डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
समाज में शिक्षा के समान ही शिक्षक का भी स्थान महत्वपूर्ण है। शिक्षा का कार्य शिक्षक के अभाव में संपन्न नहीं हो सकता। पुस्तकें, सूचनाएं और संदेश दे सकती हैं, किंतु संदर्भों की समायोचित तार्किक व्याख्या शिक्षक ही कर सकता है। शिक्षार्थी के पूर्वज्ञान और सामर्थ्य को समझकर उसके लिए शिक्षित बनाना शिक्षक के ही वश की बात है। इसलिए समाज में उसका स्थान आदरास्पद है और भावी पीढ़ी का निर्माता-निर्देशक होने के कारण वह अन्य समाजसेवियों की तुलना में अतिविशिष्ट भी है।
आज शिक्षा के गुरुतर दायित्व को भी अन्यान्य लिपिकीय-व्यावसायिक कार्यों की भांति एक सामान्य कार्य समझ लिया गया है और इसलिए कुछ निर्धारित प्रमाणपत्रों, उपाधियों के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति कर दी जाती है। उनकी नियुक्ति से पूर्व उनके स्वभाव, कार्य के प्रति समर्पण, मानवीय एवं नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा, छात्रों के प्रति वात्सल्य-भाव जनित उदारता और अनुशासन-प्रियता जैसे आवश्यक गुणों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। परिणामतः ऐसे लोग भी शिक्षक नियुक्त हो जाते हैं, जो कि इस दायित्वपूर्ण, गरिमा-संपन्न पद के लिए उपयुक्त नहीं होते। प्रारंभिक कक्षाओं में बालकों के साथ किया जाने वाला निर्ममतापूर्ण दण्डात्मक व्यवहार और उनके यौनशोषण की निंदनीय दुर्घटनाएं आए दिन समाचारों की सुर्खियां बनती हैं। ये सब शिक्षकों की अविवेकपूर्ण नियुक्तियों के दुष्परिणाम हैं।
जो कार्य जितना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उसके संपादन के लिए उतने ही अधिक योग्य और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्ति की आवश्यकता होती है। शिक्षण भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह केवल सूचनात्मक ज्ञान का हस्तांतरण मात्र नहीं है, बल्कि वर्तमान पीढ़ी के मूल्यनिष्ठ-आचरण का भावी पीढ़ी में प्रतिष्ठापन भी है। विद्यार्थी अपने शिक्षक के कार्य-व्यवहार से प्रभावित होता है, प्रेरणा लेता है। शिक्षक की शिक्षणेतर गतिविधियां भी शिक्षार्थी पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए समाज शिक्षक से रचनात्मक, विवेक-सम्मत और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है, किंतु सामाजिक व्यवस्था ने शिक्षक को जिस सामान्य कर्मचारी का साधारण स्तर प्रदान किया है, उस स्तर पर शिक्षक भी अपनी गरिमा खोकर साधारण वेतनभोगी मात्र सिद्ध हो रहा है।
अंग्रेजी-शासन की देन यह शिक्षा-व्यवस्था शिक्षक, शिक्षार्थी और समाज किसी के लिए भी हितकर नहीं है तथापि हम निरंतर इसी व्यवस्था का अनुसरण करते हुए मानवीयमूल्यों और नैतिक दायित्वों से दूर होते जा रहे हैं। वेतनभत्तों, सुविधाओं, पुरस्कारों आदि के प्रति आग्रही शिक्षक दायित्व-निर्वाह से दूर हो रहा है। इस तथ्य को लक्ष्यकर महात्मा गांधी ने अब से सौ वर्ष पूर्व 20 अक्टूबर, 1917 को भड़ौच में भाषण देते हुए कहा था -‘‘हम जहां-जहां नजर डालते हैं, वहां-वहां दिखाई पड़ता है कि कच्ची नींव पर भारी इमारतें खड़ी की गई हैं। प्रारंभिक शिक्षा के लिए चुने हुए शिक्षकों को शिष्टाचारवश भले ही शिक्षक कहा जाए, परंतु यथार्थ में उन्हें यह नाम देना शिक्षक शब्द का दुरूपयोग करना है।’’ प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों को लेकर की गई यह कटु किन्तु सत्य टिप्पणी आज न केवल प्रारंभिक अपितु माध्यमिक एवं उच्चशिक्षा क्षेत्र में सक्रिय शिक्षकों के लिए भी प्रायः सही सिद्ध हो रही है। यह स्थिति दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है, किन्तु इसके लिए केवल शिक्षक ही नहीं अपितु वे सभी घटक दोषी हैं, जिन्होंने राजनीतिक-दलबंदी, जातिगत-आरक्षण, भाई-भतीजाबाद आदि अनेक स्वार्थ प्रेरित दुरभिसंधियों से प्रभावित होकर शिक्षक पद के लिए सर्वथा अपात्र व्यक्तियों को भी शिक्षक नियुक्त किया।
व्यवस्थागत विसंगतियों और राजनीतिक दबावों के मध्य शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथिविद्वान आदि अनेक संवर्गों-दायरों में विभक्त शिक्षक वर्ग के समक्ष उपस्थित अनेक गंभीर समस्याओं और आक्षेपों के बाद भी सच्चे शिक्षक अपने दायित्वों के प्रति सचेत हैं, समर्पित हैं। यदि प्रशासनिक व्यवस्थाएं उन पर उनसे असंबंधित अन्य शिक्षणेतर कार्यों के निष्पादन का दबाव न डालें और उन्हें उनका नियत कार्य सम्पादित करने के लिए उचित अवसर दें तो शिक्षा क्षेत्र में और भी अच्छे परिणाम सहज संभावित हैं।
जहां तक शिक्षकों के सम्मान का प्रश्न है, वह आशा, अपेक्षा, आग्रह और याचना का विषय नहीं। समाज अच्छे शिक्षक को और कुछ दे न दे, सम्मान अवश्य देता है। शिक्षक का सम्मान दिवस विशेष पर आयोजित कार्यक्रम में किसी बड़े अधिकारी या नेता द्वारा माला पहनाए जाने, प्रमाणपत्र जारी करने अथवा सम्मान राशि प्रदान किए जाने और उसका समाचार छापने से नहीं होता। शिक्षक का वास्तविक सम्मान तो तब होता है जब उसका पढ़ाया हुआ कोई विद्यार्थी, जिसे वह पहचान भी नहीं पाता, उसके समक्ष आकर विनम्र भाव से आदर व्यक्त करता है। ठसाठस भरी बस में उसके लिए अपनी सीट छोड़कर खड़ा हो जाता है, अपने कार्यालय में अधिकारी का सहज अहंकार त्यागकर साधारण से दिखने वाले अपने शिक्षक के समक्ष सार्वजनिक रूप से नतमस्तक हो जाता है। यही अच्छे शिक्षक की वास्तविक कमाई है। उसके विद्यार्थी द्वारा, समाज द्वारा उसका सच्चा सम्मान है और ऐसे सम्मान के लिए किसी शिक्षक-दिवस की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा सम्मान अच्छे शिक्षक नित्य प्राप्त करते रहते हैं। यह अलग बात है कि ऐसे सच्चे सम्मानों के समाचार नहीं छपते। यही अप्रायोजित-अप्रकाशित सहज सम्मान सच्चे शिक्षक की वास्तविक निधि हैं।