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वली की ग़ज़लें
पेशकश : अज़ीज़ अंसारी 1.
शग़्ल* बेहतर है इश्क़ बाज़ी का------काम क्या हक़ीक़ी* व क्या मजाज़ी* का-----असली, नक़ली हर ज़ुबाँ पर है मिस्ले-शाना मदाम ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी काहोश के हाथ में इनाँ* न रही--------लगाम जब सूँ देखा सवार ताज़ी* का------ अरबी गर नहीं राज़-ए-इश्क़ से आगाह फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का ऎ वली सर्व क़द कूँ देखूँगा वक़्त आया है सरफ़राज़ी*------सर ऊँचा करने का 2.
मुफ़लिसी सब बहार खोती है मर्द का ऎतबार खोती है क्योंके हासिल हो मुझको जमईय्यत*---------सुकून, क़रार ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है हर सहर* शोख़ की निगह की शराब---------सुबह, सवेरे मुझ अंखाँ का ख़ुमार खोती है क्योंके मिलना सनम का तर्क* करूँ---------छोड़ना दिलबरी इख़्तियार खोती है ऎ वली आब* उस परीरू* की---चमक, परी जैसे मुखड़े वाली मुझ सिने का ग़ुबार खोती है