललकार रहे थे तो बीजेपी साथ खड़ी रही। लेकिन जब पार्टी में हमने अपनी हिस्सेदारी माँगी तो हमें नकार दिया गया। 2014 में बीजेपी मोदी को लाई बैकवर्ड का नेता बनाकर, उसने भी कुछ नहीं किया। 27 परसेंट के रिज़र्वेशन के बाद और 50 परसेंट हिस्सेदारी की मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के बाद भी हमारी हिस्सेदारी नहीं बढ़ी। इसलिए पिछड़े वर्ग में बीजेपी के ख़िलाफ़ और उन पाँच जाट मुख्यमंत्रियों के ख़िलाफ़ आक्रोश है।"
 
राजकुमार सैनी कहते हैं कि बीजेपी ने 2014 के विधानसभा चुनाव में मिडिल ऑर्डर की जातियों (अहीर, गुर्जर और यादव) को बड़े ख़्वाब दिखाए थे पर उन्हें धोखा ही मिला और इसका असर इस चुनाव में दिखेगा। सैनी के इन दावों में कितना दम है, इसका फ़ैसला अगले सप्ताह हरियाणा चुनाव के नतीजे करेंगे।
 
जाट और बीजेपी, क्या दोनों को एक-दूसरे से नफ़रत है?
अगर '35 बनाम एक' के नारे को संदर्भ में रखें, तो जाटों के सामने हरियाणा के ग़ैर जाट समुदाय की कौनसी जातियाँ हैं जो राजनीतिक रूप से जाटों के सामने हैं?
 
इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार सतीश त्यागी ने कहा, "जाटों के नेतृत्व को चुनौती देने वालों में इस वक़्त पंजाबी समुदाय सबसे आगे है। भजन लाल बिश्नोई के बाद मनोहर लाल खट्टर के रूप में इस समुदाय को एक चेहरा मिला है और राजनीतिक रूप से कम सक्रिय समझे जाने वाले इस समुदाय की हरियाणा में नई राजनीतिक पहचान बनी है।"
 
"दूसरे नंबर पर ब्राह्मणों की जमात है जिन्हें यहाँ राजनीतिक रूप से महत्वकांक्षी समझा जाता है। भदवत दयाल शर्मा के बाद राम विलास शर्मा जैसे ब्राह्मण चेहरे बीजेपी के साथ रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में जाट समुदाय के 'मक्का' कहे जाने वाले रोहतक संसदीय क्षेत्र से बीजेपी के ब्राह्मण प्रत्याशी डॉक्टर अरविंद शर्मा को जीत मिली तो हुड्डा खेमे के लिए इसे अब तक का सबसे बड़ा झटका माना गया क्योंकि इससे यह संदेश और भी मज़बूती से गया कि जाटों को उनके गढ़ में भी हराया जा सकता है।"
 
त्यागी कहते हैं कि बीजेपी ने प्रदेश में इन दो जातियों को ज़्यादा तरजीह दी है, इसका ये मतलब नहीं है कि पार्टी ने जाटों से किनारा कर लिया है।
 
वो कहते हैं, "बीते वर्षों में बीजेपी की छवि ग़ैर-जाट पार्टी की बनी है। पार्टी चाहती है कि ये छवि बनी रहे। लेकिन पार्टी ये भी चाहती है कि जाट समुदाय उनसे विमुख ना हो। यही वजह है कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जाट हैं और सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे कुछ विधायक भी जाट समुदाय से आते हैं।"
 
पत्रकार सत सिंह धनखड़ इस संदर्भ में ज़मीनी स्तर पर हो रहे बदलावों का ज़िक्र करते हैं।
 
वो कहते हैं कि "पहलवान बबीता फ़ोगाट जैसे अन्य नामी जाट चेहरों की बीजेपी में एंट्री, फिर भी साधारण बात है। लेकिन गाँवों में असाधारण तरीक़े से जाटों का वोट बीजेपी के पक्ष में झुका है। इनमें वो घर-परिवार शामिल हैं जो ये सवाल उठाते हैं कि हुड्डा और चौटाला ने उन्हें क्या दिया? स्थानीय स्तर पर बीजेपी के कार्यकर्ता और नेता ऐसे ही जाट परिवारों की निशानदेही कर, उन्हें सहलाने का काम कर रहे हैं।"
 
सत सिंह कहते हैं कि "हरियाणा के निर्माण के समय से ही जाट समुदाय राजनीति में हावी रहा है। इस वजह से भी जाटों में सत्ता के क़रीब रहने की ललक है। सभी लोग पार्टियों में चुनावी टिकट लेने नहीं जाते। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनका सत्ता के क़रीब रहकर अपने काम निकालने और राजनीतिक सहुलियतें लेने का स्वभाव बन चुका है क्योंकि उनका व्यवसाय, उनकी नौकरियाँ, उनके तबादले, इन सब पर सत्ताधारी दल का अंकुश होता है। तो ऐसे जाट भी सत्ताधारी दल की तरफ शिफ़्ट हुए हैं।"
 
अंत में हरियाणा के लेखक भीम सिंह दहिया की क़िताब 'पावर पॉलिटिक्स इन हरियाणा' का हवाला देकर सत सिंह कहते हैं, "जाट ज़्यादा समय तक सत्ता की ताक़त से दूर नहीं रह सकते और उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वो प्रभावशाली भूमिका में रहने के लिए किसके साथ गठबंधन करते हैं। अगर आप उनको कम महत्त्व वाली भूमिका में शिफ़्ट करेंगे, तो वो या तो गठबंधन तोड़ देंगे या उस पार्टी को ही तोड़ने लगेंगे। खट्टर के मुख्यमंत्री बनने पर जाटों में नाराज़गी की यही वजह थी और अब जिन परिवारों में टूट-फूट हो रही है, वहाँ भी कारण यही है।"
 
इन सभी राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि '35 बनाम 1' के नारे से और सूबे की अन्य जातियों के राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने के कारण राज्य की 90 में से क़रीब 18 सीटें ही अब ऐसी बची हैं जहाँ जाटों का वोट निर्णायक है। वरना एक समय था जब ये संख्या 30 हुआ करती थी।
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