मंगलवार, 19 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. blog on relationship

मन की महक : चबूतरों पर चौपाल नहीं रही, जंजाल से मुक्त कैसे हों?

मन की महक : चबूतरों पर चौपाल नहीं रही, जंजाल से मुक्त कैसे हों? - blog on relationship
बदलते नज़रिए का चढ़ा चश्मा
 
‘अरे समय ही नहीं मिलता, दिन तो ऐसे बीत जाता है कि पूछो मत’...तो यह समय जाता कहाँ है? अब न तो आपको राशन की दुकान पर लाइन में लगना है न आपको चौराहे के सार्वजनिक नलके से पानी भरकर लाना है, न चक्की पर आटा पिसवाने ले जाना है, न संयुक्त परिवार के सैकड़ों काम करने हैं, न कहीं पैदल जाना है, न साइकिल के पैडल मारने हैं...फिर भी समय नहीं है!
 
काली स्क्रीन का काला जादू आपका समय आपसे चुरा रहा है और यह सबको पता भी है पर कोई उस ओर उतना ध्यान नहीं दे रहा। या तो आप लैपटॉप पर हैं, या मोबाइल पर, या तो सोशल मीडिया पर हैं या यू-ट्यूब, नेट फ्लिक्स पर...कितना-कितना समय आप उसमें खर्च किए जा रहे हैं। 
 
स्टेटस अपडेट्स देकर दुनिया को बता रहे हैं कि आप कितने व्यस्त हैं, कितना कुछ हैप्पनिंग आपके जीवन में चल रहा है। पर ऐसा तो नहीं कि ‘वेल्ले’ रहने का सुख आपने खो दिया है। कुछ नहीं करना है, निठल्ले बैठे रहना है और इसका भी अपना आनंद है, यह भूलते जा रहे हैं। ‘क्वालिटी फ़ैमिली टाइम स्पेंड’ करना जैसा भारी-भरकम शब्द आपको कह रहा है आउटिंग पर जाइए, रिज़ॉर्ट में जाइए, मॉल या मल्टीप्लेक्स में जाइए तब आप क्वॉलिटी टाइम दे पाएँगे...अरे वैसे ही साथ बैठे हैं, किसी आयोजन में साथ गए हैं क्या यह क्वालिटी टाइम नहीं है? पाँच सौ रुपए की कॉफ़ी और हज़ार रुपए का पिज्जा जो खाकर हजम हो जाएगा उसके बजाय क्यों न एक किताब खरीद ली जाए, ऐसा कभी ज़ेहन में ही नहीं आता।
 
पहले सार्वजनिक वाचनालय होते थे, जहाँ से किताबें लाईं जाती थीं और जिन्हें हफ्ते-पंद्रह दिन में लौटाना पड़ती थीं, तब पूरा परिवार उन किताबों को समय रहते बारी-बारी से पढ़ता और समय रहते वे किताबें वापस चली जातीं और दूसरी आ जातीं। अब सार्वजनिक कुछ रहा ही नहीं। जैसे सार्वजनिक नलके नहीं रहे, वैसे सार्वजनिक वाचनालय नहीं रहे, वैसे सार्वजनिक ठिए भी नहीं रहे, जहाँ लोग मिलते थे, गप्पे लगाते थे, निंदा और आलोचना करते थे और व्यवस्था के नाम का रोना भी रो लेते थे। सारा अवसाद, फ्रस्ट्रेशन सार्वजनिक रूप से निकल जाता था, अब ऐसा नहीं होता। अब ट्रोलिंग होती है, कोई एक उस ट्रोलिंग का शिकार होता है और बिना आवाज़ खूब सारा हो-हल्ला मच जाता है, हंगामा खड़ा हो जाता है। हासिल कुछ नहीं होता। पहले की बहसों से भी भले ही कुछ हासिल नहीं होता था लेकिन कम से कम किसी का इस तरह बड़े पैमाने पर अपमान भी तो नहीं होता था।
 
चौराहों पर आती-जाती लड़कियों को घूरते लड़के भी आँखों पर चश्मे चढ़ाए वर्चुअल दुनिया में खो गए हैं। उनकी आँखों पर केवल नज़र का चश्मा नहीं चढ़ गया है बल्कि नज़रिए का चश्मा भी चढ़ गया है। वे लड़कियों को ताकते रहते थे लेकिन उसके अलावा भी ढेरों बातें किया करते थे क्योंकि साथ होते थे, एक-दूसरे के सुख-दुःख से वाक़िफ़ होते थे...सार्वजनिक नलकों पर महिलाएँ सास-बहू, ननद-भौजाई, देवरानी-जेठानी और एक दूसरे की बेटियों की कारगुज़ारियों का हवाला देती थीं लेकिन मन के जंजाल से मुक्त हो जाती थीं। पेड़ के नीचे चबूतरों पर चौपाल लग जाती थी और कई मसले सुलझ-सलट जाते थे।
 
अब वे सारे सार्वजनिक ठिए चले गए, वैसी सामुदायिकता भी और हर किसी के कंधे अपनी लड़ाई खुद लड़ने का एकल दायित्व बेताल की तरह आ बैठा... 

 
ये भी पढ़ें
आजादी की लड़ाई के अग्रदूत मंगल पांडेय की जयंती