मेरे ‘अंदर’ भी एक ‘मैं’ था जो अब पता नहीं कहां खो गया है या यूं कहूं तो वो सदा के लिए मर चुका है।
अब न तो मुझे किसी चीज से लगाव और न ही घृणा होती है बस एक तरीके से सबकुछ चल रहा है तो चल रहा है।
क्या पीड़ा? क्या आनंद? यह सब तो नियति का रचा हुआ तंत्र है, मैं तो बस उसी पथ पर आगे बढ़ रहा हूं।
सोचने के मायनों में फर्क प्रतीत हो सकता है, किन्तु यह सत्य है कि मेरे मनो-मस्तिष्क के कोमल तन्तु बड़े जाल में उलझकर टूटते जा रहे हैं फिर भी यह समय के परिवर्तन की ही प्रक्रिया है जिसे मैं मौन स्वीकृति दे चुका हूं।
इस संसार में किसी भी कार्य के निमित्त मात्र आना और उसकी पूर्णता के बाद यहां से विदा लेने की परम्परा है क्योंकि इस भौतिक शरीर की आयु क्रमशः क्षीण होने लगती है जबकि आध्यात्मिक उन्नति हमें किसी शक्ति की ओर खींचती है जिसका प्रादुर्भाव भी उस तत्व के निर्देशानुसार होता है जो जन्म के पूर्व से हममें विद्यमान रहता है।
स्वाभाविक तौर पर मैं अपनी जिस चेतना की सुप्तावस्था या मृतअवस्था की बात कह रहा हूं, वह सर्वथा सत्य है जिसे किसी गल्प की तरह चासनी में डालकर परोसा नहीं बल्कि आंतरिक परिशुद्धता के फलस्वरूप अन्त:चक्षुओं के द्वारा देखा ही नहीं बल्कि महसूस भी किया जा सकता है।
खैर! जो भी हो यह सब अन्त: परिवर्तन की प्रक्रिया हो सकती है या मन: स्थितियों का भ्रम किन्तु क्या इसे भ्रम कहकर झुठलाया जाना चाहिए?
नहीं! कदापि! नहीं!
फिर भी एक अबोध मन के अन्दर निहित तरंगों और सहज भावों के उद्भव के अतिरेक इसे भी कुछ कहा जाना न्यायोचित होगा या नहीं यह भी ज्ञात नहीं है।
यह स्वयं में अद्वैत सा है जिसके निकटतम बिन्दु की ओर आकर्षण स्वमेव होता तो है लेकिन अचानक संवेदनाओं के मोहपाश में फंसकर किसी अलग जगह की ओर जाने की चेष्टा करता है जिसकी वजह से मार्ग का अतिक्रमण होने लग जाता है और द्वन्द्व की स्थिति यहीं से उत्पन्न हो जाती है।
क्या सचमुच मैं मर गया हूं?
उत्तर यही होगा -हां! मैं मर गया हूं।
इसके कहन में भी बड़ी क्षुद्रता सी महसूस होती है लेकिन भावनाओं के ज्वार के सम्मुख यह भी कहां टिक पाती है?
एक अल्हड़पन और वह जीवन जिसमें मैनें स्वयं को किसी भी दायरे में बांधने का कभी भी प्रयास नहीं किया बल्कि उसे उतनी ही अधिक स्वतंत्रता प्रदान की और ऊंचे पहाड़ों से गिरने वाले झरनों की तरह चट्टानों की चोट और पथ की परिस्थितियों से परिणाम की चिन्ता जाने बिना जूझने दिया।
यह क्रम बड़े लम्बे समय तक चलता रहा उम्र के पड़ाव के हिसाब से काफी कुछ परिमार्जन जो निजीपन की जीवटता और परिवर्तन को स्वीकार किए जाने को लेकर होता रहा।
कई सारी बातें और उनमें निहित मूल स्वर को अज्ञात भय या कि समय की प्रतिकूलता तो नहीं किन्तु स्वयं को बड़ा दिखाने की ललक से कहीं बहुत दूर इस आशय में उन विचारों को अभिव्यक्ति देने में अक्षम हुआ कि- ‘इस सामाजिक प्रणाली के अंदर तब तक किसी भी बावत् विश्वास नहीं बनता जब तक कि विचारों की मौलिक अभिव्यक्ति करने वाले का महिमामंडन न हुआ हो’
मुझे इस चीज से हमेशा नफरत रही है कि मुझे किसी भी तरह की तवज्जों दी जाए या कि स्थान दिया जाए, प्रसंशा और आलोचनाओं से इतर मुझे अपने निजीपन में व्याप्त उस प्रवृत्ति के हिसाब से आचरण पसंद रहा जिसमें सभी का सम्मान और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भाव हो।
पुनश्च जिस बिन्दु पर आ रहा वह यह है कि संसार में श्रेष्ठ बनने या दिखाने की प्रतिस्पर्धा के इतर सामान्य होना कितना सरल होता है न?
