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Written By Author डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

यूपी चुनाव : यह कैसी धर्मनिरपेक्षता

यूपी चुनाव : यह कैसी धर्मनिरपेक्षता - Uttar Pradesh assembly election 2017, Secularism
लोकतंत्र और लोकहित का तकाजा यह है कि चुनाव विकास के मुद्दे पर होने चाहिए। इस आधार पर पांच वर्ष सरकार चला चुकी सरकार का वास्तविक मूल्यांकन होता है। उसके उपलब्धि संबंधी दावों व ज़मीनी हकीकत का आकलन होता है। वहीं प्रतिद्वन्दियों की दलीलों को भी कसौटी पर रखा जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस व बसपा के शीर्ष नेता मजहबी मुद्दे को तरजीह दे रहे हैं। इसमें विकास का मुद्दा पीछे छूट रहा है। इसका दूसरा पक्ष ज्यादा चिंताजनक है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जिस प्रकार की राजनीति कर रही हैं, वैसा ही नजारा उत्तर प्रदेश में दिखाई  देने लगा है।
गौरतलब यह कि अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियां ही इस मोर्चे पर मुकाबला कर रही हैं। सार्वजनिक मंच से मजहब विशेष को नाम लेकर आकर्षित करने का प्रयास किया जा रहा है, कोई उन्हें चेतावनी के अन्दाज में सावधान कर रहा है। कहा जा रहा है कि सपा-कांग्रेस को वोट दिया तो वह बेकार जाएगा। इसके जवाब में गठबंधन के शीर्ष नेता आवाज बुलंद करते हैं। वह कहते हैं कि मजहब के लिए बहुत कार्य किए गए। पुनः सरकार बनी तो इस दिशा अथवा एजेंडे पर तेजी से काम होगा।
 
इसमें दो बातों पर खास ध्यान देना होगा। पहला यह कि न्यायपालिका व निवार्चन आयोग दोनों जाति-धर्म के आधार पर वोट ना मांगने का निर्देश दे चुके हैं। इसके बाद लगा था कि शीर्ष नेता इन संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करेंगे, लेकिन यहां तो सार्वजनिक सभाओं से खुलेआम मजहब विशेष का उल्लेख किया जा रहा है। दूसरी बात यह कि यदि कोई नेता इसकी जगह दूसरे धर्म का उल्लेख करता तो क्या होता? अब तक तो धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाती, सिर पर आसमान उठा लिया जाता। यह कहा जाता कि साम्प्रदायिक शक्तियां हावी हो रही हैं। असहिष्णुता बढ़ रही है। तब शायद सम्मान वापसी का एक नया दौर भी शुरू हो जाता। इलेक्ट्रानिक चैनलों में कई दिन तक बहस होती।
 
धर्मनिरपेक्षता के दावेदार व प्रगतिशील विद्वान मुखर हो जाते। सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला किया जाता, जबकि उनकी सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे साम्प्रदायिकता की श्रेणी में रखा जाए। मोदी पर ऐसे हमले पहली बार नहीं होते। याद कीजिए- बिहार विधानसभा चुनाव के पहले किस प्रकार असहिष्णुता बढ़ने का निराधार अभियान चलाया गया था। साहित्यकारों व फिल्म से जुड़े कई कलाकार इसमें अहम किरदार का निर्वाह कर रहे थे। सम्मान लौटाने का मंचन हो रहा था। जैसे ही बिहार विधानसभा चुनाव समाप्त हुआ, यह अभियान भी दम तोड़ गया। उसके बाद ये साहित्यकार व कलाकार मौन हो गए। आज भी ये मौन तोड़ने को तैयार नहीं हैं।
 
पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सार्वजनिक तौर पर हिंसक बातें करने वाले मजहबी नेताओं का बचाव करती हैं। वे कुछ स्थानों की परंपरागत दुर्गा पूजा पर प्रतिबंध लगाती हैं। इसका उद्देश्य केवल वर्ग विशेष को खुश करना होता है। मालदा में वर्ग विशेष की उन्मादी भीड़ दिनभर लूटपाट करती है, ममता बनर्जी व पुलिस खामोश रहती हैं। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों को मात्र वोट बैंक मानकर ऐलान किए जा रहे हैं। ऐसा कहने वाले सामान्य नेता नहीं हैं। इनकी आवाज पूरी पार्टी के विचार को अभिव्यक्त करती है। राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। सोनिया गांधी की सक्रियता कम होने के बाद अघोषित रूप से वे राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी का भी निर्वाहकर रहे हैं। 
 
अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं, अगली बार के एकमात्र दावेदार भी हैं। मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, पूर्व मुख्यमंत्री हैं अगली बार के लिए  एकमात्र दावेदार हैं। इन तीनों नेताओं की बात काटने की स्थिति में कोई नेता नहीं होता। ऐसे में जब यह मुसलमानों की बात करते हैं तो उसे धर्मनिरपेक्षता कैसे माना जा सकता है? हिन्दू की बात करना साम्प्रदायिकता है। जब कोई नेता हिन्दुओं से वोट देने की अपील करता है तो उसे साम्प्रदायिक व  भगवा आदि नामों से नवाजा जाता है, तब दूसरे समुदाय के लिए ऐसी ही बातें करने वाला धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है?
 
कांग्रेस और सपा का गठबन्धन ही वोट बैंक के आधार पर हुआ था। आज वही बातें खुलकर सामने आ रही हैं। यह कहा जा रहा है कि अल्पसंख्यक वोट विभाजित नहीं होगा अन्यथा कांग्रेस व सपा के गठबन्धन का दूसरा कोई आधार नहीं था। इनकी सभाओं में भाजपा को साम्प्रदायिक बताया जा रहा है। यह सही है कि भाजपा के कई नेता हिन्दुओं की बात करते हैं। इनमें साक्षी महाराज, सुरेश राणा, संगीत सोम, योगी आदित्यनाथ आदि नेताओं का नाम लिया जाता है, लेकिन इनमें से किसी की भी बात को पार्टी का अधिकृत बयान नहीं माना जा सकता। राष्ट्रीय स्तर की बात दूर इनमें से कोई प्रान्तीय स्तर पर अहम दायित्व पर नहीं है। प्रधानमंत्री, भाजपा के राष्ट्रीय व प्रदेश अध्यक्ष ऐसी बातें नहीं करते। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर के नेता मजहब व वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। विडंबना यह है कि इसके बाद भी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जाती है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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