कछुए की साँस लेने और छोड़ने की गति इनसानों से कहीं अधिक दीर्घ है। व्हेल मछली की उम्र का राज भी यही है। बड़ और पीपल के वृक्ष की आयु का राज भी यही है। वायु को योग में प्राण कहते हैं।
प्राचीन ऋषि वायु के इस रहस्य को समझते थे तभी तो वे कुंभक लगाकर हिमालय की गुफा में वर्षों तक बैठे रहते थे। श्वास को लेने और छोड़ने के दरमियान घंटों का समय प्राणायाम के अभ्यास से ही संभव हो पाता है।
शरीर में दूषित वायु के होने की स्थिति में भी उम्र क्षीण होती है और रोगों की उत्पत्ति होती है। पेट में पड़ा भोजन दूषित हो जाता है, जल भी दूषित हो जाता है तो फिर वायु क्यों नहीं। यदि आप लगातार दूषित वायु ही ग्रहण कर रहे हैं तो समझो कि समय से पहले ही रोग और मौत के निकट जा रहे हैं।
हठप्रदीपिका में इसी प्राणरूप वायु के संबंध में कहा गया है कि जब तक यह वायु चंचल या अस्थिर रहती है, जब तक मन और शरीर भी चंचल रहता है। इस प्राण के स्थिर होने से ही स्थितप्रज्ञ अर्थात मोक्ष की प्राप्ति संभव हो पाती है। जब तक वायु इस शरीर में है, तभी तक जीवन भी है, अतएव इसको निकलने न देकर कुंभक का अभ्यास बढ़ाना चाहिए, जिससे जीवन बना रहे और जीवन में स्थिरता बनी रहे।
असंयमित श्वास के कारण :
बाल्यावस्था से ही व्यक्ति असावधानीपूर्ण और अराजक श्वास लेने और छोड़ने की आदत के कारण ही अनेक मनोभावों से ग्रसित हो जाता है। जब श्वास चंचल और अराजक होगी तो चित्त के भी अराजक होने से आयु का भी क्षय शीघ्रता से होता रहता है।
फिर व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता है काम, क्रोध, मद, लोभ, व्यसन, चिंता, व्यग्रता, नकारात्मता और भावुकता के रोग से ग्रस्त होता जाता है। उक्त रोग व्यक्ति की श्वास को पूरी तरह तोड़कर शरीर स्थित वायु को दूषित करते जाते हैं जिसके कारण शरीर का शीघ्रता से क्षय होने लगता है।
कुंभक का अभ्यास करें :
हठयोगियों ने विचार किया कि यदि सावधानी से धीरे-धीरे श्वास लेने व छोड़ने और बाद में रोकने का भी अभ्यास बनाया जाए तो परिणामस्वरूप चित्त में स्थिरता आएगी।
श्वसन-क्रिया जितनी मंद और सूक्ष्म होगी उतना ही मंद जीवन क्रिया के क्षय होने का क्रम होगा। यही कारण है कि श्वास-प्रश्वास का नियंत्रण करने तथा पर्याप्त समय तक उसको रोक रखने (कुंभक) से आयु के भी बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। इसी कारण योग में कुंभक या प्राणायाम का सर्वाधिक महत्व माना गया है।
सावधानी :
आंतरिक कुंभक अर्थात श्वास को अंदर खींचकर पेट या अन्य स्थान में रोककर रखने से पूर्व शरीरस्थ नाड़ियों में स्थित दूषित वायु को निकालने के लिए बाहरी कुंभक का अभ्यास करना आवश्यक है। अतः सभी नाड़ियों सहित शरीर की शुद्धि के बाद ही कुंभक का अभ्यास करना चाहिए।
वैसे तो प्राणायाम अनुलोम-विलोम के भी नाड़ियों की शुद्धि होकर शरीर शुद्ध होता है और साथ-साथ अनेक प्रकार के रोग भी दूर होते हैं, किन्तु किसी प्रकार की गलती इस अभ्यास में हुई तो अनेक प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है। अतः उचित रीति से ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
प्राणायाम का रहस्य :
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं। प्राणायम के लगातार अभ्यास से ये नाड़ियाँ शुद्ध होकर जब सक्रिय होती हैं तो व्यक्ति के शरीर में किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता और आयु प्रबल हो जाती है। मन में किसी भी प्रकार की चंचलता नहीं रहने से स्थिर मन शक्तिशाली होकर धारणा सिद्ध हो जाती है अर्थात ऐसे व्यक्ति की सोच फलित हो जाती है। यदि लगातार इसका अभ्यास बढ़ता रहा तो व्यक्ति सिद्ध हो जाता है।