व्यंग्य - लोकतंत्र या मूर्खतंत्र
अक्षय नेमा मेख
आज मूर्ख दिवस है और हमारा सौभाग्य कि हमारे यहां मूर्ख बनने व बनाने का कार्य किसी कैलेंडर की तारीख पर निर्भर नहीं करता। जिसे जब मन होता दूसरे को मूर्ख बनाने से नहीं चूकता और दूसरा पहले से मूर्ख बनकर ही मानता है। खासकर नेता व जनता के बीच ये रिश्ता कुछ ज्यादा ही मजबूत है। नेता बनाता है जनता बनती जाती है।
हालांकि दोनों ही मूर्ख होते है। बस अंतर यह है कि नेता के पास मूर्ख बनाने का गुण विकसित हो जाता है। वो मूर्ख बनाने की कला में गुणवान कहा जाता है। इसका फायदा वे उठाते हैं, जो जनता और नेता के मध्य होते है। जिनका झुकाव नेता की तरफ ज्यादा होता है और सामान्य भाषा में जिन्हें चम्चे कहा जाता है। वे अपने गुणवान नेता की स्तुति गान करते हैं। रही बात जनता की, तो वो पैदाइशी मूर्ख होती है। कुछ कमी चम्चे पूरी कर देते है। बाकी का नेता अपने गुण के हिसाब से देख समझ लेता है।
भै...! मैं भी जनता हूं और पूरी संभावना है कि मैं मूर्ख हूं। मेरा मूर्ख होना कोई आज के दिन का मान रखना नहीं है। बल्कि मेरा मूर्ख होना नेताओं का चतुर होना है। सीधी सी बात है वे नेता है इसलिए चतुर है और हम जनता है इसलिए मूर्ख है।,
वे नेता हैं तो सब कुछ कर सकते है, करवा सकते हैं। चुनावों में गरिमामय पद की धज्जियां उड़ा सकते हैं। शकुनी पांसे फेंक सकते हैं। तरह-तरह की बेतुकी बयानबाजी कर सकते हैं। हमारे सामने रो सकते हैं, गा सकते हैं, नाच भी सकते हैं। चूंकि वे नेता हैं और मूर्ख बनाना उनका गुण है, तो बेबुनियादी वादों से हमें लुभा भी सकते है। और तो और चुनावी मशीनों की भी ऐसी-वैसी नहीं कैसी-कैसी कर सकते हैं यह तो वो ही जाने। क्योंकि वे ठहरे मूर्ख गुणवान नेता और हम मूर्ख जनता। हम जरा सी चकाचौंध में इतने आकर्षित हो जाते है कि मूर्ख होते हुए भी आसानी से मूर्ख बन जाते है। हमें मूर्ख बनानेवाले भी ये भूल जाते है कि लोकतंत्र भी मूर्खों के हाथ में है, और लोकतंत्र मूर्खतंत्र नहीं हो सकता।