फिर भी एक अनजानी अंधी दौड़ में सरपट भागे जा रहे हैं, जिसमें शायद ही कहीं आत्मबोध का भाव मिले।
क्योंकि इस दौड़ के लिए हमारी अन्तरात्मा निर्देशित नहीं करती बल्कि इसके पीछे हमारे चारों ओर का आवरण है जिसको हम बिना जांचें-परखे अपने अन्दर दखल देने की अनुमति प्रदान कर दिए हैं।
आत्मविश्लेषण बड़ा ही सरल है किन्तु जब यह आत्मप्रवंचना से बचकर परीक्षा की उत्तरपुस्तिका का उदाहरण देना उतना सटीक नहीं होगा लेकिन इसे दर्पण के सम्मुख प्रतिबिम्ब देखने के समान ही देखना ज्यादा सटीक लगता है, तब हम पाएंगे कि कई प्रवृत्तियों के कारण ग्लानि और पछतावे के साथ ही आनंद की अनुभूति होगी जो कि इसका अहसास कराएगी कि हम आत्मविश्लेषण करने में सफल हुए हैं।
मेरे अंदर की स्वतंत्रता अब धीरे-धीरे खत्म हो रही जिसे किसी और ने नहीं बल्कि मैनें स्वयं कैद करने का निर्णय लिया है।
क्या इस पर भी सन्देह भरी नजरों से देखा जाना चाहिए?
नहीं! तो
इस कैद में मुझे प्रसन्नता होती है और लगता है कि यह कार्य तो और पहले करना चाहिए था लेकिन कहते हैं कि ‘पुरूष बली नहीं होत है, समय होत बलवान’ शायद इसीलिए खुद को कैद नहीं कर पाया।
हां! अगर इतनी स्वतंत्रता का अनुभव न किया होता तो क्या मुझे कैद होने का सुख प्राप्त होता? कभी नहीं क्यों मैं यह जान ही नहीं पाता कि कैद क्या है?
‘स्वतंत्रता’ और ‘कैद’ दोनों शब्दों का अर्थ किसी सूक्ष्म अभिप्राय में नहीं बल्कि व्यापक और विस्तार में ग्रहण करना उचित होगा, क्योंकि इसे एक सीमित दायरे के अंदर रखकर देखा जाना दृष्टिकोण के प्रति अन्याय होगा।
यदि कुछ संकेत करना चाहूं तो ऐसा नहीं कि मैनें स्वयं की गति पर विराम लगा दिया है या कि स्वैच्छिक कार्यों के प्रति उद्विग्नता के कारण उनको बन्द कर दिया है।
ऐसा भी नहीं है कि प्रश्नों की तीक्ष्ण वर्षा कर कुछ ढूंढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूं जिसके लिए यह सब कहना पड़ रहा है।
हां! यह बात जरूर है कि एक आन्तरिक तौर पर परिवर्तन सा किन्तु यह ‘परिवर्तन’ तो नहीं है जिसे मैं महसूस कर रहा हूं।
यह भी सम्भवतः ज्ञानेन्द्रियों के संकेतों या कि ‘वैचारिक उधेड़बुन’ के कारण प्रतीत हो रहा है जो कि ह्रदय एवं चिन्तन की तरंगों के संचार के फलस्वरूप दृष्टव्य हो रहा है जो कि किसी ‘अज्ञात और ज्ञात’ के मध्य सामंजस्य स्थापित करने को प्रेरित करने वाले तत्व के निर्देशन के कारण ही कार्यान्वयन की ओर उन्मुख है।