- अभिषेक रंजन सिंह (ढाका से)
मंगलवार यानी सात अगस्त का दिन बांग्लादेश में रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों के लिए काफी अहम है। खासकर राजधानी ढाका, जहां अकेले मीरपुर कैंप में तकरीबन 75,000 बिहारी मुसलमान रहते हैं।
दरअसल सात अगस्त को बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट में केस नंबर 11289/2017 (मक़सूद आलम वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार) में एक अहम फैसला आना है। इन दिनों मीरपुर के सभी 39 कैंपों में इसे लेकर ही चर्चाएं हो रही हैं।
यहां रहने वाले लोग इसलिए परेशान हैं कि नेशनल हाउसिंग अथॉरिटी ने साल 2015 में बाहरी लोगों (ग़ैर बिहारी मुसलमानों) को 99 सालों के लिए प्लॉट एलॉट कर दिया था। इन कैंपों में जिन लोगों के नाम पर प्लॉट्स का आवंटन होगा। वे इसे तोड़कर ऊंची इमारतें बनाएंगे। मीरपुर के कैंपों में ऐसे घरों की संख्या 4000 है। अगर अदालत का फ़ैसला इनके ख़िलाफ़ आया तो इन्हें अपना कैंप छोड़ना होगा।
बिहारी मुसलमानों की कहानी
भारत विभाजन के समय कलकत्ता सांप्रदायिक हिंसा की जद में आया उसके बाद नोआखाली में हजारों लोग दंगे की भेंट चढ़ गए। नतीजतन बिहार में भी भीषण सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। इस तरह साथ मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के बीच खूनी जंग शुरू हो गई। कत्ल-ओ-गारत की इस घटना में लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।
बिहार से लाखों मुसलमान मजहब के नाम पर बने देश पाकिस्तान चले गए, उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान को अपना घर बनाने का इरादा किया था जो आगे चलकर बांग्लादेश बना। ढाई दशकों तक इन लोगों को अविभाजित पाकिस्तान में कोई परेशानी नहीं हुई।
लेकिन 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बंगाली मुसलमान उर्दू बोलने वाले बिहारी मुसलमानों को पराए की तरह देखने लगे। अपने ही देश में उनकी हालत शरणार्थियों जैसी हो गई। हालांकि 2008 में ढाका हाई कोर्ट के आदेश पर तकरीबन डेढ़ लाख उर्दू भाषियों को नागरिकता मिली, पर उनकी दुश्वारियां अब भी बरकरार हैं।
नागरिकता के लिए लड़ना पड़ा था मुक़दमा
साल 1947 से 1971 तक उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान तब अविभाजित पाकिस्तान के नागरिक थे। वे नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान का विभाजन हो और कोई नया मुल्क बने। यही कारण था कि 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान उस वक्त बांग्लादेश में रहने वाले लाखों बिहारी मुसलमानों ने मुक्ति वाहिनी के ख़िलाफ़ पाकिस्तान सेना का साथ दिया।
मुक्ति युद्ध के समय बड़ी संख्या में बिहारी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के हाथों मारे गए। उसके बाद 1973 में त्रि-देशीय समझौता होने के बाद सवा लाख बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के कराची, लाहौर और हैदराबाद में जाकर बसे। अभी फिलहाल ढाका समेत समूचे बांग्लादेश में क़रीब साढ़े सात लाख बिहारी मुसलमान रहते हैं।
