कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहां उमीद हो इसकी वहां नहीं मिलता
कहां चिराग जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता