वैसे तो लड़कियों का जन्मदिन मनाना उनको पैदा करने के पाप के बाद पुन: घोर पाप करने जैसा ही कृत्य था। शायद आज भी ये पाप प्रथा उतनी ही ताकत से कहीं-कहीं छोड़कर सभी जगह जीवित है। जन्मदिन मनाने का हक केवल लड़कों को प्राप्त था। घर वाले भी उन्हीं का जन्मदिन मनाते थे।
मुझे तो अपनी बहनों की जन्म तारीख तक याद नहीं रही थी अब। अपनी सबसे बड़ी बहन को पिछले साल जीवन में पहली बार बधाई दे पाई, जब वो 60 पार हो चलीं। वो भी तब जब वो फेसबुक पर चलता है न 'टुडे, बर्थ डे' उस पर देखा। मतलब हमारे भी पैदा होने की तारीख और सन् तो याद हुआ करते थे वर्ना लड़कियां तो 'बेमन' और 'कोटेम' की पैदाइश ही होती हैं।
अलबत्ता समय याद नहीं। मैं अपने पैदा होने का समय पूछती तो जवाब मिलता 'गंगा दशमी थी, अमरस बनाने की तैयारी थी, सभी खाने पर बैठने वाले थे कि तभी तुम हो गईं। यही 10, 11, 12 बजे के आसपास का टेम रिया होगा'। लो अब बताओ भला।
हमारे घरों में लड़कियों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें 'रामधकेली' कहा जाता था। 'लड़की का लड़ाकी' बनाकर हमें चिढ़ाया जाता था कि 'खूब लड़ने वाली'। वाकई में यही हम पर सटीक रहा। हमें हर बात और चीज के लिए लड़ना ही पड़ा। मुझे पूरा यकीन है कि ऐसा केवल हमारे ही साथ नहीं बल्कि अधिकतर के साथ हुआ करता होगा। आज भी होता होगा। पर इनके लिए लड़के कभी लड़ाके क्यों नहीं हुए? यक्षप्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है।
यहां उल्लेख करना बनता है कि हमारा परिवार पढ़े-लिखे परिवारों में से एक हुआ करता था। माता-पिता और मातृपक्ष भी खासा शिक्षित था। हमारी परवरिश मातृपक्षीय परिवेश में हुई। मौसियों के सभी बच्चे एक जगह इकठ्ठे हो रहते थे। हमारा घर बहुत छोटा ऊपर की मंजिल पर और बड़ी मौसी का घर सामने की पट्टी में नीचे तल पर। सो नाम पड़ गए 'नीचे वाला घर', 'ऊपर वाला घर' और वैसे ही 'नीचे वाली बाई', 'ऊपर वाली बाई'। हमारी नानीजी भी साथ ही रहा करतीं थीं जिन्हें सभी 'अम्मा' कहते थे।
केवल हम मौसियों के ही कुल मिलाकर 26 भाई-बहन तो थे ही, मामाओं के भी बच्चे आ जाया करते थे। खूब रेलमपेल थी बच्चों की। घर के लड़के जन्मदिन पर सुबह-सुबह नहाकर नए झक्क कपड़े पहनकर नीचे वाले घर में नीचे वाली बाई के पास जाते। वहां रसोई के कमरे में पूरबमुखी दीवार पर ढेरों छोटे-बड़े अनेक भगवानों और तीर्थस्थानों के फोटो लटके हुए थे। एक छोटा-सा पीतल का सिंहासन था जिसमें कुछ पीतल, कांसे, पंचधातु और पत्थर की कई सारी मूर्तियां रखी होती थीं।
बस वहीं पर नीचे एक पाटला रखकर 'बर्थडे बॉय' को खड़ा किया जाता, कंकू-तिलक निकालकर आरती उतारी जाती। एक खास कांसे का कटोरा हुआ करता था जिसमें दूध भरकर शकर घोली जाती थी जिसका स्वाद आज भी अपनी जबान और आत्मा में महसूस करती हूं। अब लगता है शायद अमृत का स्वाद भी ऐसा ही होता होगा।
असल में होता यह था कि नीचे वाली बाई उस दूध में जब शकर डालतीं थी तो अपनी प्यारभरी उंगली से ही उसे पूरा घोलती थीं। आज तक मेरे लिए यह रहस्य ही है कि वो दूध का स्वाद और मिठास किस चीज का रहता था? प्राकृतिक या मेरी नीचे वाली बाई के निश्छल अन्नपूर्णास्वरूप की माया का? उनके ममतामयी वात्सल्यपूर्ण आभामंडल का? या उस जादुई मुस्कान के साथ दमकते चेहरे पर उमड़ आए प्यार के सागर की उठती लहरों के साथ रिदम और ताल मिलाती वो कांसे के कटोरे में दूध शकर घोलती उस चमत्कारी उंगली का?