बिहारी मुसलमानों को नागरिकता और मताधिकार का हक मिले इस बाबत उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैविलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) ने बांग्लादेश हाईकोर्ट में एक रिट पिटीशन नंबर 11239/2007 (सदाकत खान वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार और चुनाव आयोग वगैरह) दायर किया था। साल 2008 में बांग्लादेश हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग राइट देने का आदेश दिया।
बेगूसराय से ढाका
मोहम्मद गुलाम मुस्तफा पेशे से ऑटो मैकेनिक हैं। 1947 में इनके पिता बिहार के छोटी बलिया (बेगूसराय) से ढाका आए थे। वे बताते हैं कि साल 1973 में बांग्लादेश सरकार और इंटरनेशनल रेडक्रॉस के बीच एक समझौता हुआ था।
"समझौते के तहत ढाका के मीरपुर और मोहम्मदपुर में बिहारी मुसलमानों को बसाया गया था। अब अगर हमसे यह कैंप भी छिन जाएगा तो हमारा परिवार कहां जाएगा।" दस फीट के दो कमरे में गुलाम मुस्तफा अपने चार बेटों और दो बेटियों के साथ रहते हैं।
उनकी पत्नी नसरीन खातून बताती हैं कि घर में जगह नहीं होने की वजह से वे अपने बेटों की शादी नहीं कर रहे हैं। दरअसल, 1971 के मुक्ति युद्ध से पहले ढाका में रहने वाले बिहारी मुसलमान राजधानी के अलग-अलग कॉलोनियों में रहते थे। लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद ढाका में रहने वाले बिहारी मुसलमानों को उनके घरों से बेदखल कर दिया गया। मीरपुर में जहां आज 39 कैंप हैं, वहां पहले एक खुला मैदान था।
इंटरनेशनल रेडक्रॉस की मदद से मीरपुर में पंद्रह-बीस गज के 4000 घर बनाए गए। ढाका में रहने वाले बिहारी मुसलमान 1971 से अब तक उन्हीं घरों में रहते हैं। हालांकि इससे पहले साल 2002 में बांग्लादेश की नेशनल हाउसिंग अथॉरिटी ने मीरपुर कैंप वासियों को बाहर करने की कोशिश की थी।
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद
कुछ ऐसा ही किस्सा मोहम्मद अजीज का है। उनके पिता जाकिर अहमद बिहार के सूर्यगढ़ा स्थित बंशीपुर गांव से 1947 में मीरपुर आए थे। वह बताते हैं कि यहां आने पर पूर्वी पाकिस्तान सरकार की तरफ से पौने दो कट्ठा जमीन आवंटित किया गया था लेकिन मुक्ति युद्ध के बाद बांग्लादेश बनने पर उनसे उनका घर-बार सब छीन गया।
गुलशन खातून के वालिद सैयद आबदीन 1946 में बिहार के मुंगेर जिला स्थित बड़ी बलिया से ढाका आए थे। यह सोचकर कि यहां चैन और अमन के साथ रह सकेंगे। लेकिन 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान बंगाली मुसलमानों ने उनके शौहर मोहम्मद कमाल और भाई मोहम्मद इदरीस का कत्ल कर दिया। वह बताती हैं कि ढाका के मीरपुर कैंप नंबर एक में रहने वाले इक्कीस बिहारी मुसलमानों को जिंदा जला दिया गया था।
अधिकारों की लड़ाई
उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैबिलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) दो दशकों से बांग्लादेश खासकर राजधानी ढाका में बिहारी मुसलमानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इस संगठन के अध्यक्ष सदाकत खान का ताल्लुक बिहार के दरभंगा जिले से है।
सदाकत बताते हैं, "बंटवारे के वक्त नोआखाली में भड़की सांप्रादायिक हिंसा के बाद बिहार के कई जिलों मसलन पटना, गया, भागलपुर, मुंगेर, छपरा और दरभंगा जैसी जगहों पर मजहबी फसाद शुरू हो गए।"
"हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी खासकर मुसलमानों को। लिहाजा हिंसा प्रभावित इन जिलों के मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए लाखों की तादात में पूर्वी पाकिस्तान जाकर बस गए।".. सदाकत खान का रिश्ता दरभंगा जिला अंतर्गत जाले प्रखंड के पठानपट्टी गांव से है। उनके वालिद मोकीम खान साल 1946 में ढाका आकर बस गए।
नई दिल्ली में त्रि-देशीय समझौता
मीरपुर में उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों के 39 कैंप हैं,जहां सबसे अधिक 75,000 लोग रहते हैं। फिलहाल समूचे बांग्लादेश में क़रीब 7,50,000 लाख बिहारी मुसलमान रहते हैं। ढाका के अलावा मोहम्मदपुर में भी 75,000 बिहारी मुसलमान रहते हैं। बांग्लादेश बनने के बाद अब तक 1,25,000 हजार लोग पाकिस्तान गए।
सदाकत खान के मुताबिक, "साल 1973 में बांग्लादेश,पाकिस्तान और भारत के बीच त्रि-देशीय समझौता हुआ। इस समझौते में बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान, जुल्फिकार अली भुट्टो और इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली में इस समझौते पर दस्तखत किए थे।"... "त्रि-देशीय समझौते में उर्दू भाषियों के जान-माल के हिफाजत संबंधी अहम करार हुए थे। इस समझौते के बाद साल 1973 में 550 परिवारों को ढाका से कराची बसाया गया।"
पाकिस्तान का इनकार
सदाकत ख़ान ने बताया, "साल 1993 में बिहारी मुसलमानों का आखिरी जत्था पाकिस्तान गया। उसके बाद ये प्रक्रिया बंद हो गई। पाकिस्तान ने स्पष्ट कर दिया कि उनके जितने लोग बांग्लादेश में थे वे सभी वापस आ गए।"
"जबकि हकीकत यह थी कि साल 1971 के मुक्ति युद्ध की हार के बाद करीब नब्बे हजार पाकिस्तानी बांग्लादेश रह गए थे। उन्हें वापस लाने के लिए पाकिस्तान ने त्रि-देशीय समझौता किया था।"
"जिस समय त्रि-देशीय समझौता हुआ था उस वक्त 5 लाख 26 हजार लोगों ने पाकिस्तान जाने के लिए आवेदन किया था। लेकिन पाकिस्तान ने महज सवा लाख लोगों के आवेदन स्वीकार किए। उनमें भी ज्यादातर सेना और सरकारी कर्मचारी थे।
उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैबिलिटेशन मूवमेंट के सचिव मोहम्मद मंजूर रजा खान बताते हैं, "साल 1996 में पाकिस्तान जाने की एक आखिरी कोशिश की गई लेकिन पाकिस्तान ने दो टूक शब्दों में कहा कि अब उनके लोग बांग्लादेश में नहीं हैं।"
गैर बराबरी के शिकार
राजधानी ढाका के मीरपुर रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान दशकों से गैर बराबरी के शिकार रहे हैं। हालात पहले से कुछ बेहतर जरूर है, लेकिन देश की राजनीति और सरकारी नौकरियों में इनकी भागीदारी सिफर है। इन लोगों को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का समर्थक माना जाता है। बांग्लादेश में इन्हें इसलिए भी हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है, क्योंकि ये लोग पाकिस्तान के विभाजन के खिलाफ थे और इन्होंने मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था।
राजधानी ढाका में बिहारी मुसलमानों की कुल आबादी 1,25,000 हजार है। बंटवारे के समय तकरीबन 20 लाख उर्दू भाषी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) गए थे। वहां जाने वालों में ज्यादातर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमान थे।
बांग्लादेश से पाकिस्तान
25 मार्च 1971 का दिन बांग्लादेश में बिहारी मुसलमानों पर कहर बनकर टूटा। जब बंगाली मुसलमानों ने रंगपुर,दिनाजपुर, मैमन सिंह और चटगांव में बिहारी मुसलमानों पर हमला बोला और बड़े पैमाने पर लोग मारे गए।
लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद जो पाकिस्तान चले गए, उनकी हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं बताई जाती है। मीरपुर सी ब्लॉक कैंप की रहने वाली जमीला खातून बताती हैं, "मेरे चाचा परिवार समेत कराची गए, लेकिन वहां उनकी जिंदगी जहन्नुम बन गई है।"
ये किस्सा कई ऐसे लोगों का है जो बांग्लादेश से पाकिस्तान गए। लेकिन वहां उनकी हालत मुहाजिरों से भी बदतर हो गई। बांग्लादेश बनने से पहले बिहारी मुसलमानों की हालत अच्छी थी। लेकिन बाद में हालात खराब हो गए। बांग्लादेश के बंगाली मुसलमान उन्हें देशद्रोही समझते हैं, जबकि यह पूरी सच्चाई नहीं है।
पुलिस-प्रशासन का रवैया
ढाका में बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों के बीच अक्सर खूनी संघर्ष की घटनाएं होती हैं। कभी त्योहार के नाम पर तो कभी अपनी रवायत के नाम पर। इन घटनाओं में अक्सर कई जिंदगियां जाया होती हैं। हताहत होने वाले ज्यादातर बिहारी मुसलमान ही होते हैं।
साल 2014 की बात करें, मीरपुर कैंप में एक बिहारी मुसलमान परिवार को घर में बंद कर जिंदा जला दिया गया। इस घटना में नौ लोगों की मौत हो गई थी। विवाद शब-ए-बारात के मौके पर पटाखे फोड़ने को लेकर शुरू हुई थी। देखते ही देखते यह खूनी संघर्ष में तब्दील हो गया।
सामाजिक कार्यकर्ता जैनब खातून बताती हैं, "ढाका में बिहारी मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए सिर्फ एक बहाना चाहिए। पुलिस-प्रशासन का रवैया भी बिहारी मुसलमानों के प्रति सकारात्मक नहीं है।"
बिहारी मुसलमानों की समस्याएं
बांग्लादेश में रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती। मुल्क में कई दशकों से रहने के बावजूद उन्हें हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है। सुन्नी मुसलमान होने के बावजूद उर्दू भाषियों से बंगाली मुसलमान शादियां नहीं करते। दरअसल गैर बिहारी मुसलमानों की नजर में बिहारी मुसलमान मुल्क के 'गद्दार' हैं।
इसलिए उनसे किसी तरह का संबंध रखना वह उचित नहीं मानते। ईरानी कैंप में रहने वाली रौशन आरा बताती हैं, "नई पीढ़ी की सोच में थोड़ी तब्दीली जरूर आई है, लेकिन एक-दो शादियों को छोड़ दें तो बिहारी मुसलमानों से कोई रोटी-बेटी का संबंध रखना नहीं चाहता।"
कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
बिहारी मुसलमानों की नागरिकता और मताधिकार का हक मिले इस बाबत उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैविलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) ने बांग्लादेश हाईकोर्ट में एक रिट पिटीशन 11239/2007 सदाकत खान वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार-चुनाव आयोग वगैरह दायर किया था।
साल 2008 में हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग राइट देने का आदेश दिया। अदालत ने ये भी कहा कि जिन लोगों का जन्म 1971 के बाद हुआ है, वे सभी बांग्लादेशी नागरिक हैं और देश की संसाधनों पर उनका बराबर हक़ है। बिहारी मुसलमानों के लिए अदालत का ये फैसला बेहद अहम था। बांग्लादेश की नागरिकता मिलने के बाद पहली बार 2009 के चुनाव में बिहारी मुसलमानों ने वोट दिया था।
चार दशकों से कैंप में...
