गुरुवार, 28 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. समाचार
  3. राष्ट्रीय
  4. Dalit movement
Written By
Last Modified: मंगलवार, 3 अप्रैल 2018 (14:02 IST)

दलित आंदोलन की आग से उपजे सवाल

दलित आंदोलन की आग से उपजे सवाल - Dalit movement
दलित संगठनों ने केन्द्र सरकार पर अनुसूचित जाति/जनजाति (एससी/एसटी) अत्याचार रोकथाम अधिनियम को कमजोर करने का आरोप लगाकर जिस भारत बंद का ऐलान किया वह इतना हिंसक हो जाएगा, ऐसा अंदेशा किसी को भी नहीं रहा होगा। लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि समय-समय पर देश के विभिन्न भागों में दलितों ने अपने उत्पीड़न और अत्याचारों के खिलाफ प्रति‍क्रिया जाहिर की है।   
 
राजस्थान का बाड़मेर हो या मध्य प्रदेश के भिंड, मुरैना जैसे कस्बे जहां राज्य व केन्द्र सरकार के समर्थकों के गुटों जैसे बजरंग दल और दलितों की भीम सेना के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुई। देशभर में 10 से ज्यादा लोग मारे गए। बड़ी संख्या में लोग घायल हुए। तनावपूर्ण हालातों के चलते प्रदर्शनकारियों ने आगजनी की। दलित संगठनों से जुड़े लोगों ने ओडिशा, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में कई जगहों पर ट्रेन सेवाएं बाधित कीं। 
 
पंजाब में सरकार ने हिंसा की आशंका को देखते हुए बस, मोबाइल, इंटरनेट सेवाएं निलंबित रखीं, CBSE की 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं पर भी असर पड़ा। बिहार में भारत बंद का व्यापक असर रहा और दलित समाज के लोगों ने बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरकर अपनी नाराजगी जाहिर की। दलितों के व्यापक विरोध को देखते हुए केन्द्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका की ताकि दलितों की नाराजगी को कम करने की शुरुआत की जा सके। देश का एक बड़ा भाग हिंसा की चपेट में रहा। जनजीवन ठप हो गया।
 
दलित समाज की राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, गृहमंत्री राजनाथसिंह और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दलित प्रदर्शनकारियों से शांति की अपील की। लेकिन जो राजनीतिक या गैर राजनीतिक नुकसान होना था वह तो हो गया। इस विवाद की जड़ में वह फैसला है जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्‍पीड़न रोकथाम) एक्‍ट, 1989 (एससी/एसटी एक्‍ट) से संबंधित एक अहम फैसला दिया था।   
 
सुभाष काशीनाथ महाजन केस में सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि 
1. कई मौकों पर निर्दोष नागरिकों को आरोपी बनाया जा रहा है और सरकारी कर्मचारियों को अपनी ड्यूटी निभाने से डराया जाता है, जबकि यह कानून बनाते समय विधायिका की ऐसी मंशा नहीं थी।
 
2. जब तक अग्रिम जमानत नहीं मिलने के प्रावधानों को 'वाजिब मामलों' तक सीमित किया जाता है और पहली नजर में कोई मामला नहीं बनने जैसे मामलों में इसे लागू नहीं किया जाता, तब तक निर्दोष नागरिकों के पास कोई संरक्षण उपलब्ध नहीं होगा।
 
3. पीठ ने यह भी कहा था कि इस कानून के तहत दर्ज ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, जिनमें पहली नजर में कोई मामला नहीं बनता है या न्यायिक समीक्षा के दौरान पहली नजर में शिकायत दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है।
 
4. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में किसी लोक सेवक या सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकार से मंजूरी और गैर लोक सेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की स्वीकृति से ही की जाएगी, जो उचित मामलों में ऐसा कर सकते हैं। न्यायालय ने कहा कि इसकी मंजूरी देने के कारण दर्ज किए जाने चाहिए और आगे हिरासत में रखने की अनुमति देने के लिए मजिस्ट्रेट को इनका परीक्षण करना चाहिए।
 
5. पीठ ने कहा कि अग्रिम जमानत नहीं देने का प्रावधान उन परिस्थितियों में लागू नहीं होगा, जब पहली नजर में कोई मामला नहीं बनता हो या साफतौर पर मामला झूठा हो। इसका निर्धारण तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार संबंधित अदालत करेगी।
 
