सरहदों पर फ़तह का ऎलान हो जाने के बाद, जंग बे-घर, बे-सहारा, सर्द ख़ामोशी की आंधी में बिखर के ज़र्रा-ज़र्रा फैलती है, तेल, घी, आटा खनकती-----चूड़ियों का रूप भर कर बस्ती-बस्ती डोलती है, दिन दहाड़े हर गली कूंचे में घुस कर बंद दरवाज़ों की सांकल खोलती है, मुद्दतों तक जंग घर-घर बोलती है, सरहदों पर फ़तह का ऎलान हो जाने के बाद