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Written By BBC Hindi
Last Modified: शुक्रवार, 1 सितम्बर 2023 (08:34 IST)

मोदी सरकार के फ़ैसलों का असर बाक़ी दुनिया पर क्यों पड़ रहा है?

Narendra Modi
निखिल इनामदार, बीबीसी संवाददाता
दुनिया भर के कृषि व्यापार में अहम हिस्सेदारी निभाने वाले भारत में खाद्य उत्पादों की क़ीमतों में 11 प्रतिशत से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है। ये सब हुआ है, मौसम के बिगड़े हुए मिजाज़ के कारण। भारत में ये पिछले सौ सालों का सबसे सूखा अगस्त साबित हुआ।
 
जैसे ही टमाटर के दाम नीचे आने लगे, जून के बाद से घरेलू बाज़ार में प्याज़ के दाम 25 प्रतिशत तक बढ़ गए। इसी तरह, इस साल की शुरुआत के मुक़ाबले दालें भी क़रीब 20 फ़ीसदी महंगी हो गई हैं।
 
भारत में अकेले जुलाई में ही सामान्य शाकाहारी भोजन की क़ीमत एक तिहाई तक बढ़ गई। कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसे ‘करी प्रॉब्लम’ का नाम दिया है।
 
इस साल कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल गर्मियों में लोकसभा चुनाव भी होंगे। ऐसे में भारत सरकार हरकत में आई है और खाद्य मुद्रास्फीति पर क़ाबू पाने के लिए उसने कुछ क़दम उठाए हैं।
 
निर्यात पर रोक
मई 2022 में गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने के बाद सरकार ने पिछले महीने ग़ैर बासमती चावलों के निर्यात पर भी पाबंदी लगा दी थी।
 
हाल ही में, वित्त मंत्रालय ने प्याज़ पर 40 फ़ीसदी का निर्यात शुल्क लगाया है ताकि इसका निर्यात घटाकर घरेलू आपूर्ति सुचारू रखी जा सके। अंदाज़ा है कि इस साल चीनी का उत्पादन भी कम हो सकता है।
 
केयरएज ग्रुप में मुख्य अर्थशास्त्री रजनी सिन्हा कहती हैं, “ऐसे में, चीनी के निर्यात पर प्रतिबंध लगने की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं।”
 
विश्लेषकों का कहना है कि सरकार आने वाले समय में और कड़े क़दम उठा सकती है। निर्यात पर लगातार बंदिशें लगाने के बावजूद देश के अंदर चावल के बढ़े हुए दामों में कमी नहीं आई है।
 
ग्लोबल फ़ाइनैंशियल ग्रुप नोमुरा ने हाल ही में जारी एक नोट में कहा है कि ऐसे में, अब सरकार और भी व्यापक प्रतिबंध लगा सकती है।
 
दुनिया पर भी असर
घरेलू क़ीमतों को क़ाबू में रखने के लिए भारत द्वारा आक्रामक ढंग से बचाव की रणनीति अपनाने से क्या दुनिया में भी खाद्य महंगाई बढ़ने का ख़तरा पैदा हो गया है? इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट (आईएफ़पीआरआई) को लगता है कि ऐसा हो सकता है, ख़ासकर चावल, चीनी और प्याज़ के मामले में।

पिछले एक दशक में भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक बनकर उभरा है। बाज़ार में इसकी हिस्सेदारी 40 फ़ीसदी है। साथ ही वह चीनी और प्याज़ का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
 
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ़एओ) के चावल की क़ीमतों के सूचकांक में जुलाई महीने में 2.8 प्रतिशत का उछाल आया था जो सितंबर 2011 के बाद सबसे ज़्यादा था। क़ीमतों में आई इस बढ़ोतरी में ज़्यादा योगदान चावल की इंडिका क़िस्म का है, जिसका निर्यात भारत ने रोक दिया है।
 