बस फिर सभी बड़ों के पैर पड़ना और वसूली करना। कहते तो आशीर्वाद थे, पर असल में कौन कितने पैसे 'दे' रहा है, उस पर ही सारा ध्यान होता था। न फोकट दोस्तबाजी, न केक और न गिफ्ट, न चॉकलेट के कोई चोंचले। शुद्ध देसी आशीर्वाद। हलवा या खीर-पूड़ी-भजिया खा लो। ज्यादा से ज्यादा और मजा करो।
दूसरे होता था छबड़ी घिसाई। मान-गुन या मनौती के 'लड़कों' के लिए होती थी। एक बांस की बड़ी टोकनी में मीठे गुड़-शकर के आटे के भजिये जिन्हें गुलगुले कहते या सूजी/आटे का हलवा और पूड़ियां भरी जातीं। उनमें उस बच्चे का पैर का अंगूठा छुआकर कुछ पारंपरिक गीतों के साथ टोकरी को आगे-पीछे किया जाता।
ऐसा आयोजन करने के लिए पूरे मोहल्ले की औरतों को बुलौवा दिया जाता। सभी इकट्ठी होकर ढोलक-मंजीरे, लोटा-चम्मच, घुंघरू व ढपली जैसे उपलब्ध वाद्यों के साथ जोर-जोर से देवी-देवताओं के भजनों को गाने से शुरू होतीं। फिर तरह-तरह के गीत और नाच में महफिल बदल जाती।
अंत में हैसियतानुसार पताशे, लड्डू या पेड़े उन पूड़ियों, गुलगुलों या हलवे के साथ सभी औरतों को बांट दिए जाते। सभी बच्चे को कुछ न कुछ देकर जाते। ये आयोजन लड़के की शादी के बाद आखिरी बार होता, जो इस मनौती का उजमना या समापन मान सकते हैं।
अब बात करते हैं कि नीचे वाली बाई के हाथों के बनाए उस दूध का स्वाद मुझे कैसे याद? मैं तो लड़की! फिर जन्मदिन तो मनता नहीं होगा। गंगादशमी को हमारा जन्मदिन होता। हमारा इसलिए कि मेरी मौसी के बेटे यानी मेरे मौसेरे भाई का जन्मदिन भी। वो मुझसे काफी बड़े हैं। जब होश संभाला तब उनके साथ पाटले पर जा धमकती मैं भी। खड़ी हो जाती भैया के साथ।
क्रांति का बिगुल बगावत के साथ शुरू हुआ। और बाई तो जैसा कि मैंने बताया कि सहर्ष आंखों में एक चमक और चेहरे पर गहरी मुस्कान लिए मेरी ओर देखतीं और कटोरे में दूध ले आतीं। जैसे कह रही हों, 'मैं जानती थी कि तुम ऐसा करोगी'। भाई भी लाड़-दुलार तो करते ही थे, हालांकि मैं उन भाई-बहनों में नीचे से चौथे नंबर पर आती हूं।
पर अपने अलहदा विचारों और सोच रखने के कारण कहीं-न-कहीं अपनी बातें मनवाने का माद्दा रखती थी, चाहे वो दूर सुदूर भाइयों की बारातों में जाने के लिए ही क्यों न हो। बारातों में भी घर की लड़कियां और औरतों को जाने पर पाबंदियां जो हुआ करती थीं।
और भी कई बदलाव हुए समय के साथ-साथ कुछ अच्छे और कुछ बुरे। पर जब तक हम रहे, सब अच्छे ही हुए, क्योंकि शुरुआती दौर में संघर्ष हमारे हिस्से का था और फिर साफ रास्ता औरों के हिस्से आया, जो विरासतस्वरूप लिया गया और जायज-नाजायज के फर्क को बरगलाने लगा। पर जो भी था बहुत सुखद और आत्मीयता से भरा, आत्मा को आनंदित कर रूह को सुकून देने वाला रहा।
आज भी उम्र के 54वें बसंत पर याद करने पर दिल की कली को खिला देने वाला, जैसे तेज गर्मी से निजात दिलाने वाली ठंडी शीतल व खुशबूदार फुहार जिसमें सौंधी मिट्टी की खालिस सुगंध भरी हो। कोई आडंबर नहीं, न फिजूलखर्ची, न बैरभाव, न गिफ्ट की कीमत से आंकते रिश्तों की गहराई का जहर, न घमंड से भरे फोकटे फुग्गे, न टोपी, न रिबन, न क्रीमकेक, न मोमबत्ती, न शैम्पेन, न ड्रिंक, न रिटर्न गिफ्ट का कॉम्पिटिशन, न चॉकलेट, न होटल, न कुछ अशुभ से काटने व बुझाने का रिवाज, शुभ और केवल शुभ, घर वालों के साथ, अपनों के साथ, ईश्वर और बड़ों का आशीर्वाद, दीप जलाना, प्रसाद लगाना, हवन-पूजन, खूबसूरत जिंदगी देने वाले और निखारने वालों का आभार, परहित पर प्रोत्साहित करना।
इन सबकी जगह लेती केक मलने जैसी अन्य बद्तमीजियां व फूहड़ता मन को विचलित कर देती हैं। बर्थडे खर्च देखादेखी में कमरतोड़ होते जा रहे हैं। बच्चों की खुशी में अपनी खुशी मानने के चक्कर में हम 'अच्छे-बुरे की समझ' भी खोते जा रहे हैं।
हमें संभलना होगा और संभालना होगा बहकते इन कदमों और बिगड़ते संस्कारों को। रोकना होगा अर्थ खोते इन दिनों के जाया होते जा रहे महत्व को। शुरू करें अपने घरों से, आज से, अभी से। वरना तो फिर ऐसे निरर्थक जन्मदिन न मनाना ही श्रेष्ठ है।