लेकिन इस कानून के विरोधियों का कहना है कि
 
1. एससी/एसटी के कथित उत्पीड़न को लेकर तुरंत होने वाली गिरफ्तारी और मामले दर्ज किए जाने को प्रतिबंधित करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस कानून को कमजोर करेगा। जबकि इस कानून का लक्ष्य हाशिए पर मौजूद तबके की हिफाजत करना है।
 
2. इस मामले में सरकार के भीतर भी मुखर विरोध उठा था। बहराइच से भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले, लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान और केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत के नेतृत्व में राजग के एससी और एसटी सांसदों ने इस कानून के प्रावधानों को कमजोर किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चर्चा के लिए पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की थी।
 
दलित समाज का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस कानून का डर कम होने और नतीजतन दलितों के प्रति भेदभाव और उत्पीड़न के मामले बढ़ने की आशंका है। दलित समाज की नाराजगी को दूर करने के लिए मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट इसी दलील का सहारा ले सकती है।
 
वहीं, भारत बंद की अपील करने वाले अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय महासंघ के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव केपी चौधरी का कहना है कि इस कानून से दलित समाज का जो बचाव होता था, वह नहीं हो पाएगा।  एससी/एसटी एक्ट के तहत जो रुकावट थी और इस समाज के साथ ज्यादती करने पर कानूनी दिक्कतें आ सकती थीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ये रुकावटें पूरी तरह खत्म हो गई हैं। इस वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति दुखी और आहत है और खुद को पूरी तरह से असुरक्षित महसूस कर रहा है।
 
दलित नेताओं का कहना है कि गुजरात के ऊना में मारपीट, इलाहाबाद में हत्या, सहारनपुर में घरों को जलाने की घटनाएं, महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलितों के विरोध में हिंसक घटनाओं से देश के विकास के लिए समर्पित समाज के इस वर्ग के लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है।
 
जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित की खंडपीठ के फैसले पर पुनर्विचार के लिए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को याचिका दायर की है और अब यह सुप्रीम कोर्ट पर निर्भर करता है कि इस मामले में उसका क्या रुख होता है? उल्लेखनीय है कि भारत बंद से पहले ही दलित संगठनों का कहना था कि केंद्र सरकार की ये मंशा ही नहीं रही है कि वह समाज के पिछड़े दायरे में खड़े वर्ग को आगे बढ़ने दे। जिस तरह की घटनाएं गुजरात के ऊना में हुईं और उसके बाद उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के अलावा देश के कई हिस्सों में दलितों पर हुए अत्याचारों के बाद सरकार पर सवालिया निशान उठे हैं।
 
बिना किसी राजनीतिक कारणों को सामने रखकर यह कहना गलत न होगा कि देश का बहुत सारे हिस्सों में आज भी दलितों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। लेकिन केन्द्र सरकार का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में इस तरह की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन जो भी हुई हैं उन्हें भी नहीं होना चाहिए था। पिछले दिनों ही गुजरात के भावनगर में एक दलित की इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वह घोड़े की सवारी करता था। साथ ही, इस मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे साबित होता है कि राज्य या केन्द्र सरकार को ऐसी घटनाओं से कोई फर्क पड़ता है? 
 
इसके विपरीत सरकार के मंत्री कहते हैं कि भारत खुला लोकतंत्र है जिसमें सभी को अपनी बात रखने की पूरी आजादी है, लोगों को अपनी बात को लेकर सड़कों पर उतरने को हम गलत नहीं मानते। हां, सरकार का मानना है कि दलितों के सम्मान, उनके आरक्षण को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जोकि सरकारी घोषणाओं और उसकी मंशा पर शक पैदा करती हैं।
 
