प्रकाशकों से लेखक असंतुष्ट हैं, क्योंकि वहां पारदर्शिता का संकट है
एक अच्छी कविता हमेशा गद्य की आकांक्षी होती है
कुमार अंबुज की कविता की यात्रा बहुत लंबी रही है। वे अपने समय के बहुत संवेदनशील कवि और लेखक हैं, लेकिन वे मानते हैं कि जैसे किसी लेखक की सामाजिक चेतना होती है, ठीक वैसे ही राजनीति चेतना भी होनी चाहिए। क्योंकि समाज का हर विषय, हर मुद्दा राजनीति से तय होता है या कहीं- कहीं उससे प्रभावित होता है, इसलिए लेखक के राजनीतिक सरोकार भी होने चाहिए। वे कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है कि एक व्यक्ति की सामाजिक चेतना हो और राजनीतिक चेतना न हो। जहां तक लेखन की बात है तो वे गद्य और कविता में ज्यादा भेद नहीं देखते, वे कहते हैं कि एक गद्य की आकांक्षा होती है कि उसमें कविता का निवास हो, इसी तरह एक अच्छी कविता गद्य की आकांक्षी होती है।
वरिष्ठ और सुपरिचित कवि कुमार अंबुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को गुना, मध्य प्रदेश में हुआ। वर्ष 1989 में उनकी किवाड़ शीर्षक से लिखी कविता को भारतभूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार के लिए चुना गया था। अब तक उनके पांच कविता-संग्रह आ चुके हैं। पढ़ते हैं उनका विस्तृत साक्षात्कार। वीडियो में बातचीत यहां सुने
सवाल : आज, वर्तमान दौर के साहित्य को आप कैसे देखते हैं?
जवाब : साहित्य एक अनवरत स्थिति में होता है, उसे नया या पुराना नहीं कहा जा सकता है। साहित्य अपनी परंपरा से पोषित भी होता है और नए आचरण भी करता है। जो हमारा राजनीति और सामाजिक समय होता है, साहित्य उससे मुठभेड़ भी करता है। इसलिए इसे नए और पुराने में नहीं बांटा जा सकता। यह नहीं कह सकते हैं कि 20-25 साल पुराना साहित्य पुराना साहित्य है और अब नया साहित्य है। हां, यह सवाल उठ सकता है कि पहले लिखने के मूल्य क्या थे और अब क्या मूल्य हैं। पहले का साहित्य किन चीजों का ध्यान से संबोधित कर रहा था और अब किन्हें देख रहा है। शेष तो साहित्य को हम एक लंबे दौर के रूप में देखते ही हैं।
सवाल : क्या नए साहित्य के पैटर्न, फॉर्म या शैली में कोई बदलाव आया है?
जवाब : पिछले 30-40 सालों में तो फॉर्म में तो कोई बदलाव नहीं आया है, कुछ चीजों को छोड़ दीजिए तो कोई खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन नए गद्य में कविता ने अधिक जगह बनाई है। यह एक अच्छा लक्षण है। गद्य की आकांक्षा होती है कि उसमें कविता का निवास हो। इसी तरह एक अच्छी कविता गद्य की आकांक्षी होती है। पोएटिक सेंसिबिलिटी के साथ एक गद्य बहुत सारी चीजों को रिविल या उद्घाटित कर सकता है। विष्णु खरे इस बात के लिए जाने जाते रहे हैं, मंगलेश डबराल ने भी गद्य कविता लिखी है, निरा गद्य लिख देना अलग बात है, लेकिन उसमें कविता संभव करना जरूरी है। गद्यात्मकता में होते हुए भी कविता को बचाना जरूरी है।
सवाल : तो इस वक्त कविता की ज्यादा जरूरत है या गद्य की?
जवाब : यह तो कवि और लेखक ही तय करता है, यह पहले से तय नहीं कर सकते, उसका जो कंटेंट है, उसके प्रस्थान बिंदु हैं, विषय की व्यग्रता है, अभिव्यक्ति का जो उसके सामने संकट है, इस पर निर्भर करता है। इसके समाधान में गद्य भी एक उपकरण हो सकता है। कविता और गद्य को मैं बहुत ज्यादा अलग कर के नहीं देखता हूं। श्रेष्ठ साहित्य में गद्य और कविता पास पास रहते हैं।
सवाल : यह नया और बहुत तेजी से भागता हुआ तकनीकी दौर है, क्या इन दिनों मनुष्य की ह्यूमन सेंसिबिलिटी तकनीक की वजह से लेखन से गायब हुई है, या कहीं मिस हो रही है?
जवाब : ऐसे सवालों के जवाब सामाजिक और राजनीतिक दृश्यों में मिलते हैं। साहित्य भी इनसे अलग नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता कि समाज और राजनीति में बदलाव या भागदौड़ आ गई हो और साहित्य में न आई हो। समाज और राजनीति से ही समाज उर्जा लेता है। वहीं से निरीक्षण लेता है और वहीं से संचालित होता है। अपनी दृष्टि के साथ लेखक उसे लिखता है। समाज में उहापोह है, एकल परिवार हैं, मुश्किलें हैं, आर्थिक संकट है, पूंजीवादी समाज या लोकतंत्र की जो समस्याएं हैं, या जो भी समस्याएं हैं यह सब तो लेखन में आएंगी ही।
सवाल : क्या इस दौर में चेतना का अभाव है?
