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नज़्म : नग़मा-ए-शौक़
शायर - मख़मूर सईदी अब तक आए न अब वो आएँगे, कोई सरगोशियों में कहता है ख़ूगरे-इंतिज़ार आँखों को, फिर भी इक इंतिज़ार रहता है धड़कनें दिल की रुक सी जाती हैं, गर्दिशे-वक़्त थम सी जाती है बर्फ़ गिरने लगे जो यादों की, जिस्म में रूह जम सी जाती है इक सरापा जमाल के दिल में, मोजज़न जज़्बाऎ मोहब्बत है चेहरा-ए-कायनात पर इस वक़्त, अव्वलीं सुबहा की लताफ़त है मुस्कुराकर वो जान-ए-मोसीक़ी, मुझसे दम भर जो बोल लेती हैमुद्दतों के लिए इक अमृत सा, मेरे कानों में घोल देती है हर नज़र में हैं लाख नज़्ज़ारे, हर नज़ारा नज़र की जन्नत है दो मोहब्बत भरे दिलों के लिए, ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है मुस्कुराती हुई निगाहों में, सरख़ुशी का चमन महकता है तेरी इक इक अदा-ए-रंगीं से नश्शा-ए-दिलबरी टपकता है मुद्दतों बाद फिर उसी धुन में, नग़मा-ए-शौक़ दिल ने गाया हैजानेजाँ! तेरे ख़ैरमक़दम को, गुमशुदा वक़्त लौट आया है