जानिए क्या है नागरिकता संशोधन बिल और क्यों हो रहा है इसका विरोध
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने के बाद अब मोदी सरकार अपना दूसरा सबसे बड़ा कदम उठाने जा रही है। केंद्र सरकार शीतकालीन सत्र में नागरिकता संशोधन बिल पेश करने की तैयारी में है। आज मोदी सरकार की कैबिनेट इस पर मुहर लगा सकती है।
नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 में लोकसभा में पेश किया गया था जिसके बाद 2 अगस्त 2016 को इसे संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया था। समिति ने इस साल जनवरी में इस पर अपनी रिपोर्ट दी है। आज कैबिनेट की मंजूरी मिलते ही इस बिल को गुरुवार को लोकसभा में पेश किया जा सकता है।
क्या है नागरिकता संशोधन बिल : भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए देश में 11 साल निवास करने वाले लोग योग्य होते हैं। नागरिकता संशोधन बिल में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के शरणार्थियों के लिए निवास अवधि की बाध्यता को 11 साल से घटाकर 6 साल करने का प्रावधान है। नागरिकता संशोधन बिल नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों को बदलने के लिए पेश किया जा रहा है।
नागरिकता बिल में इस संशोधन से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिन्दुओं के साथ ही सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए बगैर वैध दस्तावेजों के भी भारतीय नागरिकता हासिल करने का रास्ता साफ हो जाएगा। उचित दस्तावेज़ नहीं होने पर भी अल्पसंख्यक शरणार्थियों को नागरिकता मिल सकेगी।
हो रहा है विरोध : बिल लाने पर कांग्रेस और टीएमसी आगबबूला हो रहे हैं। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का फाइनल ड्राफ्ट आने के बाद असम में विरोध-प्रदर्शन भी हुए थे। असम में भाजपा के साथ सरकार चला रहा असम गण परिषद (अगप) भी नागरिकता संशोधन बिल को स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहा है।
असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया भी जारी है। ऐसे में नागरिकता संशोधन बिल लागू होने की स्थिति में एनआरसी के प्रभावहीन हो जाने का हवाला देते हुए लोग विरोध कर रहे हैं।
इसलिए हो रहा है विरोध : इसे सरकार की ओर से अवैध प्रवासियों की परिभाषा बदलने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। गैर मुस्लिम 6 धर्म के लोगों को नागरिकता प्रदान करने के प्रावधान को आधार बना कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट धार्मिक आधार पर नागरिकता प्रदान किए जाने का विरोध कर रहे हैं। नागरिकता अधिनियम में इस संशोधन को 1985 के असम करार का उल्लंघन भी बताया जा रहा है, जिसमें वर्ष 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी धर्मों के नागरिकों को निर्वासित करने की बात थी।