उत्तर प्रदेश के हाथरस में तथाकथित ऊंची जाति के लोगों से परेशान एक दलित युवक ने सवाल उठाया था कि क्या वह हिंदू नहीं है और क्या उसके लिए अलग संविधान है? संजय कुमार नाम के एक व्यक्ति ने 15 मार्च को हाई कोर्ट से मदद मांगी थी कि वह अपनी होने वाली पत्नी के गांव निजामाबाद में बारात लेकर जा सके जो कि एक ठाकुर बहुल गांव है। गांव के ठाकुरों का कहना है कि जब उनके इलाके वाले रास्ते पर पहले कभी बारात आई ही नहीं तो ये नई मांग क्यों की जा रही है? जो रास्ता दलितों की बारात के लिए इस्तेमाल होता है, वहीं से बारात ले जानी चाहिए।
 
ऐसे बहुत से मामलों को लेकर दलित बेहद आंदोलित हैं। उनकी नाराजगी कई कारणों से अब सड़कों पर नजर आने लगी है और शहरी जीवन को प्रभावित करने लगी है। मुंबई के तमाम लोगों ने हाल ही में इसे महसूस किया। हैदराबाद के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद से पूरे देश में आंदोलन खड़ा हो गया और लोग सड़कों पर आ गए।
 
नई दलित चेतना से देश के साक्षात्कार का यह पहला बड़ा मौका था और इस आंदोलन के परिणामस्वरूप केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की मंत्रालय से विदाई हुई थी। इसके बाद राजस्थान की दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल की लाश जब राजस्थान के बीकानेर में हॉस्टल के पानी के टैंक में तैरती पाई गई, तो ऐसा ही एक और आंदोलन खड़ा हो गया। सरकार को अंतत: सीबीआई जांच का आदेश देना पड़ा था।
 
इसके बाद ऊना में मरी गाय की खाल उतार रहे दलितों की पिटाई का वीडियो जब वायरल हुआ तो इसकी प्रतिक्रिया में गुजरात और पूरे देश में प्रदर्शन हुए। आखिरकार गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को जाना ही पड़ा। कुछ समय पहले भीमा कोरेगांव के सालाना जलसे पर उपद्रवियों के हमले के बाद प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ दलित आंदोलन ने राज्य सरकार की नींद उड़ा दी थी। इसके अलावा छिटपुट आंदोलनों की तो कोई गिनती ही नहीं है, लेकिन भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री मोदी को अगर कुछ राज्यों के मुख्य मंत्रियों को हटाना पड़े तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसी घटना से मोदीजी की एजेंडा ही खतरे में पड़ सकता है?
 
आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि भारत के दलित नाराज हैं और वे अपनी नाराजगी का इजहार भी कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इन तमाम आंदोलनों में एक बात गौर करने लायक है। इनमें से हर आंदोलन उत्पीड़न की किसी घटना के बाद स्वत:स्फूर्त तरीके से उभरा। इनमें से किसी के पीछे कोई योजना नहीं थी और न कोई ऐसा संगठन था, जो इन आंदोलनों को राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय रूप देता। 
 
क्या है भारत बंद के हिंसक होने का कारण?
 
पहले हुए दलितों के ये आंदोलन किसी राजनीतिक दल के चलाए हुए नहीं थे और न कांशीराम जैसे किसी बड़े जमे-जमाए नेता की सरपरस्ती इन आंदोलन को हासिल थी लेकिन फिर भी इतनी बड़ी संख्‍या में लोग सड़कों पर आ गए हैं तो जरूर ऐसा कोई कारण रहा होगा जोकि संघ या भाजपा के नेताओं के लिए नासूर बन सकता है। इंटरनेट और मोबाइल के जमाने में निरंतर सम्पर्क करने की ताकत दलितों के भी हाथों में आ गई है।
 
अगर ऐसा न होता तो रोहित वेमुला की लाश मिलने के अगले दिन दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हड़ताल न हो जाती और सैकड़ों छात्र मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आगे प्रदर्शन के लिए इकट्ठा नहीं हो जाते? आखिर क्या कारण है कि राजस्थान में डेल्टा मेघवाल की लाश मिलने के अगले दिन बेंगलुरु के टाउन हॉल पर लोग इकट्ठा हो जाते हैं और दोषियों को गिरफ्तार करने की मांग करते हैं? 
 
