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Written By WD Feature Desk

डिप्रेशन का कारण क्या है और इससे मुक्ति का उपाय क्या है? : गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर

अप्रिय घटनाएं जीवन को अधिक जीवंत बनाती हैं, इन्हें स्वीकार करें

Shri Shri Ravi Shankar
डिप्रेशन का कारण है- सुख की आशा। जब कोई व्यक्ति सुख की आशा पकड़ कर बैठ जाता है और उसे वह सुख मिलता नहीं, ना ही उसके मिलने की संभावना दिखती है तो वह व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है। 
 
कभी-कभार जीवन में अप्रिय घटनाएं घट जाती हैं। जानते हैं क्यों? ये आपको सुख के आयाम से अवगत कराती हैं। मान लीजिए कि आपके जीवन में कभी भी अप्रिय क्षण न आए, तो आपके पास कभी सुखद क्षण भी नहीं होंगे। आप नहीं जान पायेंगे कि सुख क्या है। आपका जीवन बोरियत से भर जाएगा। आप पत्थर के समान हो जाएंगे।  तो, आपको जीवित रखने के लिए, कभी-कभी, यहां-वहां, प्रकृति आपको थोड़ी-सी चुटकी देती रहती है। अप्रिय घटनाएं जीवन को अधिक जीवंत बनाती हैं। इन्हें स्वीकार करें।
 
हमारे भीतर एक ऐसा तत्व है जहां से हमें सुख की अनुभूति होती है और जब भी आपको उसकी थोड़ी भी झलक मिल जाएगी तो आप कभी भी उस चीज को कहीं और ढूंढने नहीं जाएंगे।  इसका एक उदाहरण यह है कि पहाड़ों में रहने वाले लोगों को वहां इतना आनंद नहीं मिलता, इसीलिए आनंद पाने की इच्छा से वे लोग समुद्र के किनारे जाते हैं; समुद्र के किनारे मौसम बढ़िया है, लहरों के सामने उनको आनंद  मिलता है।

और जो लोग समुद्र के किनारे बसे हैं उनको वहां कोई आनंद नहीं आता बल्कि उन्हें पहाड़ों में आनंद आता है! तो वे कुल्लू मनाली, हिमाचल प्रदेश जाना पसंद करते हैं, जहां बर्फ गिरती है। वहां परिवर्तन में उनको सुंदरता का, सुख का अनुभव मिलता है। लोग इसी सुख और सुन्दरता के अनुभव के लिए वस्तुओं, परिस्थितियों, और व्यक्तियों के पीछे दौड़ते रहते हैं लेकिन थोड़े दिन के बाद वह आनंद उन्हें वहां भी नहीं मिलता।
 
मान लीजिए पहाड़ों पर रहने वाले लोग अपना पूरा घर बार बेचकर समुद्र के किनारे गोवा में आ गए। अब गोवा में कुछ दिन तो अच्छा लगा लेकिन साल दो साल के बाद उन्हें लगेगा कि पहाड़ के पास का घर ही अच्छा था, समुद्र के किनारे तो पसीना आता है। इस तरह से बाहर किसी भी परिस्थिति में सुख की अनुभूति नहीं होती।
art of living

अब मन शिमला (पहाड़ों) से तो हट गया पर पूरी तरह से गोवा (समुद्र के किनारे) का आदती नहीं हुआ और इस बीच की अवस्था में मन को सुख की एक झलक मिली। तब हमने सोचा कि सुख शिमला में नहीं गोवा में है। आप जीवन में हर परिस्थिति का विश्लेषण करके देखिये जहां से भी आपको सुख मिलता है, वहां थोड़ी गहराई में जाएंगे तो आप पाएंगे कि आपको वहां सुख नहीं मिलता। 
 
ऐसे ही लोग अपने पार्टनर बदलते रहते हैं। लोग एक पार्टनर के साथ प्रेम में पड़ जाएंगे फिर बस छह महीने, साल भर में कहेंगे कि मैं तो इनके साथ नहीं रह सकता। 
 
