तेजस वैद और हरिता कांडपाल, बीबीसी गुजराती
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य गुजरात कोरोना संक्रमण से सबसे बुरी तरह प्रभावित होने वाले राज्यों में शामिल है।
महाराष्ट्र के बाद गुजरात ऐसा राज्य था जहां बेहद तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैला और यहाँ पर वायरस के कारण मरने वालों की दर भी लगातार चिंता का विषय रही है।
भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़, देश में 5 जून को 2 लाख 16 हज़ार से ज़्यादा कोरोना संक्रमितों में से क़रीब 65 प्रतिशत मरीज़ अकेले महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली और गुजरात में हैं।
महाराष्ट्र में 74,860, तमिलनाडु में 25,872, दिल्ली में 23 हज़ार से ज़्यादा संक्रमित हैं। चौथे नंबर पर गुजरात है जहाँ पर 18 हज़ार से ज़्यादा लोग कोरोना संक्रमित हैं लेकिन कोविड-19 से मरने वालों के आँकड़े देखें, तो ये क्रम बदल जाता है।
महाराष्ट्र में मृतकों का आँकड़ा 2587 है, गुजरात में 1122, दिल्ली में 606 और तमिलनाडु में 208 है।
ज़्यादा मृत्यु दर
देश में कोरोना संक्रमण के कारण होने वाली मौतों का दर तीन प्रतिशत रहा है लेकिन गुजरात में शुरू से ही मृत्यु दर ज़्यादा रही है।
इसका क्या कारण है? इसके जवाब में एचसीजी ग्रुप ऑफ़ हॉस्पिटल्स के रिजनल डायरेक्टर डॉक्टर भरत गढवी कहते हैं, "इसका बड़ा कारण है कि लोग देर से इलाज के लिए आ रहे हैं और उन्हें बचाना मुश्किल हो रहा है।"
वो कहते हैं तमिलनाडु में ऐसा नहीं है। जैसे ही लक्षण दिखाई दें, तुरंत डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।
गढवी कहते हैं कि सरकारी नीतियां भी लचर रही हैं। टेस्टिंग और आइसोलेशन वग़ैरह शुरुआत में बहुत जोश के साथ हो रहा था लेकिन अब सरकारी प्रशासन थकता हुआ नज़र आ रहा है।
अहमदाबाद के डॉक्टर सोमेन्द्र देसाई कहते हैं कि एक कारण ये भी है कि गुजरात में अन्य राज्यों की तुलना में डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर और ओबेसिटी जैसी बीमारियां ज़्यादा पाई जाती हैं।
सरकार का दावा है कि ज़्यादातर मौतें हाई रिस्क ज़ोन में हुई हैं। नौ प्रतिशत मौतें हाई रिस्क आयु वर्ग में हुई हैं यानी पांच वर्ष से कम और 60 साल से ज़्यादा। 77 फ़ीसदी मरीज़ अन्य बीमारियों से पीड़ित थे वहीं 14 फ़ीसदी मरीज़ को कोई अन्य बीमारी नहीं थी।
केंद्र सरकार ने देश के सबसे बड़े एम्स अस्पताल के प्रमुख डॉ. रणदीप गुलेरिया को मई में सिविल अस्पताल और अमदाबाद के दौरे पर भेजा था।
अहमदाबाद में कोरोना के कारण ज़्यादा मौतों के बारे में उन्होंने कहा था कि अभी भी लोगों में कोविड-19 को लेकर 'स्टिग्मा' है, लोग अब भी टेस्ट के लिए अस्पताल आने से डर रहे हैं। देर से अस्पताल में भर्ती होने की वजह से भी इलाज पर असर होता है।
डॉक्टर गुलेरिया ने ये भी कहा था कि जिन मरीज़ों में हल्के लक्षण हैं उनमें अचानक ऑक्सीजन कम होने के कारण उनकी स्थिति बिगड़ जाती है, इसे 'हैपी हाइपोक्सिया' कहते हैं और जब तक उन्हें सांस लेने में दिक़्क़त शुरू होती है उनकी हालत गंभीर हो चुकी होती है।
इसके अलावा गुजरात में कोरोना वायरस के अलग स्ट्रेन की बात को सरकार और आईसीएमआर ने नकार दिया था।
संक्रमण कैसे बढ़ गया?
