प्रवासी साहित्य : भय
-सुदर्शन प्रियदर्शिनी
खिड़की के
कांच के पार
अंधेरे में
मेरी अपनी ही
आंखें आर-पार
होती और लौट
कर
मुझे ही देखती हैं-
अपना ही चेहरा
कांच के विरुद्ध
झिलमिलाता
और
अंधेरे को
काटता-पीटता फिर
वापिस अपने
हाथों पर
बैठ जाता-
कैसी ऊहापोह की
स्थिति है कि
बाहर भी
भय और अंदर भी
दोनों भय
मिलकर
ज़िंदगी के
आर-पार
छलांग
लगा रहे हैं
बाहर सिर्फ
भय का
अंधेरा है
(लेखिका कई सम्मानों से सम्मानित सम्प्रति अमेरिका की ओहायो नगरी में स्वतंत्र लेखन में रत हैं।)
साभार- विभोम स्वर