भारत और पाकिस्तान के ख़ुफ़िया विभाग के दो सेवानिवृत्त प्रमुखों की एक पुस्तक 'स्पाई क्रॉनिकल्स' का विमोचन पिछले माह 23 मई को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई दिग्गज कांग्रेस के नेताओं की उपस्थिति में दिल्ली में हुआ।
आम पाठकों में जिज्ञासा इसलिए अधिक थी कि दो दुश्मन देशों के प्रतिद्वंद्वी ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारी एकसाथ आए इस पुस्तक में अपना योगदान देने के लिए। इन दो अधिकारियों में एक थे अमरजीत सिंह दौलत, जो 1999 से 2000 तक भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के प्रमुख थे और दूसरे थे असद दुर्रानी, जो 1990 से 1992 तक पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख थे। सेवानिवृत्त होने के पश्चात पिछले दशक में दुर्रानी, भारत के साथ पिछले दरवाजे से होने वाली कूटनीति के भी सक्रिय सदस्य रहे थे।
ध्यान देने वाली बात यह है कि ये दोनों अधिकारी इस पुस्तक के लेखक नहीं हैं। इन दोनों महारथियों से साक्षात्कार और एकसाथ बातचीत के माध्यम से पत्रकार आदित्य सिन्हा ने इस पुस्तक को संकलित किया है। जब हमने इस पुस्तक में सनसनीखेज खुलासों को तलाश करने की कोशिश की तो सिफर ही हाथ लगा। कुछ हलके-फुल्के खुलासे जरूर हैं किंतु वे विस्फोटक की श्रेणी में नहीं आते। संवेदनशील मुद्दों पर बातें भी हुईं किंतु दो परिचित बुद्धिजीवियों में होने वाली बातों से अधिक कुछ नहीं है जिनमें अटकलें अधिक हैं। अत: सनसनी तलाशने के लिए यदि यह पुस्तक पढ़ी जाए तो निराशा ही हाथ लगेगी। सनसनी मात्र इतनी ही है कि दो दुश्मन देशों के सर्वोच्च ख़ुफ़िया एजेंटों को आमने-सामने बैठाकर इस पुस्तक को लिखा गया है।
पुस्तक ने भारत में कम, पाकिस्तान में तहलका अधिक मचाया। मीडिया ने दुर्रानी को देशद्रोही तक करार दिया। आईएसआई ने उन्हें तलब कर लिया और उनके पाकिस्तान से बाहर जाने पर रोक लगा दी। मज़े की बात यह रही कि इस पुस्तक के विमोचन में कांग्रेस के कई नेता उपस्थित थे, यद्यपि उनकी उपस्थिति का तर्क समझ से परे है। चूंकि दोनों को सेवामुक्त हुए लंबा अर्सा हो चुका है अत: वर्तमान परिप्रेक्ष्य और घटनाओं में उनकी जानकारी मात्र अटकलों की तरह ही हैं या उस तरह कि जैसे कोई एक रक्षा विशेषज्ञ किसी घटना या कूटनीतिक चाल का विश्लेषण करता है।
केवल उनकी बातों से घटनाओं को देखने के दोनों पहलू समझ में आते हैं फिर चाहे पठानकोट हो, उड़ी का हमला हो या सर्जिकल स्ट्राइक। उनकी अंतरदृष्टि और संस्थागत अनुभव, भारत और पाकिस्तान के बीच की कूटनीतिक चालों को परिप्रेक्ष्य में जोड़ती है जिन्हें कई बार हम अलग तरीके से सोचते और समझते हैं, चाहे फिर नवाज़ शरीफ का भारत आना हो या मोदीजी का पाकिस्तान जाना हो। जिन्हें कूटनीतिक चालों को गहराई से समझने में रुचि है उनके लिए पुस्तक दिलचस्प है।
हमारी थोड़ी उत्सुकता भारत के अजित डोभाल के बारे में जानने की थी कि पाकिस्तानी जनरल उनके बारे में क्या कहते और सोचते हैं। मीडिया में तो डोभाल की छवि भारत में एक हीरो की है वहीं पाकिस्तानी मीडिया में एक शैतान की। यद्यपि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी उन्हें शैतान के रूप में तो नहीं देखती किंतु शातिर दिमाग जरूर मानती है और जासूसी की दुनिया के श्रेष्ठतम खिलाड़ियों में से एक। जब पाकिस्तानी जनरल से पूछा गया कि मोदी की पाकिस्तान नीति के बारे में क्या कहेंगे? तो उनका उत्तर था भारत की पाकिस्तान नीति 'अजित डोभाल' है। न उसके आगे न उसके पीछे।
उनके मंतव्य के अनुसार डोभाल मोदी का साया भी हैं और सोच भी। एक घटना का जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि जब उड़ी हमलों के पश्चात एक बैठक बुलाई गई जिसमें पाकिस्तान के 6 राजनयिकों को डोभाल ने आमंत्रित किया था तो डोभाल ने स्पष्ट लफ्जों में उन्हें चेतावनी देते हुए कहा था कि हम आप लोगों पर नज़र रखे हुए हैं और यदि उड़ी हमलों में पाकिस्तान के किसी सरकारी विभाग का हाथ पाया गया तो वे परिणाम के लिए तैयार रहें। डोभाल ने इन राजनयिकों को बिना हाथ मिलाए रुखसत कर दिया। संदेश को स्पष्ट और सीधे देने का तरीका डोभाल जानते हैं।
जब पुस्तक प्रकाशन में थी, तब पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में जंजुआ थे। पुस्तक से यह तो स्पष्ट है कि पाकिस्तानी विशेषज्ञ यह तो मानते हैं कि इन दोनों की जोड़ी, मोदी और डोभाल की जोड़ी के सामने कहीं नहीं ठहरती। अब तो नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री पद से हट चुके हैं किंतु जंजुआ अभी भी सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं।
पाकिस्तानी जनरल उनकी डोभाल से तुलना करते हुए कहते हैं कि डोभाल के प्रखर और चतुर दिमाग के सामने जंजुआ कहीं नहीं लगते। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो इस पुस्तक में है कि अटल बिहारी वाजपेयी को आज भी एक बेहतर प्रधानमंत्री के रूप में जाना जाता है और उनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है, वहीं मोदीजी से थोड़ा खौफ, थोड़ी डाह (ईर्ष्या), थोड़ा द्वेष है। पाकिस्तानी यह मानते हुए भी कि वे जो कर रहे हैं, अपने देश के लिए कर रहे हैं किंतु कूटनीति में मोदीजी की उपलब्धियों की सराहना की अपेक्षा किसी पाकिस्तानी से करना तो कुछ ज्यादती ही होगी।
संक्षेप में, उक्त चर्चित पुस्तक बहुत खुलासे तो नहीं करती किंतु अधिक खुलासों के द्वार तो खोलती ही है। पाठकों को जानकारी भी देती है कि कूटनीति के दायरे में कैसे पैंतरे चले जाते हैं। इस बात से भी हमें संतोष होता है कि भारतीय कूटनीति हर दायरे में इक्कीसी सिद्ध हो रही है।