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Written By अनिरुद्ध जोशी
Last Updated : शनिवार, 13 अप्रैल 2019 (15:34 IST)

मस्जिद में क्यों रहे साईं बाबा?

मस्जिद में क्यों रहे साईं बाबा? | dwarkamai mosque shirdi
शिरडी में जब साईं बाबा पधारे तो उन्होंने एक मस्जिद को अपने रहने का स्थान बनाया। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया। क्या वहां रहने के लिए और कोई स्थान नहीं था या उन्होंने जान-बूझकर ऐसा किया?
 
 
मस्जिद में रहने के कारण बहुत से लोग उन्हें मुसलमान मानते थे। लेकिन वे वहां रहकर रामनवमी मनाते, दीपावली मनाते और धूनी भी रमाते थे। वे मस्जिद में प्रतिदिन दिया जलाते थे। यह सब कार्य कोई मुसलमान मस्जिद में कैसे कर सकता है?
 
 
दरअसल सांईं बाबा मस्जिद में रहने से पहले एक नीम के वृक्ष के नीचे रहते थे। उसी के पास एक खंडर हो चुकी मस्जिद थी। इस मस्जिद में कोई नमाज नहीं पढ़ता था। नीम के पेड़ के पास ही रुकने के तीन महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन वे नहीं मिले। भारत के प्रमुख स्थानों का भ्रमण करने के 3 साल बाद सांईं बाबा चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आए।
 
 
बारात जहां रुकी थी वहीं सामने खंडोबा का मंदिर था, जहां के पुजारी म्हालसापति थे। इस बार तरुण फकीर के वेश में बाबा को देखकर म्हालसापति ने कहा, 'आओ सांईं'। बस तभी से बाबा का नाम 'सांईं' पड़ गया। म्हालसापति को सांईं बाबा 'भगत' के नाम से पुकारते थे।
 
 
बाबा ने कुछ दिन मंदिर में गुजारे, लेकिन उन्होंने देखा कि म्हालसापति को संकोच हो रहा है, तो वे समझ गए और वे खुद ही मंदिर से बाहर निकल गए। फिर उन्होंने खंडहर पड़ी मस्जिद को साफ-सुथरा करके अपने रहने का स्थान बना लिया। दरअसल, यह एक ऐसी जगह थी जिसे मस्जिद कहना उचित नहीं। इसमें किसी भी प्रकार की कोई मीनार नहीं थी। न यहां कभी नमाज पढ़ी गई।
 
 
दरअसल, उस दौर में शिरडी गांव में बहुत कम लोगों के घर थे। कोई भी व्यक्ति किसी फकीर को कैसे अपने घर में रख सकता था। हां, कोई मेहमान हो तो कुछ दिन के लिए रखा जा सकता है। लेकिन जिसे संपूर्ण जीवन ही शिरडी में गुजारना हो तो उसे तो अपना अलग ही इंतजाम करना होगा। ऐसे में बाबा को एक ही जगह नजर आई जो कि किसी के काम नहीं आ रही थी और वह थी एक खंडहर हो चुकी मस्जिद। वह उस खंडहर में रहने लगे।
 
 
उन्होंने उस खंडहर का नाम रखा द्वारका माई। लेकिन लोग आज भी उसे मस्जिद कहते हैं जबकि मराठी में मशजिद। हालांकि इसे अब मस्जिद कहने का कोई तुक नहीं है। जब वह मस्जिद रही ही नहीं तो क्यों कोई उसे अभी भी मस्जिद कहता है? भक्तों ने उस मस्जिद को बाद में रिपेअर करवा कर एक अच्छे मकान का रूप दे दिया। फिर बाद में उसी के पास बापू साहेब बूटी वाड़ा बनाया गया। वहीं बाबा का समाधि मंदिर बना हुआ है। इसी के प्रांगण में एक हनुमान मंदिर भी है जो बाबा के समय भी विद्यमान था और आज भी है।
 
 
बाबा ने अपने आशियाने द्वारका माई में अपनी यौगिक शक्ति से अग्नि प्रज्जवलित की, जिसे निरंतर लकड़ियां डालते हुए आज तक सुरक्षित रखा गया है। उस धूने की भस्म को बाबा ने ऊदी नाम दिया और वह इसे अपने भक्तों को बांटते थे। जिससे कई गंभीर रोगी भी ठीक हो जाते थे। द्वारका माई के समीप थोड़ी दूर पर वह चावड़ी है, जहां बाबा एक दिन छोड़कर विश्राम करते थे। सांईं बाबा के भक्त उन्हें शोभायात्रा के साथ चावड़ी लाते थे।
 
 
बाबा के पहनावे के कारण सभी उन्हें मुसलमान मानते थे। जबकि उनके माथे पर जो कफनी बांधी थी वो उनके हिन्दू गुरु वैकुंशा बाबा ने बांधी थी और उनको जो सटाका (चिमटा) सौंपा था वह उनके प्रारंभिक नाथ गुरु ने दिया था। उनके कपाल पर जो शैवपंथी तिलक लगा रहता था वह भी नाथ पंथ के योगी ने लगाया था और उनसे वचन लिया था कि इसे तू जीवनभर धारण करेगा। इसके अलावा उनका संपूर्ण बचपन सूफी फकीरों के सानिध्य में व्यतीत हुआ।
 
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