सोमवार, 23 दिसंबर 2024
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Written By Author स्मृति आदित्य

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : एक दिन, स्त्री शक्ति के नाम

International Womens day in Hindi | एक दिन, स्त्री शक्ति के नाम
नारी। सृष्टि के आरंभ से ही रचयिता ब्रह्मा से लेकर देवताओं तक, पौराणिक पात्रों से लेकर राजा-महाराजाओं की सल्तनत तक के लिए कौतुक और विस्मय का विषय रही हैं। नारी, युगों-युगों से जिसे सिर्फ और सिर्फ उसकी देह से पहचाना जाता है। सदियों से उसकी प्रखरता, बौद्धिकता, सुघड़ता और कुशलता को परे रख उसके रंग, रूप, यौवन, आकार, उभार और ऊंचाई के आधार पर परखा गया है।

 
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वही नारफिर खड़ी है एक और दिवस के मुहाने पर। एक और दिन की दहलीज पर। नारी, महिला, औरत, स्त्री, वामा, खवातीन जैसे खुद को संबोधित किए जाने वाले आकर्षक लफ्जों को अपनी हथेलियों में पकड़े वह आज भी इनके अर्थ तलाश रही है।

नारी अस्तित्व के असंख्य प्रश्न, महिला आंदोलनों और जागरूकता के बाद भी उतने ही गंभीर और चिंताजनक हैं जितने सदियों पहले थे। उन प्रश्नों के चेहरे बदल गए हैं, परिधान बदल गए हैं लेकिन प्रश्नों का मूल स्वरूप आज भी यथावत है। आखिर कहां से आएगा नारी से संबंधित समस्याओं का समुचित समाधान।

ना बलात्कार कम हुए हैं ना अत्याचार, ना हत्याएं बंद हुई हैं ना हिंसा। अपहरण हो या आत्महत्या, भारतीय औरत से जुड़े आंकड़ें लगातार बढ़ रहे हैं और प्रशासनिक शिथिलताएं अपनी बेबसी पर शर्मा भी नहीं पा रही है।

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सकारात्मक सोचने की सारी हदें पार कर लें तब भी समाज में व्याप्त नकारात्मकताएं कहीं ना कहीं से आकर घेर ही लेती है। उपलब्धियों पर मुस्कुराने की तमाम कोशिशों पर भारी पड़ती है एक मासूम की मार्मिक चीख।

वह चीख, जो उसकी देह के छले जाने पर आसमान को चीरने की ताकत रखती है लेकिन उन तक नहीं पहुंच पाती जो उसके सम्मान और सुरक्षा के लिए वास्तव में जिम्मेदार है। वह चीख, जो कदम-कदम पर होती सामाजिक बेशर्मी पर उसके ही मन में घुट कर रह जाती है।

दिन-प्रति-दिन चीखते प्रश्नों की भीड़ बढ़ती जा रही है और उत्तरों के 'गंतव्य' सदियों से लापता है।


महिलाओं के प्रति बढ़ती विकृतियों का कारण पुरुष से कहीं अधिक वह सामाजिक सोच है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक स्त्री-पुरुष को अलग-अलग नियमों के खाकों में जकड़ देती है। पुरुष कभी देख-सुन ही नहीं पाता कि स्त्री के भीतर कितना और कैसा-कैसा दर्द रिसता है। भावनात्मक वेदना तो दूर की बात है मनुष्यता के नाते भी स्त्री के प्रति जो गहरी संवेदनशीलता पुरुष मन में उपजनी चाहिए वह नहीं उपज पाती।

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एक चिकित्सक, चाहे वह महिला हो या पुरुष जानते हैं कि प्रसव पीड़ा कितनी सघन होती है। उसे देखने-महसूसने के बाद शायद ही कभी वे अपनी मां का मन दुखा सके होंगे। कहने को यह बड़ा मामूली उदाहरण हो सकता है मगर आत्मिक स्तर पर स्त्री-सम्मान को अनुभूत करने का इससे बेहतर अवसर नहीं हो सकता ‍कि जन्मदायिनी एक जीव को पृथ्वी पर लाने से पहले दर्द की किस इंतहा से गुजरती है।


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हर पुरुष इतना निर्दयी और नासमझ नहीं होता है कि दर्द और प्रताड़ना के फर्क को पहचान ना सके।

जरूरत इस बात की अधिक है कि बलात्कार या इस तरह के दूसरे अनाचारों के पीछे के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों को तलाशा जाए और उनका उपचार किया जाए।

पुरुष मन भी भीगता है, पुरुष भी पसीजता है, पुरुष भी पिघलता है बस उसके मन के किसी कोने में स्त्री-सम्मान का एक तार झनझनाने की देर है, औरत के आदर के प्रति पुरुष बस इतना ही तो दूर है.. महिला दिवस पर कोशिश की जाए कि अवांछनीय शारीरिक दूरी बढ़े इसलिए यह 'दूरी' कम हो।