1971 की जंग में पाकिस्तान की हार और बांग्लादेश बनने के बाद बंगालियों का आक्रोश बिहारी मुसलमानों पर टूट पड़ा। लाखों बिहारी मुसलमानों को अपने घरों और नौकरी से बेदखल होना पड़ा।
उस बर्बर घटना को याद करते हुए उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैविलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) के महासचिव शाहिद अली बबलू बताते हैं, "नया मुल्क बनने के बाद बिहारी मुसलमानों के घरों की तलाशी लेने का फरमान सुनाया गया।"
"पुलिस की मौजूदगी में लोगों को घरों से बाहर एक खुले मैदान में बैठा दिया गया। तलाशी के नाम पर बुजुर्गों और महिलाओं के साथ गलत व्यवहार किया गया। घरों में लूटपाट भी की गई और हम अपने पक्के घरों से बेदखल होकर खुले आसमान के नीचे आ गए।"
"साल 1976 में रेड क्रॉस सोसायटी के सहयोग से ढाका में बिहारी मुसलमानों के लिए कैंप बनाए गए। लेकिन चार दशक बाद भी हमें कैंपों में रहना पड़ रहा है।
पाकिस्तानी सेना का साथ
बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान का समर्थक माना जाता है, लेकिन कई लोग इन आरोपों को सही नहीं मानते। ये सही है कि ज्यादातर बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। लेकिन कई काफी संख्या में वैसे बिहारी मुसलमान भी थे, जो मुक्ति वाहिनी में शामिल होकर पाकिस्तानी फौज का मुकाबला कर रहे थे।
आम लोगों की धारणा है कि बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया, लेकिन कोई यह नहीं कहता है कि बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था, जो मुक्ति युद्ध के खिलाफ रहा। मासूम खान कहते हैं, "युद्ध अपराध में जिन लोगों को फांसी दी गई, उनमें एक भी बिहारी मुसलमान नहीं था और वे सभी बंगाली मुसलमान थे।"
"जमात-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मोतिउर रहमान निजामी बंगाली मुसलमान थे न कि बिहारी। इसके बावजूद बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त कहा जाता है।"
शेख मुजीब की अपील
बांग्लादेश बनने के बाद बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित कर रहे थे। मुक्ति युद्ध के दौरान जिन बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तान का साथ दिया था, उनके बारे में उनका कहना था कि जो बातें बीत गईं हैं, उसे भुला देना चाहिए।
पाकिस्तान का साथ देने वालों को उन्होंने आम माफी देने का ऐलान किया। शेख मुजीब ने कहा था, "बिहारी और बंगाली दोनों अब बांग्लादेशी हैं और पुरानी बातों को याद करने से तकलीफें बढ़ती हैं। इसलिए दोनों कौम एक साथ मिलकर बांग्लादेश की तरक्की में अपना योगदान दें।"
उनकी इस अपील से बिहारी मुसलमानों को काफी हिम्मत मिली और उन्हें अपनी गलती का एहसास भी हुआ। बदकिस्मती से उनकी हत्या ऐसे वक्त हुई, जब बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को उनकी जरूरत थी।
राजनीति में हिस्सेदारी
साल 2008 में बांग्लादेश हाईकोर्ट के आदेश के बाद उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों को नागरिकता और वोटिंग अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन सियासत में उनकी नुमांइदगी अब भी सिफर है। बांग्लादेश सिटी म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में कुल 92 वार्ड हैं, लेकिन एक भी बिहारी मुसलमान वार्ड काउंसलर नहीं है।
जबकि ढाका के कई वार्डों में उर्दू भाषी मुसलमानों की संख्या अधिक है। पहली मर्तबा 2009 के नेशनल असेंबली के चुनाव में इन्होंने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।
उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैविलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) के सचिव मोहम्मद मजूर रजा खान कहते हैं, "ये कहना गलत है कि सभी बिहारी मुसलमान बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के समर्थक हैं। आज काफी संख्या में बिहारी मुसलमान आवामी लीग के साथ भी हैं।"
जिस तरह बांग्लादेश में ये मानने को कोई तैयार नहीं होगा कि हिंदू मतदाता बीएनपी समर्थक हैं। उसी तरह बिहारी मुसलमानों के बारे में कोई ऐतबार नहीं करेगा कि वह आवामी लीग के साथ हैं। उनके मुताबिक बांग्लादेश में बिहारी मुसलमानों को भले ही नागरिकता मिल गई हो लेकिन आज भी वे गैर बराबरी के शिकार हैं। हैरानी की बात है कि बंगाली मुसलमानों को हिंदी फिल्में रास आती हैं लेकिन उर्दू बोलने वाले उन्हें पसंद नहीं हैं।