पाकिस्तान के लिए आतंकवाद भस्मासुर बन चुका है। वहां आतंकी हमलों का अनवरत सिलसिला चलता है। मस्जिद, बच्चों के स्कूल सहित कोई भी सार्वजनिक स्थल इससे सुरक्षित नहीं है। लेकिन इस आधार पर पाकिस्तान को आतंकवाद से पीड़ित नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह सीमापार के आतंकवाद से परेशान नहीं है। उसने खुद इस समस्या को जन्म दिया, उसे पालने-पोषने का काम किया।
आज विभिन्न आतंकी संगठन केवल शिया-सुन्नी आधार पर ही विभाजित नहीं हैं वरन इनमें आपसी वर्चस्व को लेकर भी हिंसक झड़पें हुआ करती हैं। इसके तहत एक-दूसरे की मस्जिद में नमाज अदा करते लोगों को भी बम विस्फोट से निशाना बनाया जाता है।
वस्तुत: यह पाकिस्तानी सियासत, सेना व सत्ता का गुनाह है जिसका परिणाम अब खुलकर सामने आने लगा है। दशकों पहले जब आतंकी तत्व सिर उठा रहे थे, तब इन्हें 'जिहादी' माना गया। सेना, सत्ता, सियासत का इन्हें संरक्षण मिला। अमेरिका ने भी अपने हित के तहत इसे सहायता दी। तब आतंकवाद को सीमापार निर्यात करने की रणनीति बनाई गई थी। ऐसा होता भी रहा, लेकिन आज समूचा पाकिस्तान आतंकवाद की गिरफ्त में है। पहले वहां के राजनीतिक दलों व नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया, उनका बचाव किया।
आज स्थिति यह है कि आतंकियों के खिलाफ बोलने की उनकी हिम्मत नहीं है। वे बहुत मजबूत हो चुके हैं। यदि शुरुआत में ही आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की जाती तो आज स्थिति इस तरह नियंत्रण के बाहर नहीं होती। मतलब साफ है- सेना, सियासत व सत्ता किसी ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया। अमेरिका को भी दोष देना व्यर्थ है। पाकिस्तान ने खुद आतंकवाद को संरक्षण देने के लिए अपनी जमीन खोल दी, अमेरिका ने उसका उपयोग किया। उसने इसे अपनी विदेश नीति का हिस्सा बना लिया। पाकिस्तान खुद ऐसा चाहता था। ये बात अलग है कि बाद में यही आतंकवाद अमेरिका व यूरोप तक पहुंच गया।
यहां कहने का तात्पर्य यह है कि सियासत व सत्ता में इच्छाशक्ति के अभाव ने आतंकवाद को पनपने का अवसर दिया। इसी के चलते आतंकियों व उनकी मदद करने वालों का मनोबल बढ़ा। ऐसा नहीं था कि आतंकी संगठन एकदम से ताकतवर बन गए थे। समाज के एक वर्ग की भी इनको सहायता मिली थी। इन समर्थकों के खिलाफ भी कार्रवाई की जाती तो आतंकियों की कमर शुरुआत में ही टूट जाती।
इस हकीकत को जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में देखना होगा। भारत के लिए अच्छी बात यह है कि यहां की सेना पाकिस्तान जैसी नहीं है। वह सियासत से दूर ही रहती है। राजनीतिक सत्ता फैसले लेती है, सेना उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जान की बाजी लगा देती है।
लेकिन हमारे यहां वोट बैंक की राजनीति ने समस्या को बढ़ाया है। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई तक की बात सीमित नहीं है। उनको संरक्षण देने वालों के खिलाफ भी उतनी सख्ती दिखाने की आवश्यकता थी। लेकिन जब ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है तो वोट बैंक की राजनीति बाधक बन जाती है। मुंबई में 26/11 हमले के समय भी ये तथ्य सामने आए थे कि समुद्र के रास्ते आए आतंकियों को कतिपय स्थानीय लोगों की सहायता मिली थी।
जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत नेताओं, अलगाववादियों व पत्थरबाजों ने सीमापार के आतंकवादियों का मनोबल बढ़ाने का काम किया है। ऐसे तत्वों के खिलाफ भी कठोर कार्रवाई करने का समय आ गया है। पिछली सरकारों में हुर्रियत के अलगाववादियों को भी राजनीतिक महत्व मिलता था तथा वे दिल्ली आकर अपनी हैसियत और उपस्थिति का एहसास कराते थे।
लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार उनकी असलियत सामने ला रही है। इस दौरान उनका हौसला पस्त है, लेकिन पत्थरबाजों को आगे करने की कुटिल चाल ने समस्या को बढ़ाया है। जब भी इनके खिलाफ कार्रवाई की बात चलती है तो कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस आदि पार्टियों के नेता हंगामा करने लगते हैं।
यहां नेशनल कॉन्फ्रेंस व भाजपा गठबंधन की सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। यह सही है कि दोनों पार्टियों की पृष्ठभूमि में जमीन-आसमान का अंतर रहा है लेकिन इस सरकार का गठन जनादेश के अनुरूप न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत हुआ है। इस सरकार ने अलगाववादियों का मनोबल बढ़ाने वाला कोई कार्य नहीं किया है।
इस संदर्भ में सेना प्रमुख बिपिन रावत का बयान उल्लेखनीय है तथा प्रत्येक देशभक्त व्यक्ति को इसका समर्थन करना चाहिए। उन्होंने सेना पर पत्थर फेंकने, आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में बाधा उत्पन्न करने वालों को भी आतंकी मानने की बात कही थी। सेना प्रमुख का यह बयान सुझाव की भांति था।
फैसला सरकार को करना है, लेकिन यह आपत्तिजनक था कि कांग्रेस व नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उनके पीछे पड़ गए। जद (यू) नेता केसी त्यागी भी पीछे नहीं रहे। ये वही नेता हैं, जो पत्थरबाजी से घायल होने वाले सैनिकों के प्रति कभी इतने परेशान नहीं देखे गए। घायल सैनिकों को अस्पताल ले जाने वाले को भी ये पत्थरबाज आगे बढ़ने से रोकते हैं।
अमेरिका व यूरोपीय आदि देशों में इसे अक्षम्य अपराध माना जाता। वहां कोई नागरिक ऐसी शर्मनाक हरकत नहीं कर सकता। राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई पर वहां सवाल नहीं उठाए जाते। सभी राजनीतिक दलों की उस पर सहमति होती है, लेकिन भारत में सेना प्रमुख के बयान की जिस प्रकार आलोचना की गई वह शर्मनाक थी।
आतंकियों को सुरक्षित रास्ता देने व सेना के सामने बाधा उत्पन्न करने वालों के साथ कोई रियायत नहीं होनी चाहिए। ऐसे तत्वों का बचाव करने वाले वोट बैंक के लिए देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं, इन्हें पाकिस्तान से सबक लेना चाहिए। ऐसी ही सियासत ने उसे बर्बाद कर दिया।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)