इसी पोहे पर सेंव वालों, नुक्ती वालों, प्याज वालों, नींबू वालों और जीरावन वालों की लाइफ लाइन जुड़ी हुई है। एक पोहा ही वो इंजन है जो इन सबके जीवन के डिब्बों को आगे खींचता है। इसलिए इंदौर में पोहे का मतलब सिर्फ स्वाद ही नहीं, किसी का पेट भी है। यानि ये खाने वालों की आत्मा को तृप्त करता है तो वहीं बनाने वालों के पेट को भरता है।
पोहा इंदौर की सुबह होने का एक प्रतीक है। पोहे की भाप से उठते धुएं से ही पता चलता है कि इंदौर की सुबह हो गई। किसी इंदौरी की आंख खुलती है तो उसका पहला कदम पोहे की ठेले की तरफ ही होता है। दूसरे शहरों में लोग सुबह उठकर प्रभू का नाम लेते हैं, लेकिन यहां लोग सुबह उठकर सबसे पहले पोहे का ही नाम लेते हैं।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंदौर में पोहे को लेकर दीवानगी किस हद तक है। इसी दीवानगी ने पोहे को हर जगह वर्ल्ड फेमस बनाया है।
लेकिन सवाल यह है कि आखिर इंदौरी पाहे को लेकर इतने पजेसिव और प्रेमी क्यों हैं। इसके पीछे के तर्क भी दरअसल हल्के नहीं हैं। एक तो पोहे का स्वाद, उसमें प्याज का साथ और इंदौरियों की सबसे प्रिय सेंव और बूंदी। इसके बाद जीरावन की मार।
इसके बाद जिस प्रेम से गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले में जो पोहे बनाए जाते हैं वो देश के किसी दूसरे शहर में नजर नहीं आएंगे। न इतनी तादात नजर आएगी, न इंदौर वाला स्वाद और न ही पोहा बनाने वाले भिया का प्रेम।
इसी पोहे की वजह से इंदौर के एक पूरे वर्ग की रोजी-रोटी का इंतजाम होता है। वो सुबह सिर्फ दो घंटे के लिए पोहा का ठेला लगाता है और चमत्कारिक ढंग से अपने परिवार की गुजर-बसर करता है।
इसी पोहे पर सेंव वालों, नुक्ती वालों, प्याज वालों, नींबू वालों और जीरावन वालों की लाइफ लाइन जुड़ी हुई है। एक पोहा ही वो इंजन है जो इन सबके जीवन के डिब्बों को आगे खींचता है। इसलिए इंदौर में पोहे का मतलब सिर्फ स्वाद ही नहीं, किसी का पेट भी है। यानि ये खाने वालों की आत्मा को तृप्त करता है तो वहीं बनाने वालों के पेट को भरता है।
खाने वालों के लिए तो सहुलियत से भरा ये इंदौरी पोहा दुनिया में कहीं और नहीं मिलेगा। या तो घर पर बन जाता है या घर से निकलते ही पहली दुकान जो नजर आती है वो पोहे की होती है। इसलिए यह सभी तरह के नाश्तों का विकल्प है। जब कहीं कुछ नहीं होता या मिलता है तो पोहा होता है।
पोहे के एक छोटे से ठेले के आगे सारे साउथ इंडियन और चाइनीज फूड के ठेले मक्खी मारते हुए नजर आते हैं।
इसकी खासियत है कि यह अकेला भी जोरदार है और इसके साथ कचोरी या जलेबी रख दी जाए तो यह इंदौर वालों के स्वर्ग बन जाता है। यहीं से उसका मुक्ति का सफर शुरू हो जाता है।
शायद इसीलिए इंदौरियों के लिए स्वर्ग और नर्क की अवधारणा सिर्फ पोहे में है। सुबह ऑफिस जाने से पहले रस से भरी दो जलेबियों के साथ पोहा उसके लिए स्वर्ग है तो किसी दिन अगर वो पोहा न खाए पाए तो समझो नर्क।
पिछले कई सालों में इंदौर का पोहा विकसित होकर ठेलों और छोटी दुकानों से बड़े रेस्टोरेंट और फूड स्टेशनों में भी पहुंच गया है। लेकिन उसकी आत्मा वैसी ही है। वही स्वाद है, वही रंग है और वही अहसास। हालांकि सालों पुरानी पोहे की वही तासीर और सुगंध ढूंढने के लिए इंदौर के दीवाने इंदौर की पुरानी गलियों और नुक्कड़ों में पहुंच जाते हैं। इसलिए आज भी यहां उस्सल पोहा भी दम भरता है यानि इंदौर में पाहे ने सड़क, चौराहे से लेकर रेस्टोरेंट में भी चिरकालीन कब्जा कर रखा है, इंदौर के दिल में तो खैर पोहा है ही।
(पोहा दिवस पर पोहा खाते हुए पोहे पर लिखा गया इंदौरी का एक पोहाभरा आलेख)