यही सब ऊना कांड और भीमा कोरेगांव की घटना के बाद भी हुआ। हर चिनगारी जंगल में आग लगा रही है पर इन तमाम घटनाओं में यह देखा जा रहा है कि दलित आक्रोश को अखिल भारतीयता हासिल होने में अब देर नहीं लगती है। कई बार यह चंद घंटों में हो जा रहा है।
 
सवाल उठता है कि जब इन आंदोलनों के पीछे कोई राष्ट्रीय या राज्य स्तर का संगठन नहीं है, तो किसके कहने या करने से ये आंदोलन इस तरह का विस्तार हासिल कर रहे हैं? समझ सकते हैं कि दलित उत्पीड़न इस देश के लिए कोई नई बात नहीं है। दलितों के बड़े-बड़े नरसंहार इस देश में हुए हैं। दलितों को मार कर फेंक देने या उनके साथ बलात्कार जैसी घटनाएं होती रही हैं। 
 
लेकिन, अब जो नई चीज हुई है, वह है दलितों की ओर से हो रहा प्रतिकार है। इन आंदोलनों के जरिए दलित यह कह रहे हैं कि सब कुछ अब पहले की तरह नहीं चलेगा। यह दलितों के अंदर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का मामला है। यह उनके नागरिक बनने का मामला है। आप सवाल कर सकते हैं कि प्रतिकार की यह चेतना लोगों के बीच फैल कैसे रही है? खासकर तब, जबकि मुख्यधारा का मीडिया आम तौर पर दलितों की खबरों की अनदेखी करता है, या फिर उनके नजरिए से खबरें नहीं देता? 
 
दरअसल सूचना टेक्नोलॉजी ने इन सबमें अनजाने में एक बड़ी भूमिका निभाई है। पिछले दस साल में लगभग हर गांव-कस्बे तक और कई जगह तो हर हाथ में मोबाइल फोन पहुंच गया है। कह सकते हैं कि लोगों के पास अपनी सूचना-दुख-दर्द-खुशी आदि को बांटने का एक माध्यम मिल गया है। भारत में मोबाइल कनेक्शन की संख्या 100 करोड़ को पार कर चुकी है और मोबाइल फोन ने लाखों गांवों और हजारों शहरों में बिखरे दलितों के दर्द को साझा मंच दे दिया है।
 
दुनिया के विकसित देशों में सोशल मीडिया छोटे स्तर पर कम्युनिटी बिल्डिंग और आपसी बातें शेयर करने का जरिया है लेकिन भारत जैसे विकासशील और गरीब देशों में सोशल मीडिया ने राजनीतिक विचारों और राजनीतिक सवालों में हस्तक्षेप किया है। अरब से लेकर म्यांमार और ईरान से लेकर चीन तक में सोशल मीडिया का एक सामाजिक-राजनैतिक संदर्भ है, भारत भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं है।
 
इसलिए जब इन देशों में कोई आंदोलन खड़ा होता दिखता है तो सरकार सबसे पहले सोशल मीडिया और इंटरनेट पर पाबंदी लगाती है और यह भारत में भी होने लगा है। इतिहास गवाह है कि दलितों को पढ़ने और लिखने का मौका बहुत देर से मिला है। अपनी बात बहुत लोगों तक पहुंचाने के लिए जिन माध्यमों और जिस कौशल की जरूरत होती है, वह उनके पास कुछ दशक पहले तक नहीं था। लेकिन मोबाइल फोन और सोशल मीडिया ने उनके सामने एक मौका खोल दिया है और उनके बीच हो रहे आपसी संवाद की लहर अब बाढ़ का रूप ले चुकी है। इसका दूरगामी असर देश की राजनीति पर भी हो सकता है। 
 
सोशल मीडिया पर सक्रिय दलितों के हजारों व्हाट्सऐप ग्रुप लगातार तमाम तरह की जानकारियां शेयर कर रहे हैं। ये जानकारियां सही भी हो सकती हैं और गलत भी। लेकिन जानकारियों का गलत होना वर्चुअल मीडिया की समस्या है और दलितों के ग्रुप्स के साथ भी अगर यह समस्या है, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं है।
 
फेसबुक पर दलितों और बहुजनों के सैकड़ों ग्रुप है, जिनकी सदस्य संख्या एक लाख से ऊपर है, कई दलित कार्यकर्ताओं के हजारों और लाखों फोलोवर्स हैं। दलितों के सोशल मीडिया में सक्रिय होने से उनके अंदर ग्रुप बनने की प्रक्रिया शुरू हुई है और जो दुख पहले किसी के लिए अकेला दुख होता था, अब उन्हें पता चला कि यह तो हजारों और शायद लाखों लोगों का दुख है।
 