मई के अंतिम हफ़्ते तक गुजरात महाराष्ट्र के बाद सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य था। गुजरात में तबलीग़ी जमात या कोयाबेडु की तरह कोई बड़ा क्लस्टर भी नहीं मिला था।
हालांकि, मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल ने दिल्ली में आयोजित तबलीग़ी जमात के लोगों को गुजरात में कोरोना फैलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था।
गुजरात में कोरोना संक्रमण के सबसे बड़े हॉटस्पॉट अहमदाबाद और सूरत रहे हैं। अहमदाबाद में गुजरात के कुल संक्रमितों में से 70 फ़ीसदी से ज़्यादा मरीज़ हैं, गुजरात में होने वाली अधिकांश मौतें भी यहीं पर हुई हैं।
शुरुआत में अहमदाबाद के जिन इलाक़ों में कोरोना संक्रमण फैला, वो इलाक़ा भी घनी आबादी वाला है। हालाँकि मई का महीना ख़त्म होने तक कोरोना संक्रमण अहमदाबाद के कई और हिस्सों में फैल चुका था।
गुजरात के जाने-माने समाजशास्त्री गौरांग जानी कहते हैं कि अहमदाबाद पूर्व इलाक़े में संकरी गलियां जिन्हें गुजराती में 'अमदावाद नी पोड़' कहते हैं, वहाँ पर फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग संभव नहीं है, लोगों को अपने रोज़मर्रा के काम जैसे कपड़े-बर्तन धोने और दांत साफ़ करने जैसे काम भी घर के बाहर करने पड़ते हैं।
इन इलाक़ों में पुलिस को पेट्रोलिंग में भी मुश्किलें आतीं हैं। लॉकडाउन के दौरान अहमदाबाद में 11 कंटेनमेंट ज़ोन थे जिनमें से 10 इसी इलाक़े में थे।
हालांकि, पश्चिम अहमदाबाद में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ आबादी इतनी घनी नहीं है फिर भी यहाँ पर लोग संक्रमित हुए हैं। अहमादाबाद में 17 मार्च के दिन पहला केस दर्ज किय गया था और मार्च के अंत तक यहाँ 25 केस और तीन मौतें दर्ज हुई थीं।
स्वास्थ्य से जुड़े विषयों पर काम करने वाले ऑब्ज़र्वर फ़ाउन्डेशन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अहमदाबाद की घनी आबादी वाले इलाक़ों से ज़्यादातर संक्रमितों को सिविल अस्पताल में भर्ती कराया जाता रहा है, जहाँ पर सुविधाओं के अभाव, डॉक्टरों और स्टाफ़ द्वारा दुर्व्यवहार और सही इलाज न मिल पाने की शिकायतें देखने को मिली हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक़, आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति वाले मरीज़ों को एसवीपी अस्पताल में भर्ती कराया जाता है जहाँ बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
इसके अलावा अगर लोगों को नज़दीक में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों की सुविधा मिल जाती तो भी संक्रमितों का इलाज जल्दी हो जाता।
13 मई को प्रकाशित इस रिपोर्ट में बताए आँकड़े कहते हैं कि 17.8 प्रतिशत लोगों की मौत अस्पताल में भर्ती होने के पहले दिन ही हो गई जबकि सिर्फ़ 14.9 प्रतिशत लोग सात से 10 दिन और 2.5 प्रतिशत लोग दस से ज़्यादा दिन अस्पताल में ज़िंदा रहे।
क्या पर्याप्त तैयारी की गई थी?
