और कितना वहशी होगा ये समाज? क्या सच में इंसानियत बाकी है...मां, बहन और बेटी वाले सारे डायलॉग्स अब पुराने हो चुके हैं और अपना भाव भी खो चुके हैं। अब लोग दूसरों की इज्जत तो क्या, खुद अपनी ही बहन बेटियों को नहीं छोड़ रहे और ये प्रमाण दे रहे हैं, कि वे अब इंसान नहीं रहे, बल्कि जानवर से भी बदतर हो चुके हैं। क्योंकि समझदारी की उम्मीद तो हम जानवरों से भी करते हैं, और यकीन मानिए वे कई बार समझदारी दिखाते भी हैं।
फिलहाल तो मामला बुलंद शहर की उस घटना है का है, जिसमें बदमाशों ने एक परिवार को हाइवे पर रोककर न केवल बदसलूकी की, बल्कि उनकी इज्जत से लेकर रूह तक को तार-तार कर दिया। हाइवे से गुजरती पुलिस की गाड़ी को वे सिर्फ चुपचाप देखते रहे, लेकिन उन्हें किसी तरह की मदद न मिल सकी।
परिवार के पुरुषों के साथ मारपीट हो या महिला और बच्ची के साथ बलात्कार...किस कदर पत्थर बन सहा होगा उन्होंने। सोच कर सिर्फ घिन ही नहीं आ रही बल्कि बार-बार ये सोचकर रूह कांप रही है, कि क्या ये सच में किसी इंसान की ही संतान होंगे, जो अपनी बावलेपन, हवस, दरिंदगी और पशुता को निभाने के लिए एक बार नहीं सोचते? आखिर कौन सा नशा है जो इन हैवानों के सिर चढ़कर बोलता है...? और क्या उस नशे की कीमत, किसी जिंदगी और इंसानियत से भी बड़ी है...?
जब भी इस तरह के लोगों की मानसिकता पर विचार किया जाता है, तो एक बहस हमेशा छिड़ती है, कि गलती किसकी? महिलाओं की या पुरुषों की? महिलाओं की मर्यादा की या पुरुषों की नीयत की? दरअसल, यहां महिलाओं की गलती नहीं, बल्कि बदमाशों की मानसिकता की है, लेकिन फिर भी ....इस मानसिकता के पीछे असल दोषी कहीं ना कहीं महिलाएं ही है। प्रत्येक महिला की न सही, लेकिन हां, गलती उन महिलाओं की है, जो समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझ नहीं पाई हैं या समझना ही नहीं चाहती...।
एक स्त्री होने के नाते समाज को कैसे बनाया और संवारा जाता है, वह शायद समझ ही नहीं पा रही...वह ये नहीं समझ पा रही कि शिशु की इंसान या पशु, सिर्फ संस्कारों से बनाया जा सकता है और इन संस्कारों का बीज एक स्त्री की कोख से जन्म लेता है...आखिर कहां कमी रह रही है, जो इस तरह की मानसिकता पैदा हो रही है, जो जिंदगी को मौत से बदतर बना दे...?
गलती महिलाओं की है जो अपनी संतान को इंसान नहीं बना पा रही...उसे दर्द बांटना और समझना नहीं सिखा पा रहीं, संवेदनाओं का महत्व नहीं सिखा पा रही। संवेदनाएं सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं बनी। बल्कि इंसान बने रहने के लिए पुरुषों में भी संवेदनाओं का होना और उसका महत्व जानना आवश्यक है।
क्या दुनिया की हर महिला अगर अपनी संतान की सही परवरिश करे, कच्ची मिट्टी के समान उसके कच्चे मन मस्तिष्क में सही संस्कारों को आकार दे, तो क्या वहशियत का विकास संभव है...? हमें नींव को पोषित करना होगा, ताकि फल में मिठास हो, ना कि कड़वाहट...। पहली गलती पर थप्पड़ हो या न हो, लेकिन गलती न करने वाले संस्कार या पहली गलती के प्रति जिम्मेदारी और समझ जरूर हो।
हर स्त्री को अपनी इस सृजनशीलता की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, ताकि इस देश में या दुनिया में कहीं भी, अभिमन्यु, भरत जैसी संतान हो न कि पशु समान...। इसके लिए स्त्री को अपने मन, मस्तिष्क और देह को भी उसी उत्कृष्ट विचार, मानसिकता और पवित्रता के साथ साथ पोषित करना होगा...बस यही है महिलाओं की गलती...और कहीं नहीं।