एफ़एओ का कहना है कि इसके कारण अन्य क्षेत्रों में भी चावल के दामों पर ‘ऊपर’ जाने का दबाव पड़ा है।
 
इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट (आईएफ़पीआरआई) में सीनियर रिसर्च फ़ेलो जोसेफ़ डब्ल्यू ग्लॉबर ने बीबीसी से कहा, “पिछले महीने प्रतिबंध लगाने के बाद से थाई चावल के दाम में भी 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।”
 
इस बढ़ोतरी का दुनिया के बेहद ग़रीब लोगों पर ख़राब असर पड़ सकता है। एफ़एओ और संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम द्वारा चिह्नित भूख से सबसे ज़्यादा प्रभावित 18 स्थानों (हॉटस्पॉट्स) में खाद्य असुरक्षा और बढ़ सकती है।
 
भारत पर निर्भरता
चावल एशिया और अफ़्रीका में करोड़ों लोगों का मुख्य आहार है और उनकी ऊर्जा की ज़रूरत को पूरा करने में अहम भूमिका निभाता है। इन जगहों के लिए भारत मुख्य निर्यातक है।
 
एशिया और सब-सहारन अफ़्रीका में 42 देश अपनी ज़रूरत का 50 फ़ीसदी चावल भारत से आयात करते हैं। आईएफ़पीआरआई के मुताबिक़, कुछ देशों में यह आंकड़ा 80 प्रतिशत तक है और अन्य बड़े चावल उत्पादक, जैसे कि वियतनाम, थाइलैंड या पाकिस्तान इसकी भरपाई नहीं कर सकते।
 
दुनिया भर में खाने की क़ीमतें बढ़ने से देश और तरह से भी प्रभावित होंगे। एफ़एओ के मार्केट्स एंड ट्रेड डिविज़न में सीनियर इकोनॉमिस्ट उपाली गलकेती के अनुसार, “इन देशों को आयात पर ज़्यादा रक़म खर्च करनी होगी जिसके लिए इन्हें अपने विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करना होगा। इससे उनका आर्थिक संतुलन बिगड़ेगा, साथ ही महंगाई और बढ़ेगी।”
 
क्या भारत ही है ज़िम्मेदार?
लेकिन दुनिया भर में खाद्य मंहगाई बढ़ने के लिए सिर्फ़ भारत द्वारा उठाए गए क़दमों को ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसमें यूक्रेन पर रूस के हमले, दुनिया भर में ख़राब मौसम की मार और ‘ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव’ को ख़त्म किए जाने जैसे कारणों की भी भूमिका रही है।
 
ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव वो समझौता है, जिसके तहत रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान यूक्रेन के बंदरगाहों से अनाज की सप्लाई दूसरे देशों में सुरक्षित तरीके से सुनिश्चित करवाना तय किया गया था। ये समझौता रूस, यूक्रेन, तुर्की और संयुक्त राष्ट्र के बीच हुआ था।
 
उपाली गलकेती ने बीबीसी को बताया, “पिछले साल के मध्य से दुनिया भर में खाने की चीज़ों के दाम में कमी देखी जा रही थी, मगर बाज़ार को प्रभावित करने वाले इन सभी कारणों की वजह से स्थिति एकदम पलट गई है।”
 
चीन समेत दुनिया के कई हिस्सों में मंदी के बावजूद वैश्विक खाद्य महंगाई ऐतिहासिक स्तर पर है। इन इलाक़ों में मांग घटने का भी अंतरराष्ट्रीय खाद्य क़ीमतों पर असर पड़ा है।
 
तेल और अनाज के कम दामों के कारण विश्व बैंक को उम्मीद है कि साल 2023 में उसका खाद्य क़ीमतों का सूचकांक 2022 की तुलना में नीचे रहेगा।
 
मगर विश्लेषकों का कहना है कि भविष्य में खाने की चीज़ों के दाम अल नीनो के प्रभावों पर निर्भर करेंगे। इसका असर काफ़ी ज़्यादा होगा और खाद्य बाज़ार पर और ज़्यादा दबाव बन सकता है।
 