गुजरात के स्वास्थ्य तंत्र में स्वास्थ्य कर्मियों की नाराज़गी भी महामारी के सामने सरकार की तैयारियों की पोल खोल देती है।
राज्य में कई अस्पतालों से स्टाफ़ की हड़ताल की ख़बरें आईं। कई बार तनख़्वाह को लेकर तो कई बार पीपीई किट और कोरोना टेस्टिंग की मांग को लेकर।
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल के गुजरात कैंसर ऐन्ड रिसर्च इन्स्टिट्यूट में मई महीने में 27 नर्स और सात कर्मचारी कोरोना पॉज़िटिव पाए गए जिसके बाद अन्य स्टाफ़ सदस्यों ने सही सुरक्षा उपकरणों के लिए हंगामा किया था।
इसके अलावा राज्य के अन्य अस्पतालों में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले नर्सिंग स्टाफ़ ने तनख़्वाह को लेकर हड़ताल की।
गुजरात में मार्च में कोरोना वायरस दस्तक दे चुका था लेकिन मई तक निजी अस्पतालों के साथ सरकार की अनबन चलती रही। इस मामले में गुजरात हाईकोर्ट तक को हस्तक्षेप करना पड़ा।
16 मई को ऐपिडेमिक डिज़ीज़ कंट्रोल ऍक्ट 1897 के तहत अहमदाबाद के स्थानीय प्रशासन ने 42 निजी अस्पतालों को कोविड-19 अस्पताल घोषित कर 50 प्रतिशत बेड्स कोविड-19 मरीज़ों के लिए रखने का आदेश दिया। हालांकि कई निजी अस्पतालों ने उनके लिए भिन्न रेट्स तय किए जाने पर नाराज़गी जताई थी।
इसके अलावा आईसीएमआर की गाइडलाइन्स के मुताबिक़, निजी लैब में टेस्टिंग न होने और सरकार से टेस्टिंग की मंज़ूरी मिलने में कथित देरी को लेकर भी सरकार और निजी अस्पतालों के बीच नोंक-झोंक हुई।
लॉकडाउन केंद्र के स्तर पर सभी राज्यों में लागू हुआ था लेकिन स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं।
जैसे कि अहमदाबाद में हॉटस्पॉट में से संक्रमण बाहर न जाए इसके लिए जिन सड़कों को बंद करने की ज़रूरत थी वैसे पांच ब्रिजों को मई के पहले हफ़्ते में बंद किया गया।
गुजरात की स्वास्थ्य सुविधाएँ
गुजरात मॉडल में नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक़, अगस्त 2018 तक गुजरात में 1474 प्राइमरी हेल्थ सेंटर थे जो 'बीमारू प्रदेशों' में शामिल बिहार से भी कम हैं।
बिहार में 1899 प्राइमरी हेल्थ सेंटर हैं। गुजरात में 363 कम्युनिटी हेल्थ केयर सेंटर हैं और 9,153 सब सेंटर हैं, ग्रामीण इलाक़ों में 30 हज़ार की आबादी के लिए एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर होता है, जहाँ से कम्युनिटी सेंटर में रेफ़र किया जाता है।
भारत में प्रति हज़ार की आबादी पर हॉस्पिटल में जितने बेड्स होने चाहिए गुजरात में उससे कम हैं।
मार्च 2020 में ब्रुकिंग्स नाम की संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, गुजरात के सरकारी अस्पतालों में एक हज़ार की आबादी पर 0.30 बेड्स हैं, जबकि राजस्थान में 0.60, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और ओडीशा में 0.40 है, तमिलनाडु में 1.1 बेड्स हैं।
लोकसभा में जवाब देते हुए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने मार्च 31, 2018 तक के आँकड़े पेश किए जिसके मुताबिक़, गुजरात में प्राइमरी हेल्थ सेंटरों में डॉक्टरों के 29 फ़ीसदी स्थान खाली थे। वहीं फिज़िशियन, बच्चों के डॉक्टर, गायनोकॉलॉजिस्ट और सर्जन जैसे स्पेशियालिस्ट्स के 90 फ़ीसदी स्थान खाली थे।
हेल्थ एजुकेटर अशोक भार्गव ने बीबीसी को बताया, "केरल में प्राइमरी हेल्थ सेंटर से लेकर सरकारी अस्पताल तक सभी सुचारू रूप से काम करते हैं और महामारी के समय उन्हें अलग से सजग नहीं होना पड़ता। गुजरात में गाँव हों या शहर सरकारी अस्पतालों पर लोगों का विश्वास कम ही रहता है। जहाँ अच्छा काम होता है, वहाँ पर मरीज़ों का बोझ ज़्यादा रहता है। गुजरात में सालों से सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ खस्ताहाल ही रही हैं।"
उनका कहना है कि लोगों में महामारी के प्रति जागरूकता की कमी ने भी गुजरात की मुश्किलें बढ़ाई हैं।
गुजरात के सामने क्या हैं मुश्किलें?
