विजय मनोहर तिवारी,
आजादी के बाद से तीन पीढ़ियां इस रोड का इंतजार करते हुए पंचतत्व में विलीन हो गईं। अब जाकर रोड की दस्तक हुई है। कभी यह धूल उड़ाती हुई एक पगडंडी थी। सिर्फ बैलगाड़ियां गुजर सकती थीं। गले में घंटी बजाते बैल उन गाड़ियों में दादा-दादी को लेकर हर गुरूवार कस्बे के हाट बाजार तक ले जाया करते थे। बैलगाड़ियों की कतारें उस दिन सुबह जाती हुई और शाम को लौटती हुई देखी जाती थीं।
फिर साठ के दशक में एक पुरानी बस के निकलने का समय लोगों को पता चल गया। वह गुप्ताजी की बस थी। एक से दो हुईं। दो से चार। तीन दशक में पचास बसें हो गईं। इन्हीं तीस सालों में सरकारी रोडवेज को सरकारों ने बेचकर शानदार दावत मनाई। जब गांव से वह पहली बस चली तो पगडंडी भी पगडंडी नहीं रही। वह डामर की एक ऐसी रोड हो गई जो एक साल चल जाती थी। बारिश के बाद उसकी चमड़ी उधड़ जाती थी। वह पीडब्ल्यूडी की रोड थी।
सरकारें बनने लगीं तो अखबारों से ही लोगों को ज्ञात हुआ कि पीडब्ल्यूडी एक मलाईदार डिपार्टमेंट है। नीचे उपयंत्री से लेकर ऊपर कार्यपालन यंत्री तक और ऊपर शपथ ग्रहण करने वालों तक की तीन-चार पीढ़ियों की समृद्धि में इस रोड ने भी अपना हिस्सा दिया होगा। यंत्रियों ने कागजों पर कुछ बताया होगा। रोड पर कुछ बनाया होगा। पीडब्ल्यूडी का एक नारा साइन बोर्डों पर वेद मंत्र की तरह उतरा था-सौजन्य से सब खुश रहते हैं। सच लिखा था। तहसील कार्यालय से लेकर राजधानी तक सुखद सौजन्य बना रहा। सब खुश रहे। रोड के हिस्से में रोना ही बदा था। वह अपनी किस्मत पर रोती रही। बनती रही। टूटती रही। बिखरती रही।
बारिश के बाद जब डामर की परतें उधड़ जाती थीं तो मजदूर आसपास के खेतों से मिट्टी खोदकर गड्ढों में भरा करते थे। गड्ढों में पड़ी काली मिट्टी काले डामर को मुंह चिढ़ाती थी। ड्रमों में पैक होकर आने वाला काला चमचमाता डामर ऐसा था जैसे इटैलियन फेब्रिक वाला रेमंड का प्रीमियम सूट। तब वह खेतों में पड़ी काली मिट्टी के सामने शान से बिछता था। लेकिन अगली ही बारिश उसकी चमक को चौपट करके चली जाती थी। रोड के घावों में वही काली मिट्टी मरहम बनकर आती थी और डामर को घूरती थी। गुप्ताजी की दो बजे वाली बस के गुजरते ही मिट्टी धूल बनकर उड़ती रहती थी। डामर मुंह छुपाता था।
उपयंत्री कुछ महीनों बाद मरम्मत के लिए डामर के नए ड्रम ले आते थे। कागज पर दस ड्रम आते। रोड को चार मिलते। छह के सौजन्य से सब खुश बने रहे। यंत्री आते रहे। यंत्री जाते रहे। मंत्री आते रहे। मंत्री जाते रहे। रोड की दशा वैसी ही बनी रही। सौजन्य ने सबको एक सूत्र में बांधे रखा। यंत्रियों के परिवार फलते-फूलते रहे। नेताओं-मंत्रियों के परिवारों ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की। सात दशकों तक यह रोड सबको हरा-भरा होते देखती रही।
दादाजी की जिंदगी बैलगाड़ियों में गुजरी। उन्हें तो पगडंडी के आगे किसी रोड की कल्पना तक नहीं थी। अखबार या रेडियो से ही उन्हें पता चला कि देश आजाद हो गया। हो सकता है कि वह अखबार 15 अगस्त 1947 के कई महीनों बाद यहां पहुंचा हो। हो सकता है कि रेडियो पर सुना किसी और ने हो और आजादी की सुनी-सुनाई खबर यहां कुछ हफ्तों या महीनों बाद कोई भूला-भटका रिश्तेदार या मुसाफिर लेकर आया हो। गांव वालों को इसका अहसास इस खबर ने नहीं कराया होगा। उन्हें आजादी का अनुभव दूसरी तरह से हुआ होगा।
गांव एक नवाब की रियासत का हिस्सा थे। नवाब तो नवाब थे। जैसे सुलतान तो सुलतान थे। बादशाह तो बादशाह थे। वैसे ही लोकल लेवल पर नवाब तो नवाब थे। चार-छह पीढ़ी पहले किसी पुराने किले पर कब्जा जमाकर बैठ गए थे। उसके भी चार-छह पीढ़ी पहले से शासन करने वाले किसी राजा को छल-कपट से मारकर या भगाकर काबिज हो गए थे। नवाब के लोग घोड़ों पर आया करते थे फसल में से अपना हिस्सा छीनने के लिए। वे बड़े बेरहम थे। गांव के इज्जतदार लोगों को भी मुर्गा बनाते थे। कोड़े फटकारते थे। गंदी गालियां देते हुए गलियों से गुजरते थे। गांव-गांव में उनकी कड़वी यादें पुराने लोगों को अब तक याद हैं। नवाबों को कोई रोड नहीं बनानी थीं। वे महल, मकबरे और मस्जिदें बनाते थे। बेगारी के लिए गांवों से ही गरीबों को घेर लाते थे।
