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Written By भाषा

नेल्सन मंडेला मरा नहीं करते...

-वेबदुनिया

नेल्सन मंडेला मरा नहीं करते... -
नेल्सन मंडेला ने जो जिया है, जो कुछ किया है और जो कुछ संसार को दिया है, वह कभी खत्म हो ही नहीं सकता। वह एक ऐसा इतिहास बना गए हैं जिसे कभी खत्म नहीं किया जा सकता है और जो कभी खत्म होगा भी नहीं इसलिए यह कहना कि अफ्रीकी गांधी नेल्सन मंडेला का निधन हो गया है, पूरी तरह सही नहीं है।

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मंडेला का शरीर नहीं रहा लेकिन उनके काम और विचार जिंदा हैं और भविष्य में जिंदा रहेंगे। एक कबीले के प्रमुख गदला हेनरी फाकानयिस्वा के बेटे रोलीख्लाख्ला मंडेला स्कूल जाने वाला अपने परिवार का पहला बच्चा था। स्कूल में ही एक टीचर ने उन्हें नेल्सन नाम दिया।

नेल्सन शाही परिवार से जुड़े थे। पिता की मौत के बाद भी उन्हें अच्छे स्कूलों में जाने का मौका मिला। अच्छी पढ़ाई करने का मौका मिला। स्कूल में उन्होंने बॉक्सिंग खेली, एथलेटिक्स में हिस्सा लिया। लेकिन काला होने का मतलब क्या है, इसका पता उन्हें कॉलेज में चला। एक विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने की वजह से उन्हें सस्पेंड कर दिया। 1940 के दशक में उन्होंने जाना कि जिस अफ्रीका में वह रह रहे हैं, वहां दो दुनिया हैं। एक दुनिया गोरों की है जो राज करते हैं और दूसरी कालों की, जो सिर्फ मरते रहते हैं। मंडेला ने तब भी मरने से इनकार कर दिया था और भेदभाव के अन्यायपूर्ण हालातों से लड़ने का फैसला किया था।

1943 में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का सदस्य बनने के सिर्फ 10 साल के भीतर मंडेला गोरी सरकार के लिए बड़ा खतरा बन गए। उसके बाद तो मंडेला आगे-आगे और पुलिस पीछे-पीछे। कभी वह माली बनकर रहे तो कभी ड्राइवर। लेकिन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की यूथ लीग के प्रमुख के रूप में उनका लोगों को जोड़ने और लड़ने के लिए तैयार करने का काम जारी रहा। वह देश के हर हिस्से में पहुंचे और लोगों को तैयार किया।

वर्ष 1956 में मंडेला 150 लोगों के साथ गिरफ्तार हुए। मुकदमा पांच साल चला और सब छूट गए। तभी एक नरसंहार हुआ। 1960 के इस शार्पफिल नरसंहार में 67 लोगों को कत्ल कर दिया गया। बच्चे, औरतें, बुजुर्ग...सब। मंडेला को लगा कि सिर्फ विरोध से काम नहीं चलेगा। लड़ना होगा और उन्होंने हथियार उठाने का फैसला किया। प्रतिंबंधित अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का हथियारबंद दस्ता तैयार किया गया। जंग की तैयारियों में भागते-छिपते विदेशों में भी घूमे। पैसा जुटाया। मदद जुटाई। लेकिन 5 अगस्त को 1962 को लौटते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

उस दिन के बाद उन्होंने आजादी का सूरज 27 साल तक नहीं देखा। लेकिन कैद का अंधेरा मंडेला के जज्बे को समाप्त नहीं कर सका। वे लड़ते रहे और गोरी सरकार ने उन्हें लुभाने, दबाने, चुप कराने, अपनी तरफ मिलाने के सभी कुछ ‍लेकिन मंडेला अडिग रहे। गोरी सरकार झुकी। मंडेला रिहा हुए। लेकिन उनकी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी। 1990 में 71 साल की उम्र में उन्होंने जंग वहीं से शुरू की, जहां 27 साल पहले छोड़ी थी। लेकिन इस बार उनके अंदर वह ताकत थी जो 27 साल के दमन ने पैदा की थी। चार साल बाद 27 अप्रैल 1994 को नेल्सन मंडेला लोकतांत्रिक अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति बने।

