वसंत की गमक और बजट की धमक
यूं तो बसंत और बजट की राशि एक है, पर देखिए दोनों में कितना भेद है। एक के आने की आहट में जहां “धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार, कोई आता है” का सुरूर है, तो दूजे के आगमन में “अरे दीवानो मुझे पहचानो” का शोर है। एक की आमद में मादकता है, सौंदर्य है, तो दूजे में भय और आशंका। लगता है कि बजट की मारक क्षमता को ढंकने के लिए यह सुहाना मौसम चुना गया है। पहले तो बजट बसंत, फाग के मिलन अवसर पर यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता था, लेकिन अबकी बार बसंत और बजट की आमद एक साथ होने जा रही है। अहा ! कितना अच्छा नाम सुझा वासंती बजट। गजब का कलर सेंस... केसरिया भात सा केसरिया बजट। वासंती गमक शायद बजट की धमक को भी मादक बना दे।
इधर नोटबंदी के भयानक बम के बाद जनता टुकुर-टुकुर हो अगले धमाके की बाट जोह रही है। अब धमाके ही तो होते रहते हैं, थोड़े-थोड़े दिनों में मानो पक्ष और विपक्ष में होड़ लगी है - “तेरा धमाका मेरे धमाके से बड़ा कैसे”, और बजट कोई छोटा मोटा धमाका तो है नहीं। इसकी आवाज तो हर कहीं सुनाई देती है। और मंत्री महोदय जो हैं, वो बड़े प्रेम से मुस्कुराते हुए गेंदे के फूल की तरह एक-एक नियम मारते रहते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि “फूल गेंदवा न मारो लगत करजवा में चोट" और उनकी यह चोट बड़ी मारक होती है।
बजट तो बजट है, चाहे बसंत में पेश करो या जेठ में, आपके आंकड़ों में लाभ हानी होती होगी, आम जनता के जीवन में नहीं। आप उसे चाहे बसंत और वेलेंटाइन के दोगुनी शुगर कोटेड रेपर में पेश करो, पर वह तो आम जनता के लिए सेंटर शॉक की तरह ही बाल खड़े करने वाला अनुभव रहता है। आप हलवा सेरेमनी मनाओ और खूब हलवा खाओ, पर उस हलवे की सुगंध हम तक भी पहुंचे कुछ ऐसा जतन करो जी मंत्री जी। एक तरफ प्रेम ऋतू कहती है कि जीवन सिर्फ जोड़ घटाव गणित नहीं है, उसी ऋतु में कठिन गणित में लोगों को उलझा सारे रोमांस का कबाड़ा कर देते हैं। प्रौढ़ अपने टेक्स को, बुजुर्ग अपने बजट को और युवा वेलेंटाइन डे पर दिए जाने वाले गिफ्ट की बढ़ती कीमतों को साधने की जुगत में भिड़े दिखते हैं। जिससे बात करो वह "कर ले जुगाड़ कर ले, कर ले कोई जुगाड़" के गुनतारे में दिखता है।
अबकि बार जब देखा, वे रहस्यपूर्ण तरीके से अपनी गोल्डन फ्रेम के चश्मे में से अपनी घोर चिंतनशील आंखें घुमा-घुमा कर बातें कर रहे हैं और कह रहे हैं - "नथिंग कैन बी चेंज्ड इन अ मोमेंट, यू नो , गवर्नमेंट इस ट्राइंग इट्स बेस्ट" तो बावरा मन तो सपने देखने का आदि है ही, सोच रहा है शायद वह बीमार अर्थव्यवस्था को बहुत सारी कड़वी गोलियां और पथ्य देने के बाद “इस बार कुछ मीठा हो जाए” की तर्ज पर देश का मुंह मीठा करवा दे।