'पुरबिया अंग' की 'उपशास्त्रीय' गायकी में बनारस की 'बृहत्त्रयी' का नामोल्लेख बहुत सम्मान के साथ किया जाता है। यह त्रयी है : गिरिजा देवी, रसूलन बाई और सिद्धेश्वरी देवी। इनमें बड़ी मोतीबाई को भी अगर जोड़ दें तो यह एक विशिष्ट चतुष्कोण बनता है।
सनद रहे कि ये चारों की चारों स्त्रियां हैं!
लखनऊ और बनारस, हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत के ये दो घराने "लास्य" और "लालित्य" के आराधक हैं। "ध्रुपद" सरीखा गांभीर्य उनमें नहीं है। "ख़याल" की विलम्बित लय का भी निषेध। "ठुमरी", "होरी", "कजरी", "चैती", "दादरा", "टप्पा" जैसे उपशास्त्रीय स्वरूप सौंदर्य और ऐंद्रिकता को साधते हैं। बहुधा "अनंग" उनका अभीष्ट होता है। "ध्रुपद" में शुद्ध स्वर का वैभव है, "ख़याल" में राग की धीमी बढ़त का, "ठुमरी" में माधुर्य और रस और कामना।
"बृहत्त्रयी" की सिद्धेश्वरी देवी के जीवन पर एक फ़िल्म-रूपक बनाकर मणि कौल ने उन्हें अमर कर दिया था, अफ़सोस कि लोक में उनसे भी अधिक प्रचलित और प्रतिष्ठित गिरिजा देवी के लिए वैसा कोई प्रयास नहीं किया गया, जबकि बनारस की किसी भी गली में चले जाइए, मजाल है आप ठुमरी का नाम लें और उधर से पलटकर गिरिजा देवी का नाम ना लिया जाए!
बनारस में शहनाई का दूसरा नाम "बिस्मिल्ला" है, तबले का दूसरा नाम है "किशन महाराज" और ठुमरी का दूसरा नाम है "गिरिजा देवी"। और यह लगभग अटल नियम की तरह है!
सनद रहे कि गिरिजा देवी का क़िस्सा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां से पूरी तरह फ़र्क है। बड़े ख़ां साहब ठुमरियों के सम्राट थे, लेकिन आज उन्हें उनकी शास्त्रीय गायकी और पटियाला घराने की फिरत तानों के लिए अधिक याद रखा जाता है। दूसरी तरफ़ गिरिजा देवी का कंठ शास्त्रीय गायन के लिए सधा हुआ था, लेकिन वे समय के साथ उपशास्त्रीय गायन के ठुमरी अंग की पहचान बन गईं। लोक में कब किस कलाकार की कौन-सी प्रतिमा अधिक स्थायी रूप से अंकित हो जाए, यह अनुमान लगाना कठिन है।
गिरिजा देवी ने अल्पायु में पंडित सरयू प्रसाद मिश्र और पंडित श्रीचंद्र मिश्र से संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। कुछ समय के लिए अभिनय में भी हाथ आज़माया, लेकिन बात बनी नहीं। अपनी पहली गायन प्रस्तुति उन्होंने वर्ष 1949 में आकाशवाणी के लिए दी थी। 1951 में बिहार के आरा में पहली बार सार्वजनिक रूप से गाया। बाद उसके पूरे 66 बरस बीत गए, अप्पा के नाम से पुकारे जाने वाली गिरिजा देवी की आवाज़ थमी नहीं, जब तक कि मृत्यु ने ही उनके अप्रतिम कंठस्वर पर पूर्णविराम नहीं लगा दिया।
कृष्ण की कहानियों पर आधारित ठुमरियों पर गिरिजा देवी ने अपने उद्यम को एकाग्र किया था। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि "मैंने ठुमरी गायन के पूरे रंग को बदलने का फ़ैसला कर लिया था। मैंने ठुमरी को एक माध्यम के रूप में सोचा था, जिससे मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकती हूं। प्रेम, लालसा और भक्ति की भावनाएं ठुमरी का एक अभिन्न हिस्सा हैं और मैंने सोचा कि सही प्रकार के संगीत के साथ, मैं गीत को जीवित कर सकती हूं। यह संभव है कि गानों को एक भौतिक रूप दिया जाए।"
गिरिजा देवी ने उपशास्त्रीय कंठसंगीत के स्थापत्य के निर्माण पर जिस त्वरा के साथ काम किया है, उतना कम ही लोगों ने किया होगा। वे अग्रणी गायिका होने के साथ ही श्रेष्ठ शिक्षिका भी थीं, और "पुरबिया" गायकी के प्रति एक व्यापक समझ के निर्माण में उन्होंने महती भूमिका निभाई है। उन्होंने ठुमरी साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। "शब्दब्रह्म" के प्रति ऐसी सजगता उनके अलावा किशोरी अमोणकर में ही देखने को मिलती है। क्या ही शोक है इस साल किशोरी ताई के बाद अब हमने अप्पा को भी गंवा दिया। उनके साथ बनारसी लहज़े का वह ख़ास पुट भी चला गया है, जो एक-दो दिन में निर्मित नहीं होता, जिसके पीछे एक सुदीर्घ सांस्कृतिक निर्मिति होती है।
एक बार अप्पा ने किसी से बातचीत में कहा था : "मैं भोजन बनाते हुए रसोई में अपनी संगीत की कॉपी साथ रखती थी और तानें याद करती थी। कभी-कभी रोटी सेंकते वक़्त मेरा हाथ जल जाता था, क्योंकि तवे पर रोटी होती ही नहीं थी। मैंने संगीत के जुनून में बहुत बार उँगलियाँ जलाई हैं।"
वैसे धुनी कलाकार अब कहां!
गिरिजा देवी अपने पीछे एक ऐसा निर्वात छोड़ गई हैं, जिसे कभी पूरा नहीं जा सकेगा....