मंडेला ने जो जिया है, वह सिर्फ अफ्रीका के काले लोगों की आजादी की लड़ाई नहीं है। वह अन्याय के खिलाफ हरेक की लड़ाई है। जहां भी, जब भी, जैसे भी अन्याय के खिलाफ कोई जंग लड़ी जाएगी, मंडेला मौजूद रहेंगे क्योंकि मंडेला हर देश, स्थान और समय की जरूरत बन चुके हैं और ऐसे योद्धा मरा नहीं करते वरन अपने पीछे एक ऐसी सम्पन्न विरासत छोड़ जाते हैं जोकि उनके विचारों और कामों को बढ़ाती रहती है।

देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का पद संभालते हुए उन्होंने कई अन्य संघर्षों में भी शांति बहाल करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी। उनके इस योगदान को देखते हुए वर्ष 1993 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जिन लोगों ने उन्हें जेल में बंद रखा, यातनाएं दीं, सत्ता के शीर्ष पर आने के बाद भी उन्होंने उन लोगों के प्रति भी कोई कड़वाहट नहीं दिखाई। पांच साल राष्ट्रपति बने रहने के बाद 1999 में उन्होंने कुर्सी छोड़ी और दक्षिण अफ़्रीका के सबसे प्रभावशाली राजनयिक साबित हुए।

ऐसे लोगों के लिए शरीर ही सब कुछ नहीं होता वरन शरीर अपने उद्देश्यों को हासिल करने का माध्यम भर होता है। ऐसे लोग कभी भी मरा नहीं करते
उन्होंने एचआईवी और एड्स के खिलाफ मुहिम छेड़ी और दक्षिण अफ़्रीका के लिए 2010 के फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी हासिल करने में अहम योगदान किया। कांगो, बुरूंडी और अफ़्रीका के अन्य देशों में शांति बहाल करने की प्रक्रिया में सक्रिय रहे। अपने देश और इसके समाज के बारे में उनका कहना था, "मेरी कल्पना एक ऐसे लोकतांत्रिक और मुक्त समाज की है जहां सभी लोग सौहार्दपूर्वक रहें और जिन्हें बराबर का मौका मिले। ये वो सोच है जिसे हासिल करने के लिए मैं जीना चाहता हूं। लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी तो इसके लिए मैं मरने को भी तैयार हूं।"

नस्लभेद (एपरथाइड) की जड़ें दक्षिण अफ़्रीका में यूरोपीय शासन के शुरूआती दिनों से ही मौजूद थीं, लेकिन 1948 में नेशनल पार्टी की पहली सरकार के सत्ता में आने के बाद नस्लभेद को क़ानूनी दर्जा दे दिया गया। मंडेला आजीवन नस्लभेद के विरोध पर हमेशा अडिग रहे। सरकार से विरोध करने पर जेल में बंद मंडेला के कहा था कि एक बहु-नस्ली दक्षिण अफ़्रीका में यक़ीन रखते हैं और साथ ही उन्होंने व्यक्तिगत औऱ राजनीतिक अनुशासन के महत्व पर भी ज़ोर दिया।

फरवरी 1990 में नेल्सन मंडेला को दक्षिण अफ्रीका सरकार ने जेल से रिहा कर दिया और 1994 में जब मंडेला देश के राष्ट्रपति बने तब तक देश से नस्लभेद समाप्त हो चुका था। अब कानून की नजर में दक्षिण अफ्रीका के सभी लोग बराबर हैं- वो अपनी मर्ज़ी से वोट दे सकते हैं और जैसे चाहें वैसे जी सकते हैं। दुनिया के एक देश में इतना बड़ा परिवर्तन करने वाले मंडेला मात्र एक व्यक्ति नहीं वरन एक ऐसे कर्मवीर विचारक थे जिन्होंने सारी दुनिया में अन्याय, शोषण और रंगभेद के खिलाफ सफल लड़ाई लड़ी और हमेशा के लिए लोगों को संदेश दिया कि किसी भी प्रकार के भेदभाव को सहन नहीं करो और उसका तब तक प्रतिकार करो जब‍तक कि यह समाप्त नहीं हो जाता।

ऐसे लोग केवल अपने महान उद्‍देश्यों के लिए जीते हैं और मरते हैं। ऐसे लोगों के लिए शरीर ही सब कुछ नहीं होता वरन शरीर अपने उद्देश्यों को हासिल करने का माध्यम भर होता है। ऐसे लोग कभी भी मरा नहीं करते।