प्रवासी कविता : त्रिशंकू
- उमेश ताम्बी
ना इधर के रहेना उधर के रहेबीच अधर अटके रहेना इंडिया को भुला सकेना अमेरिका को अपना सकेइंडियन-अमेरिकन बनके काम चलाते रहेना हिन्दी को छोड़ सकेना अंग्रेजी को पकड़ सकेदेसी एक्सेंट में गोरों को कन्फ्यूस करते रहे ना टर्की पका सकेना ग्रेवी बना सकेराम का नाम लेके थैंक्स गिविंग मनाते रहेना क्रिसमस ट्री लगा सकेना बच्चों को समझा सकेदिवाली पर सांता बनके तोहफे बांटते रहेनॉ शॉर्ट्स पहन सकेना सलवार छोड़ सकेजीन्स पे कुरता और स्नीकर्स चढ़ा के इतराते रहेना नाश्ते में डोनट खा सकेपिज्जा पर मिर्च छिड़ककर मजा लेते रहेना गर्मियों को भुला सकेना बर्फ को अपना सकेखिड़की से सूरज को देखकर 'ब्युटीफुल डे' कहते रहेअब आई बारी भारत को जाने कीतो वहां हाथ में पानी की बोतल लेकर चलेना भेलपुरी खा सकेना लस्सी पी सकेपेट के दर्द से तड़पते मरेहरड़े-इसबगोल खाकर काम चलाते रहेना खुड्डी पर बैठ सकेना कमोड़ को भूल सकेबस बीच अधर झुकके काम चलाते रहेना मच्छर से भाग सकेना डॉलर को छुपा सकेनौकरों से भी पीछा छुड़ाकर भागते रहेबस नींदों में स्वप्न देखते रहेया आसमान को ताकते रहेना इधर के रहेना उधर के।