सिद्धारमैया न तो कर्नाटक के ताकतवर लिंगायत समुदाय से आते हैं और न ही वोक्कालिगा से, फिर भी वे एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इसे सिद्धा का करिश्मा ही कहेंगे कि वे 2013 में वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को 'साइडलाइन' कर मुख्यमंत्री बने थे, जबकि इस बार खरगे की मदद से ही डीके शिवकुमार को किनारे कर मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। 2013 में मल्लिकार्जुन खरगे मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार थे।
जनता दल (एस) से कांग्रेस में आए सिद्धारमैया को कांग्रेस के पुराने नेताओं का एक वर्ग पसंद नहीं करता, लेकिन बावजूद इसके कांग्रेस विधायकों के एक बड़े वर्ग के बीच वे काफी लोकप्रिय हैं। कुरुबा समुदाय से आने वाले सिद्धारमैया की 'सोशल इंजीनियरिंग' का भी जवाब नहीं है। कर्नाटक के 'अहिंदा समुदाय' में भी वे काफी लोकप्रिय माने जाते हैं। अहिंदा (AHINDA) का ताल्लुक अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग और दलित समुदाय से है। इस समुदाय का झुकाव सिद्धा की ओर माना जाता है।
सिद्धा का लंबा अनुभव : उनके पास न सिर्फ सरकार चलाने, बल्कि जाति एवं वर्ग के वर्चस्व वाले कर्नाटक में अलग-अलग समुदायों के हितों के बीच तालमेल बैठाने का भी लंबा अनुभव है। कांग्रेस की जीत में अल्पसंख्यक मुस्लिमों ने भी अहम भूमिका निभाई है। दरअसल, भाजपा को 4 फीसदी मुस्लिम आरक्षण हटाने का दांव उलटा पड़ गया। माना जा रहा है कि अमित शाह के भाषणों में बार-बार मुस्लिम आरक्षण हटाने की बात से नाराज मुस्लिम समुदाय कांग्रेस के पक्ष में एकजुट हो गया। आमतौर पर मुस्लिम वोट कांग्रेस और जदएस के बीच बंट जाया करते थे।
करीब 4 दशक लंबा राजनीतिक अनुभव सिद्धारमैया की सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन, इस बार विधानसभा चुनाव में पार्टी अध्यक्ष डीके शिवकुमार ही प्रमुख चेहरा बनकर उभरे थे और मुख्यमंत्री पद के स्वभाविक उम्मीदवार भी थे। लेकिन, किस्मत सिद्धारमैया के साथ थी। शिवकुमार पर ईडी, आईटी और सीबीआई के मामले होने का फायदा सिद्धा को मिला। कांग्रेस ने डीके को मुख्यमंत्री बनाने का रिस्क नहीं लिया। इसके साथ ही सिद्धारमैया ने चुनाव से पहले ही ऐलान कर दिया था कि यह उनका आखिरी चुनाव है। इसलिए न सिर्फ जनता बल्कि विधायकों के एक बड़े वर्ग की सहानुभूति भी उनको मिली।
भारत जोड़ो यात्रा में दिखी ताकत : सिद्धारमैया कर्नाटक कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक हैं। पार्टी मुख्यमंत्री का चयन करते समय उनकी लोकप्रियता व वोट जुटाने की क्षमता को नजरअंदाज नहीं कर सकती थी। क्योंकि अगले लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना भी कांग्रेस का मकसद है। राहुल गांधी के नेतृत्व वाली भारत जोड़ो यात्रा के कर्नाटक में दाखिल होने के समय भी जनता के बीच सिद्धा की लोकप्रियता देखने को मिली थी। कहा जाता है कि उनकी अपील पर बड़ी संख्या में लोग इस पदयात्रा में शामिल हुए थे।
मैसूर जिले के वरुणा होबली के सिद्धारमणहुंडी गांव में 12 अगस्त 1948 को जन्मे सिद्धारमैया ने 1983 में विधानसभा का पहला चुनाव मैसूर के चामुंडेश्वरी से जीता था। उस समय उनकी राजनीति ही कांग्रेस विरोध और खास तौर से इंदिरा विरोध पर टिकी थी। वे अब तक 9 बार विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं। 2005 में देवेगौड़ा ने उन्हें जनता दल से निष्कासित कर दिया और 2006 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था। 13 बार राज्य का बजट प्रस्तुत करने का रिकॉर्ड भी उनके नाम पर है। देवराज अर्स के बाद वे दूसरे ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने 5 साल का कार्यकाल (2013-2018) पूरा किया।
2004 में बने थे डिप्टी सीएम : वर्ष 2004 के विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश मिला था और कांग्रेस-जद (एस) ने गठबंधन सरकार बनाई थी। तब उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया गया था। उस समय सिद्धारमैया की शिकायत थी कि उनके सामने मुख्यमंत्री बनने का मौका था, लेकिन देवगौड़ा ने ऐसा नहीं होने दिया। किसी समय जदएस की कर्नाटक इकाई के अध्यक्ष रहे सिद्धा ने वर्ष 2005 में खुद को पिछड़ा वर्ग के नेता के रूप में पेश किया। इसी दौरान देवगौड़ा के पुत्र एचडी कुमारस्वामी का भी उदय हुआ और सिद्धारमैया को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया।
उस समय आलोचकों ने भी कहा था कि देवेगौड़ा कुमारस्वामी को पार्टी के नेता के तौर पर आगे बढ़ाना चाहते थे, इसलिए सिद्धारमैया को बर्खास्त किया गया। पेशे से वकील सिद्धारमैया ने तब कहा था कि वे राजनीति से संन्यास लेकर फिर से वकालत करना चाहते हैं। उस समय कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही उन्हें पार्टी में शामिल होने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को चुनना बेहतर समझा।
राहुल गांधी के करीबी समझे जाने वाले सिद्धा की सबसे बड़ी ताकत पूरे कर्नाटक में उनका प्रभाव है। इसके पीछे उनका लंबा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव भी है। यही कारण है कि कांग्रेस ने एक बार फिर उन्हें कर्नाटक की कमान सौंपी है।