जवाब : चेतना और संवेदना ही मूल कारण हैं जिसकी वजह से ही कोई लिख पाता है, लेकिन वैचारिकता का अभाव नहीं होना चाहिए। विचार के अभाव में कोई बहुत दूर तक नहीं जा सकता। विचार ही दूर तक ले जाता है। मुक्तिबोध की एक बात याद आ रही है मुझे, उनका एक वाक्य है, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना
सवाल : आप किताबों को पढ़े जाने के संकट को कैसे देखते हैं, आजकल सबकुछ डिजिटल है, किताबों की जगह किंडल है, क्या यह किताबों के लिए संकट है?
जवाब : देखिए, आंकड़े तो यह कहते हैं कि किताबों की बिक्री बढ़ी है। प्रकाशक तो यही बताते हैं। हालांकि पुस्तक का विकल्प खोजना मुश्किल है। संसार में बहुत प्रगति हुई, लेकिन हर चीज का विकल्प नहीं है। डंडे की जगह डंडा ही काम आता है, रस्सी की जगह रस्सी और छाते की जगह छाता ही काम आता है। हालांकि किंडल आया है तो उसे आई-फ्रेंडली बनाया गया है। सभ्यता के साथ रूप बदल गया है, लेकिन मनुष्य के जीवन में उनका उपयोग और जनसुलभता भी देखी जाना चाहिए। मुझे लगता है कि किताबों का भविष्य अभी 20–25 साल तो रहेगा।
सवाल : आजकल पढ़ा कम और लिखा ज्यादा जा रहा है, या बगैर पढ़े ही लोग लिख रहे हैं, आप क्या कहेंगे?
जवाब : हां, यह हुआ है। समाज में सांस्कृतिक गिरावट तो हुई है। विकल्प ज्यादा हैं। ऐसे में सोशल मीडिया आपको इतना वक्त नहीं देता कि धैर्य के साथ रुककर सोचा जाए। इसलिए सजग होना होगा कि क्या पढ़ना है, किस लेखक को पढ़ना है। इसलिए सावधानी से सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सवाल : प्रकाशकों और लेखकों के बीच रॉयल्टी का मुद्दा उठता रहा है, हाल ही में विनोद कुमार शुक्ल का मामला उठा था, इस पर आप क्या कहेंगे
जवाब : विनोद कुमार ने इस मुद्दे को सार्वजनिक किया ही है, हम भी समय-समय पर इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। विनोद कुमार शुक्ल की वजह से ही हालांकि यह बातचीत का विषय हो गया। लेकिन मैं मानता हूं कि प्रकाशकों से लेखक इसलिए असंतुष्ट हैं कि इसमें पारदर्शिता का संकट है। क्योंकि आपके पास कोई उपाय नहीं है कि आप जान सकें कि आपके कितने संस्करण निकाले गए। ऐसे में जो प्रकाशक बोलेगा वही आपको मानना है। इसलिए प्रकाशकों की तरफ से पारदर्शिता बहुत जरूरी है।
सवाल : एक लेखक को निजी तौर पर कैसा होना चाहिए, क्या उसके राजनीतिक सरोकार भी होने चाहिए?
जवाब : लेखक कोई पार्टी का नेता न हो तो कम से कम उसके पास राजनीतिक चेतना होना चाहिए। जब सामाजिक चेतना होती है तो राजनीतिक चेतना भी होना चाहिए। टैक्स हो, महंगाई हो, समाज में समरसता हो, सांप्रदायिक मुद्दे हों, नफरत के मुद्दे हों, सब्जी के भाव हों यह सब राजनीति से प्रभावित होते हैं। तो राजनीतिक चेतना या सरोकार भी होने ही चाहिए, क्यों नहीं होने चाहिए।
सवाल : लेकिन इन सरोकारों के अपने खतरे भी हैं, ताजा उदाहरण है सलमान रुश्दी का, उन पर कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया?
जवाब : खतरा तो सड़क पर चलने में भी है, यह तो हिंसा है, किसी ने विचार लिखा तो उसका जवाब विचार से दीजिए। आप सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, उनकी निंदा कर सकते हैं, लेकिन हिंसा नहीं कर सकते हैं। सलमान रुश्दी हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक हैं।
सवाल : आपकी रचना प्रक्रिया क्या है, आप कैसे और कब लिखते हैं?
जवाब : रचना प्रक्रिया को कोई बता नहीं सकता। संसार में किसी लेखक को नहीं पता होता है इसके बारे में। पूछने पर वे हो सकता है कि आदतों के बारे में बताने लगते हों। रचना प्रक्रिया एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। रात में आप सपना देखते हैं, निरीक्षण करते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं, चीजों को देखते हैं, कभी नींद उचट जाती है, फिर बेचैन हो जाते हैं, फिर सुबह उठकर उसे लिखते हैं। रचना प्रक्रिया बहुत सी चीजों से बनती है। यह जटिल प्रक्रिया है। यह स्मृति से भी बनती है। मार्केज कहते हैं मेरी स्मृति ही मेरा औजार है। उसके बारे में हम बता नहीं सकते, हो सकता है उसके बारे में हम सृजनात्मक झूठ बोल देते हों। हकीकत तो यह है कि रचना प्रक्रिया अनवरत, अव्यक्त और अव्याख्य है।
सवाल : आपकी कोई कविता जो आप इस शाम में सुनाना चाहेंगे? मनुष्य के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है
कि जीवन का कोई विकल्प नहीं
मृत्यु भी नहीं
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मैं दीवार पर लगे बल्ब को देखता हूं
और सोचता हूं एडिसन की राष्ट्रीयता के बारे में