उसी तरह उन्हें पता चला कि वे जिन समाज सुधारकों की जयंती का जश्न अकेले मनाते हैं, वह जश्न तो लाखों लोग मनाते हैं। साझा दुख और सुख और साझा सपनों ने उस समूह को आपस में जोड़ दिया है, जिनके पास पहले एकजुट होने के अपने माध्यम नहीं थे। इसलिए भीम आर्मी जैसी सेनाएं खड़ी होने लगेंगी तो लोकतंत्र के लिए अलग चुनौती खड़ी हो सकती है। हिंसा, आगजनी और अराजकता का दायरा बढ़ सकता है लेकिन यह घटना भाजपा के लिए सबसे ज्यादा अहम है क्योंकि 2014 के आम चुनाव, भाजपा के लिए और न केवल देश की सियासत में बल्कि दलित राजनीति के लिए भी अहम रहा है। 
 
भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 14 सुरक्षित सीटें जीत ली थीं। इसी तरह इस साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उसने अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित 86 में से 76 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि 2014 में बसपा वोट हिस्सेदारी में दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत पाई थी और विधानसाभा चुनाव में 19 सीटों पर सिमटकर रह गई। 
 
चुनावी जीत-हार अलग हैं मगर जमीनी स्तर पर दलित संगठन भाजपा के खिलाफ उभरे हैं। जिस तरह दल की बात को दलित तक पहुंचाने के लिए दलित चेहरे का सहारा लिया जाता है, ठीक उसी तरह दलितों की बात भी दल में सुनी जाए तभी दलित नेतृत्व विकसित हो सकेगा। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बाबत पहल शुरू की हो हां पार्टी ने एक टोकन के तौर पर ऐसे दलित नेता को राष्ट्रपति बनवा दिया जिसे देश के ज्यादातर दलित भी नहीं जानते होंगे।
 
आज देश में दलित हितों से गहरे जुड़ाव वाली कोई स्वतंत्र दलित राजनीति नहीं है और दुर्भाग्य से, दलित नेताओं ने अपने पिछड़ेपन को तो खूब भुनाया मगर दलितों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। इसी तरह आरक्षण की व्यवस्था से उभरे मध्यवर्ग के हित दलित जनता से कुछ अलग किस्म के बन गए। वह अपने हितों के लिए सुविधाजनक ढंग से आंबेडकर के उद्धरण और सांस्कृतिक मसलों को तो उठाता है लेकिन दलितों की जीविका के मुद्दों से कोई वास्ता नहीं रखता। 
 
इसी दौर में ऐसे विरोधाभास भी देखे जा सकते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि राष्ट्रपति चुनाव से ठीक दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के बलिया में एक दलित वृद्ध रिक्शावाले की हत्या कथित तौर पर अपने मेहनताने के महज 10 रु. मांगने के कारण कर दी गई। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, देश में दलितों पर अत्याचार की रोजाना करीब 123 घटनाएं हो रही हैं। दलित शिक्षा, नौकरी और संपत्तियों में हिस्सेदारी में भी औरों से काफी पीछे हैं, ऐसे में दलित राष्ट्रपति का होना दलितों की बहुसंख्यक आबादी के लिए क्या मायने रखता है?
 
दलितों की हालत में तभी दूरगामी परिवर्तन आ सकता है जबकि राजनीति, न्यायपालिका, नौकरशाही, उद्योंगो, यूनिवर्सिटी, सिविल सोसाइटी और मीडिया में एक इंडस्ट्री के तौर दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में निर्णायक प्रतिनिधित्व मिले। इसके साथ-साथ संसाधनों में भी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, जब तक यह नहीं होता, उनका सशक्तीकरण नहीं हो सकता है। हर चीज में दलितों के निर्णायक प्रतिनिधित्व के बगैर बदलाव मुमकिन नहीं है क्योंकि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलितों की कितनी मुखर आवाज बन पाएंगे, यह तो भविष्य ही तय करेगा।
ये भी पढ़ें
कावेरी मुद्दे पर भूख हड़ताल पर बैठे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री