गुजरात में कोरोना महामारी की लड़ाई का एक बड़ा केंद्र है सिविल अस्पताल। गुजरात हाईकोर्ट ने ख़ुद संज्ञान लेते हुए सिविल अस्पतालों की स्थिति पर सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी।
67 साल की लक्ष्मी परमार ने अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में 10 दिन तक कोविड-19 का इलाज कराया था।अहमदाबाद के बेहरामपुरा की रहने वालीं लक्ष्मी के तीन परिवार वाले भी कोरोना पॉज़िटिव हुए थे।
वो कहती हैं कि कई घंटों के इंतज़ार के बाद अस्पताल में बेड मिला। पहले नाश्ता नहीं मिल रहा था। फिर हमने रसूख वाले एक नेता से शिकायत की तब सब ठीक हो गया। लक्ष्मी बताती हैं कि 40-50 लोगों के बीच दो टॉयलेट्स और बाथरूम थे।
वहीं सिविल अस्पताल से कोविड-19 का इलाज कराके डिस्चार्ज हुए गणपति मकवाणा की लाश एक बस स्टैन्ड पर मिलने पर सरकार की किरकिरी हुई थी।
उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल जो स्वास्थ्य मंत्री भी हैं, उन्होंने कहा कि ऑक्सीजन लेवल कम हो जाने की वजह से मौत हुई हो सकती है।
गणपत मकवाणा के बेटे कीर्ति का सवाल है कि अगर उनकी तबीयत ठीक नहीं थी तो उन्हें इस तरह डिस्चार्ज करके घर क्यों भेज दिया गया?
हाल ही में एक परिवार को कोविड-19 मरीज़ का शव सौंपा गया, शव की अंत्येष्टि के बाद अस्पताल ने बताया कि उनके परिवारजन की मौत नहीं हुई है बल्कि वो ठीक हैं।
सिविल अस्पताल से आने वाली इन ख़बरों ने वहाँ की अव्यवस्थाओं को सामने ला खड़ा किया है।
नीतियों को लेकर सवाल
जब अहमदाबाद में अप्रैल में स्थिति गंभीर होती चली गई तब इन्हें सुपर स्प्रेडर्स की श्रेणी में रखकर 15 अप्रैल से पांच मई के बीच इनकी स्क्रीनिंग की गई।
इनमें 250 कोरोना पॉज़िटिव केस मिले थे। ये वो लोग थे जो अहमदाबाद की अलग-अलग सब्ज़ी मार्केट्स और सोसायटीज़ में सब्ज़ी-फल बेचते थे।सबसे ख़तरनाक बात थी ये सब ऐसिम्पटॉमैटिक सुपर स्प्रेडर्स थे।
समाजशास्त्र के विषयों के जानकार शारिक लालीवाला कहते हैं कि लॉकडाउन में सब्ज़ी-फलवालों को स्क्रीनिंग के आधार पर छूट मिली हुई थी जिसकी जगह उनकी टेस्टिंग की ज़रूरत थी।
इसके अलावा लॉकडाउन 4.0 में गुजरात के ही अन्य शहरों में काम करने वाले गुजराती प्रवासी श्रमिकों को वापस गाँव पहुँचाने के लिए बसों की इजाज़त दे दी गई जिसने उन इलाक़ों को भी ख़तरे में डाल दिया जो अब तक कोरोना की भयंकर चपेट में आने से बचे हुए थे।
ऐसा ही अमरेली में हुआ जो लगभग दो महीने तक कोरोना संक्रमण से बचा हुआ था, वहाँ भी सूरत से लौटे प्रवासी श्रमिकों के साथ कोरोना पहुँच गया।
गीर सोमनाथ में मई के मध्य तक दो कोरोना मरीज़ थे जो ठीक हो गए थे लेकिन बसों की आवाजाही शुरू हुई जिसके बाद वहाँ 40 कोरोना संक्रमित पाए गए।
