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Written By Author सुशोभित सक्तावत
Last Modified: मंगलवार, 21 नवंबर 2017 (19:32 IST)

पद्मावती : एक "ज़ख़्मी सभ्यता" के मनोजगत में निहित अतीत के प्रेत

पद्मावती : एक
अगर सिनेमा यक़ीन दिलाने की कला है तो परदे पर दिखाए जा रहे दृश्य के प्रति इस कलारूप का यह अलिखि‍त आग्रह हमेशा रहता है कि जो दिखाया जा रहा है, उस पर विश्वास किया जाए। सिनेमा दर्शक के "वास्तविकता के विचार" को सीधे-सीधे संबोधित करता है। और इन्हीं मायनों में कलात्मक स्वतंत्रता एक लोकप्रिय दायरे में चाहकर भी "एब्सोल्यूट" नहीं होने पाती है।
 
क्योंकि, अमेरिका में कभी भी हिटलर को किसी ऐसे वीर योद्धा की तरह नहीं दिखाया जाएगा, जिस पर स्त्र‍ियां रीझती हों!
 
अरब में कभी पृथ्वी, प्रताप, शिवाजी जैसे हिन्दू योद्धाओं पर वैसी फ़ि‍ल्में नहीं बनाई जाएंगी, जिनमें एक मुख्यधारा का सितारा उनकी भूमिका निभाए! 
 
और भीषण कलात्मक स्वतंत्रता लेने के बावजूद कभी परदे पर यह नहीं दिखाया जाएगा कि जिस स्त्री के साथ बलात्कार किया गया हो, वह अपने साथ बलात्कार करने वाले व्यक्त‍ि पर आसक्त थी!
 
अब सवाल यह पूछा जा सकता है कि फ़िल्म देखे बिना आप कैसे जानेंगे कि फ़िल्म में वैसा कुछ है या नहीं, और अगर हो भी तो क्या सड़कों पर सिनेमा की सेंसरशिप कब से स्वीकार्य होने लगी।
 
इसमें अव्वल तो मैं आपको ये बताऊं कि रॉबेर ब्रेसां की फ़िल्म थ्योरी में एक शब्द आता है "मॉडल", जो ये कहता है कि किसी पात्र के लिए किसी अभिनेता विषय का चयन एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रस्थान होता है, और मेरा मत है कि "पद्मावती" को लेकर भड़के आक्रोश का एक कारण यह भी है कि ना केवल खलनायक के रूप में मुख्यधारा के एक सितारा अभिनेता का चयन किया गया है, बल्कि उसका व्यक्त‍ित्व नायक की भूमिका निभा रहे अभिनेता से कहीं अधिक प्रभावी भी है और खलनायकों के नायकों से अधिक लोकप्रिय सिद्ध होने के अनेक मिथक सिनेमा की दुनिया में प्रचलित हैं। कल्पना कीजिए, अगर खलनायक की यही भूमिका गुलशन ग्रोवर निभा रहे होते?
 
दूसरे, निश्च‍ित ही सड़कों पर सिनेमा की सेंसरशिप संभव नहीं है और ना ही हिंसक घटनाएं जायज़ हैं, किंतु हिंसा तो नक्सली भी करते हैं, उग्रवादी भी करते हैं और अलगाववादी भी करते हैं। जब ये लोग हिंसा करते हैं तो उनके प्रति उदारवादी बुद्ध‍िजीवियों में सहानुभूति की एक भावना लक्षित होती है और वे कहते हैं कि इस हिंसा के पीछे जो ऐतिहासिक कारण हैं, वे भी तो देखिए। उसी तर्ज पर उनसे पूछा जा सकता है कि वैसे "ऐतिहासिक कारणों" की पड़ताल "पद्मावती प्रसंग" में हो रही हिंसा में क्यों नहीं की जा सकती?
 
क्योंकि, भले ही संजय लीला भंसाली ने वीएस नायपॉल को ना पढ़ा हो, किंतु नायपॉल ने बहुत ही उचित शब्दों में भारत को एक "ज़ख्मी सभ्यता" की संज्ञा दी है। भारत का एक रक्तरंजित इतिहास रहा है, जिसमें उसे छला गया है, रौंदा गया है, कुचला गया है, अपमानित किया गया है, तोड़ा और बांटा गया है। इतिहास के सहानुभूतिपूर्ण पुनर्लेखन के बावजूद लोकस्मृति में वह सब अक्षुण्ण रह गया है। आज "पद्मावती प्रसंग" में जो कुछ हो रहा है, वह एक "ज़ख़्मी सभ्यता" की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, और वो उचित हो, अनुचित हो, ये और बात है, किंतु आप ये नहीं कह सकते कि ये आक्रोश फ़र्ज़ी है। उसके पीछे ठोस ऐतिहासिक घृणाएं हैं, जिनसे केवल छलपूर्ण बुद्ध‍िविलास करने वाले ही नज़रें चुरा सकते हैं!
 