यह जो बहिर्मुखता है वह मन का स्वभाव है। जब आप बहिर्मुखता में जाकर सब जगह ठोकर खाकर थक जाते हैं तब मन के अंतर्मुखी होने के सिवाय कोई मार्ग ही नहीं हो सकता। यदि तब भी अंतर्मुखी हो जाएं तो तर जाएंगे। बुद्धिमान चारों ओर देखते हैं। वे सब लोगों का अनुभव, अपना अनुभव मानते हैं। फिर कोई ठोकर खाने की आवश्यकता नहीं है। वे जानते हैं कि इस सब में कोई रस नहीं है और वे अंतर्मुखी हो जाते हैं।  
 
जीवन की नश्वरता को देखिए, वही परम सत्य है। पीछे मुड़कर देखिए, आपने जो कुछ किया वह सब अब स्वप्न के समान है। आप रोए; आप क्रोधित हुए और उत्तेजित भी हो गए, तो क्या हुआ? सब बीत गया, सारी बात समाप्त हो गई। भविष्य में आप शहर के मेयर बन सकते हैं, आप सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकते हैं, आपके पास बहुत सारी संपत्ति हो सकती है, आने वाला कल भी गुजर जाएगा। वर्तमान क्षण, चाहे सुखद हो या असुखद, बीत ही जायेगा।
 
जब आप जानते हैं कि मुझे सुख की चाह नहीं है मगर मैं सुख देने के लिए आया हूं, तो आपके जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। और तब दुनिया में कोई ताकत आपको डिप्रेस कर ही नहीं सकती है। 
 
देखते-देखते सब समाप्त हो जाएगा इसलिए दुनिया भर की शिकायतें, जिससे हम खुद भी दुखी रहते हैं औरों को भी दुखी करते रहते हैं, उसके बदले ये सोचना चहिये कि हम यहां सेवा करने के लिए आए हैं। सेवा करने से फल क्या मिलेगा यह मत सोचिये, सेवा करने का एक अवसर मिला यही फल है। और यदि इसका फल कुछ हो तो आनंद ही है। तो आनंदित हो कर जीवन व्यतीत करना है। 
 
पतंजलि महर्षि कहते हैं 'सर्वमेव दुखं विवेकिनः'- जिनमें विवेक जागृत हो जाता है, उनको लगता है कि सब दुख है मगर वो दुख से भागते नहीं। दुख से वही लोग भागते हैं जो डरते हैं। अपमान से वही लोग भागते हैं  जिनको सम्मान चाहिए। तो कहने का तात्पर्य यही है कि 'खुले रहो, खिले रहो और खेलते रहो।' जीवन एक खेल है। खेल में हार-जीत को लेकर बुद्धिमान व्यक्ति दुखी नहीं होता।
 
मन के स्तर से कोई मन को संभाल नहीं सकता। यही कारण है कि यद्यपि मनोरोग परामर्श आरंभ में सहायक प्रतीत होते हैं, लेकिन लंबी अवधि में यह पूर्ण उपचार प्रदान करने में सक्षम नहीं रहते। केवल स्वयं पर सकारात्मक विचार थोपना ही पर्याप्त नहीं है। अवसादरोधी दवाएं भी केवल शुरुआत में ही सहायता करती हैं और अंततः व्यक्ति को इस प्रवृत्ति से मुक्त करने की बजाय उन पर निर्भर बना देती हैं।
 
यहीं पर सांस के रहस्य को जानना वास्तव में जीवन को बदल सकता है। सुदर्शन क्रिया जैसी श्वास तकनीकें हमारी जीवनी शक्ति को बढ़ाती हैं और परिणामस्वरूप मन को स्थिर करती हैं। ध्यान का प्रभाव धीरे-धीरे जीवन के सभी पहलुओं पर पड़ता है। जैसे ही शरीर में प्राणशक्ति का उदय होता है, व्यक्ति को एक परिवर्तन का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। व्यक्ति अधिक खुश और रचनात्मक होने लगता है और अपने मन और भावनाओं पर अधिक नियंत्रण रखने लगता है।