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मीर की गज़लें
1.
मुँह तका ही करे है जिस तिस का हैरती है ये आईना किस का शाम से कुछ बुझा सा रहता है दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस काफ़ैज़ ऎ अब्र चश्म-ए-तर से उठाआज दामन वसीअ है उसकाताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने हाल ही और कुछ है मजलिस 2.
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की धूम है फिर बहार आने कीवो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर है ये तरकीब जी के जाने कीतेज़ यूँ ही न थी शब-ए-आतिश-ए-शौक़थी खबर गर्म उस के आने की जो है सो पाइमाल-ए-ग़म है मीर चाल बेडोल है ज़माने की 3.
देख तो दिल कि जाँ से उठता है ये धुआँ सा कहाँ से उठता है गोर किस दिल जले की है ये फ़लकशोला इक सुबह याँ से उठता है खाना-ए-दिल से ज़ीनहार न थाकोई ऎसे मकाँ से उठता है बैठने कौन दे है फिर उसको जो तेरे आस्ताँ से उठता है यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है कब ये तुझ नातवाँ से उठता है