भारत की ‘छवि पर असर’
इस अनिश्चितता के बीच, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) समेत कई मंच भारत से महत्वपूर्ण वस्तुओं के निर्यात पर लगाए प्रतिबंध को वापस लेने की मांग कर रहे हैं।
 
नोमुरा के विश्लेषक कहते हैं, “निर्यात पर लगी पाबंदी ने वैश्विक खाद्य महंगाई को तो बढ़ाया ही है, एक भरोसेमंद सप्लायर के तौर पर भारत की छवि को भी चोट पहुंचाई है। साथ ही उसने अपने किसानों को अच्छी वैश्विक क़ीमतों से मिलने वाले लाभ से वंचित रखा है।”
 
“व्यापारिक बंदिशों के कारण क़ीमतो में बूम-बस्ट साइकल (तेज़ी-मंदी चक्र) भी बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए 2015-16 में दालों की महंगाई के कारण भारत को आयात बढ़ाना पड़ा था। मगर आगे के सालों में सामान्य मॉनसून और अच्छे घरेलू उत्पादन के चलते अच्छी पैदावार के कारण भरपूर आपूर्ति हुई थी। इससे 2017-18 में क़ीमतों में बड़ी गिरावट आई थी।”
 
आईएफ़पीआरआई में सीनियर रिसर्च फ़ेलो जोसेफ़ डब्ल्यू ग्लॉबर और अन्य विशेषज्ञ चेताते हैं कि “अगर आयातकों को लगा कि एक सस्ते सप्लायर पर निर्भर रहने की तुलना में विभिन्न भरोसेमंद सप्लायरों से व्यापार करना बेहतर है तो वे अन्य भरोसेमंद सप्लायर तलाशना शुरू कर देंगे।”
 
मगर एफ़एओ के मुताबिक़, सबसे बड़ा ख़तरा तब पैदा होगा जब अन्य देश भी अपने यहां खाने की चीज़ों के निर्यात पर रोक लगा देंगे। इससे “वैश्विक व्यापार प्रणाली पर भरोसा कम हो जाएगा।”
 
हालांकि, कुछ जानकारों का कहना है कि राजनीतिक व्यावहारिकता और खाद्य आत्मनिर्भरता के संकल्प की वजह से भारत इन सब पहलुओं पर विचार नहीं करेगा। वह भी उस दौर में जो राजनीतिक रूप से काफ़ी संवेदनशील है।
 
भारत में पहले भी फसलों की बढ़ी हुई क़ीमतों का असर चुनाव पर पड़ा है। जैसे कि प्याज़ के दाम के कारण सत्ताधारी दलों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है।
 
आम भारतीय की कमाई का बड़ा हिस्सा खाने पर खर्च होता है। ऐसे में खाने की चीज़ों के बढ़े हुए दाम की वजह से लोगों के पास आने वाले त्योहारी सीज़न में खर्च करने के लिए कम पैसे बचेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ सकती है।
 
भारत का केंद्रीय बैंक आरबीआई पहले ही ब्याज़ की दरों को छह बार बढ़ा चुका है। चूंकि यह समस्या कम आपूर्ति के कारण पैदा हुई है, इसलिए खाद्य मुद्रास्फीति को काबू करने के लिए आरबीआई के पास ज़्यादा कुछ नहीं बचा है।
 
ऐसे में सरकार के पास व्यापार पर विभिन्न तरह की पाबंदियां लगाने के अलावा ज़्यादा विकल्प नहीं हैं।
 
केयरएज ग्रुप में चीफ़ इकोनॉमिस्ट रजनी सिन्हा कहती हैं, “इस समय सभी देशों का ध्यान अपनी अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फ़ीति पर काबू करने पर है। मैं कहूंगी कि भारत को भी वैश्विक महंगाई की चिंता करने से पहले अपने हितों का ख़्याल रखना होगा।”
 
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