घूरे के दिन भी फिरते हैं। एक दिन पगडंडी के दिन भी फिर गए। यह आजादी का ही अनुभव था कि सरकार ने जैसी भी सही सड़क बना दी। महीनों तक गिट्टी फैंकी गई। हफ्तों तक लाल मुरम पटकी गई। रोड रोलर ने एक जैसा करने में कई-कई दिन लगाए। गांव वालों को भरोसा हुआ कि कुछ बदल रहा है। नवाब के बदतमीज घुड़सवार भी गायब हो गए। फिर नवाब साहब भी कब्र में जाकर सो गए। छीनाझपटी का जमाना चला गया। वसूली के नियम बदल गए। एक रोड बन गई, जिस पर साइकलें चलने लगीं। बैलगाड़ियों के बाद दो पहियों का यह चमत्कार भी शान की सवारी जैसा था। गुप्ताजी की बसें बाद में दौड़ीं। फिर जीपों और मोटरसाइकलों ने भी बदलते हुए जमाने की आहट गांव को सुनाई।
हर बारिश में टूटकर बिखरने वाली रोड को भी संजीवनी का इंतजार बना रहा। पीडब्ल्यूडी के कारीगरों को इससे कोई मतलब नहीं था। बजट में उनके हिस्से के कमीशन उन्हें खुशहाल बनाए रहे। नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक एक शानदार संतुलन उनके बीच कायम रहा। मलाईदार विभाग यूं ही तो नहीं कहा गया होगा।
दो साल पहले एक दिन गांव वालों ने पहाड़ी पर जाकर देखा। रोड की इस पुरानी करुण कथा में एक जोरदार धमक देखी। जैसे ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में देखते रहे गांव अचानक थ्री डी मूवी का आनंद लेने लगें। एक मजबूत, चौड़ी और शानदार रोड दूर से आती नजर आई। देखा कि बड़ी-बड़ी मशीनें प्रकट हो रही हैं। भीमकाय डंपर मलबा ढोकर बुनियाद बनाते हुए आगे चल रहे हैं। मिक्सर और रोड रोलर परेड में पीछे हैं। मोटी गिट्टी और पतली गिट्टी की परतों के बाद पानी से समतल किया जा रहा है। सबसे बाद में करीने से डामर की कुछ सेहतमंद परत चढ़ाई जा रही है। जैसे हनुमान जयंती के प्रसाद में बरफी पर चांदी का बर्क चढ़ रहा हो।
पहाड़ी पर माताबाई का पुराना चबूतरा था। पुराने रोड की तरह वह भी जीर्णशीर्ण हालत में था। नए रोड की गांव के पास आहट सुनकर गांव वालों ने खुशियां मनाईं। माताबाई चबूतरे से ही देखकर उनका दिल बाग-बाग हो गया। सबने मिलकर इस रोड के स्वागत के लिए एक यज्ञ की योजना बनाई। रोड सरकते हुए गांव की तरफ आता गया। यज्ञ की तैयारियां जोर पकड़ती गईं। गांव भर ने योगदान दिया। जब रोड की दस्तक गांव में हुई तो आठ दिन के नौ कुंडीय यज्ञ की धूमधाम दिखाई दी। माताबाई का चबूतरा भी नए रोड के स्वागत में सजाया-संवारा गया। अब वह एक चबूतरा ही नहीं था। वह एक छोटे से मंदिर का रूप ले चुका था, जिस पर चटख रंग थे। माताबाई की मूर्ति को चबूतरे से यहां प्राण प्रतिष्ठित किया गया। यज्ञ की पूर्णाहुति हुई। रोड गांव से आगे गुजर गया।
गांव के लोग पहाड़ी से इस नए बनते रोड को इस कोने से उस कोने तक निहार रहे हैं। वे अपने दादा-परदादा को याद कर रहे हैं, जो बैलगाड़ियों में गुरूवार के हाट में दस किलोमीटर दूर जाते-जाते ही गुजर गए। बदहाल और बीमार रोड का इस्तेमाल गांव वालों ने सिर्फ शहर जाने के लिए ही किया था। वह प्रस्थान था। आगमन नहीं। गांव खाली होते गए। रोड वहीं का वहीं रहा। गांव और पिछड़ते गए।
अब यह नया रोड है। यह उन लोगों को एक आमंत्रण भी दे रहा है, जो कभी गांव से निकलकर शहर की भीड़ में गुम हो गए थे। वह खस्ताहाल रोड एक डरावना सपना था। न कोई शिक्षक गांव में आकर रहने को तैयार था, न डॉक्टर, न कारोबारी। नेता वोट मांगने आते थे। अफसर कभी नहीं आते थे। उन्हें उनके हिस्से दफ्तरों की टेबल पर ही मिलते थे। यह रोड अब सबको न्यौता दे रहा है। गांव के लोग पहाड़ी पर खड़े लौटने वालों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी राय है, वेबदुनिया से इसका संबंध नहीं है)