कहा जा रहा है कि अभी यह तय नहीं है कि पद्मावती ऐतिहासिक चरित्र थी या मिथक, लेकिन इसके बावजूद लोकमानस में उसकी छवि की एक स्वीकार्यता और उस स्वीकार्यता का अपना एक आधार तो है ही। फिर, मिथक ही हमारे लिए कब अमूर्त रहे हैं। तमाम धर्म-संप्रदाय मिथकों और पौराणिक कल्पनाओं में ही तो अपना आलंबन पाते रहे हैं और उनके साथ छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकते।
 
माना जा सकता है कि अगर संजय लीला भंसाली ने पद्मावती और खलनायक के बीच स्वप्न में भी कोई प्रणय दृश्य फ़िल्माया हो तो उन्होंने अभी तक उसे निकाल दिया होगा और वे कह रहे हैं कि अब वैसा कोई दृश्य फ़िल्म में नहीं है। प्रणय तो दूर, आक्रांता मृत देह को भी छू तक नहीं सके, इसीलिए प्रचलित किंवदंती के अनुसार पद्मावती ने चित्तौड़ के दुर्ग में जौहर कर लिया था। यह किंवदंती सदियों से भारतीय लोकमानस पर शुचिता, वीरता और नैतिकता के एक मानक की तरह हावी रही है। और इससे जो लोकभावना प्रसूत हुई है, उसे आप टीवी स्टूडियो में बैठकर सिरे से निरस्त नहीं कर सकते।
 
इससे पहले भी "पद्मावती" पर फ़िल्में बनाई गई हैं, जैसे कि 1961 में "जय चित्तौड़" और 1964 में "महारानी पद्म‍िनी", लेकिन वे मूल किंवदंती के अनुकूल थीं और दर्शकों ने उनका भरपूर स्वागत किया था। "कूद पड़ी थीं जहां हज़ारों पद्म‍िनियां अंगारों में" जैसे लोकप्रिय गीत लोकमानस में वस्तुगत सत्य की तरह ही स्वीकार किए जाते रहे हैं, इसे याद रखा जाए।
 
मैंने फ़िल्म का ट्रेलर देखा है और उसे बहुत प्रभावी पाया है। मैंने "घूमर" गीत देखा है और उसे अत्यंत ही मनोहारी माना है। यहां मैं आपको बता दूं कि कश्मीर समस्या पर मेरे जो विचार हैं, उन्हें मैंने अतीत में विस्तार से व्यक्त किया है और इसके बावजूद मैंने उससे विपरीत विचार व्यक्त करने वाली विशाल भारद्वाज की फ़िल्म "हैदर" को पसंद किया था, क्योंकि सिनेमाई क्राफ़्ट के मानदंड पर वह एक श्रेष्ठ कृति थी। किंतु "क्राफ़्ट" को इतना महत्व देने वाला हर कोई तो सुशोभित जैसा होता नहीं है!
 
इतने परिश्रम से बनाई गई यह मनोहारी फ़िल्म रिलीज़ हो तो इससे मुझे आपत्त‍ि नहीं है। किंतु इससे एक "ज़ख़्मी सभ्यता" के मनोजगत में निहित अतीत के प्रेत अगर जाग जाते हैं तो उस परिप्रेक्ष्य को भी आप अपनी सुविधा के अनुसार बुहार नहीं सकते हैं।
 
मैं उस कलात्मक स्वतंत्रता का पक्षधर हूं, जिसने पश्चिम को "द पैशन ऑफ़ क्राइस्ट" और "द गोस्पेल ऑफ़ जॉन" जैसी फ़िल्में दी हैं। किंतु तब, कलात्मक स्वतंत्रता के दायित्व का निर्वाह "क्राइस्ट" और "पद्मावती" ही क्यों करें, क्यों ना इसे और व्यापक बनाएं और विभिन्न धर्मों के अवतारों और पैग़म्बरों के जीवन पर फ़िल्में बनाई जाएं? यह बिलकुल संभव है, केवल कलात्मक साहस दिखाने की आवश्यकता है।
 
मुझे वैसी सर्वस्वीकार्य और सर्वधर्मसमभाव वाली कलात्मक स्वतंत्रताओं की प्रतीक्षा "पद्मावती" की रिलीज़ के बाद हमेशा ही रहेगी। अस्तु।
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