शारिक लालीवाला सिर्फ़ स्क्रीनिंग की नीति को ठीक नहीं मानते हैं, वो कहते हैं कि ज़्यादातर संक्रमित लोगों में लक्षण नहीं हैं तो संक्रमण का पता टेस्टिंग से लग सकता है, स्क्रीनिंग से नहीं।
ऐसे में जहाँ सरकार का ज़्यादातर ध्यान अहमदाबाद और सूरत की तरफ नज़र आता है तब भी स्थिति काबू में आती नहीं दिखती। तो क्या दूर दराज़ के इलाक़ों में जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुँचने के लिए कई किलोमीटर का सफ़र करना पड़ता है, वहाँ पर कोरोना संक्रमण से कैसे निबटेगी सरकार?
सरकार क्या कह रही है?
गुजरात के स्वास्थ्य और कुटुंब कल्याण मंत्री कुमार कानाणी से बीबीसी ने अनलॉक-1 और कोरोना वायरस संक्रमण के बढ़ रहे केस के बारे में बात की।
अनलॉक-1 के बाद गुजरात में कोरोना के केस बढ़ रहे हैं। तीन और चार जून के दौरान 24 घंटे में रिकॉर्ड 492 केस गुजरात में दर्ज हुए हैं। अनलॉक-1 में जिस तरह की छूटछाट दी जा रही है उसकी भी आलोचना हो रही है।
इस पर बताते हुए गुजरात के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री कुमार कानाणी ने बीबीसी से कहा, "आर्थिक स्थिति और कोरोना दोनों को ध्यान में रखकर सरकार ने जितना बेहतरीन हो सकता था उतना किया है। सरकार ने उसके बारे में बहुत पहले से सोचा था। सरकार के साथ-साथ अब लोगों को भी यह समझना जरूरी है की जागरूकता के साथ व्यापर रोज़गार चलाना होगा अब लोग जितना व्यक्तिगत तौर पर अपना ख़याल रखेंगे उतना सरकार को सहयोग मिलेगा।"
सरकार पर यह भी आरोप लग रहे हैं कि गुजरात में टेस्टिंग बहुत कम हो रही है, प्राइवेट लैब को भी पहले टेस्ट की अनुमति नहीं है?
इस सवाल के बारे में कानाणी ने बताया, "नहीं यह ग़लत बात है। जितना हो सकता है उतना टेस्टिंग सरकार ने किया है और अभी भी कर रही है। इसमें कुछ छुपाने की बात नहीं है। यह बात सही है की लॉकडाउन खुला है उसके बाद मामले बढ़े है।"
अनलॉक-1 के बाद मरीज़ बढ़ रहे है तो हमारे पास क्या व्यवस्थाएं हैं? इस सवाल पर कुमार कानाणी बताते हैं कि "प्लान तो पहले से ही बने हैं। हमने कभी किसी को यह नहीं कहा कि आपको एडमिट नहीं करेंगे।"
गिर-सोमनाथ,सुरेंद्रनगर, अमरेली जैसे गुजरात के जिलों में कोरोना के केस बहोत कम या ना के बराबर थे। अब वहां पर लोगों की आवाजाही से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं।
दूरदराज़ के जिलों में स्वास्थ्य सुविधा जहां पर्याप्त नहीं है वहां कोरोना के सामने कैसे लड़ा जायेगा? इस सवाल पर कुमार कानाणी कहते हैं, "सब व्यवस्थित होगा, कोई दिक़्क़त नहीं होगी। सरकार ने जो भी प्रयास किए या निर्णय लिए वो समय के मुताबिक़ लिए हैं।"