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'करिए छिमा' कहते हैं और मुक्त होते हैं अपराध बोध से

'करिए छिमा'  कहते हैं और मुक्त होते हैं अपराध बोध से - blog on forgiveness
स्वरांगी साने
 
अंग्रेज़ों ने हम पर सालों-साल, लगभग दो सौ साल शासन क्यों किया? या वे ऐसा कैसे कर पाए? तो उसकी बहुत बड़ी वजह यह भी थी कि उन्होंने भारतीयों के मन में अपराध बोध कूट-कूटकर भर दिया था। ‘भारतीय होना ही अपराध है’, यह केवल अंग्रेज़ नहीं कह रहे थे, आम भारतीय भी यही सोचने लगा था। आत्म उन्नति के ग्राफ़ को यदि एक हज़ार अंक दिए जाएँ तो आत्मग्लानि या अपराध बोध होने पर आपको उसमें से केवल 30 अंक मिल सकते हैं, मतलब देखिए आपकी रेटिंग कितनी कम होगी। 
 
जबकि भारतीय दर्शन में या तमाम दर्शनों, धर्मों-पंथों में प्रायश्चित पर ज़ोर दिया गया है। यह प्रायश्चित्त होता क्या है तो यह आपको अपराध बोध से उबारता है। हम साधारण लोग हैं, हमसे जाने-अनजाने कई अपराध या ग़लतियाँ, त्रुटियाँ हो जाती हैं। बड़ों को या किसी वस्तु को ग़लती से पैर लग जाने पर हमें बचपन से सिखाया जाता है कि ऐसा होने पर तुरंत पैर पड़ लो, आजकल सॉरी कहने का चलन है। अर्थात् अपराध से तुरंत मुक्त होना। यदि अपराध बड़ा हो तो उसके प्रायश्चित्त के कई रास्ते बताए गए थे जैसे संकल्प लेकर नियत तिथि तक किसी प्रिय वस्तु का त्याग करना या यज्ञ-हवन करना। हम इन्हें दकियानूसी कहते हुए भूलने लगे लेकिन कहीं न कहीं ये मार्ग हमें आत्मग्लानि से मुक्त कराते हैं। जब तक आत्मग्लानि होती रहती है तब तक आप उन्नति नहीं कर सकते। जब मन पर कोई बोझ नहीं होगा तभी हम तेज़ी से अपनी यात्रा कर पाएँगे।
 
अब यह तो बहुत आदर्श स्थिति है कि हमसे कोई अपराध हो ना। जैन साधु-संतों, साध्वियों को आपने देखा होगा वे मुँह पर श्वेत पट्टी बाँधते हैं कि साँस लेने या बात करने के दौरान भी सूक्ष्म जीव उनके मुँह में न चले जाएँ और उनके प्रति हिंसा न हो जाए। हमें भी पता है हिंसा केवल शारीरिक नहीं होती, मानसिक, भावनात्मक स्तर पर हम किसी भी क्षण हिंसक हो सकते हैं। हमें पता है कि हिंसक होना ग़लत है। सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना मानवता है। किताबों में हम ये बातें पढ़ते हैं तो तुरंत उससे सहमत भी हो जाते हैं लेकिन फिर भी हमसे कोई न कोई ग़लती, कुछ भूल, छोटे-बड़े अपराध हो ही जाते हैं। यदि उन अपराधों-ग़लतियों को जीवन भर ढोते रहें तो हमारा जीना दुश्वार हो जाएगा। मनुष्य की स्मरण शक्ति जितनी तेज़ है उतनी ही अच्छी बात यह भी है कि हम कई बातों को भूल भी जाते हैं, याद नहीं रख पाते। यदि हम सारी बातें याद रखने लगें तो अपनी उपलब्धियों से तन जाएँगे और ग़लतियों के बोझ से दब जाएँगे। फिर भी हमें कुछ ग़लतियाँ याद रहती हैं और हमें लगता है कि हमें तब वैसा नहीं करना था। 
 
जिस क्षण आपको लगे कि आपसे ग़लती हो गई है, उसी क्षण क्षमा माँग लीजिए। ‘मिच्छामी दुक्कड़म’ कहने के लिए आपको जैन होने की आवश्यकता नहीं है। जैन धर्म के अनुसार ‘मिच्छामी’ का अर्थ क्षमा करने से और ‘दुक्कड़म’ का अर्थ ग़लतियों से है। पर्युषण पर्व के दौरान जैन धर्मावलंबी इस प्राकृत शब्द का प्रयोग कर क्षमा माँगते हैं। हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी की लोकप्रिय मर्मस्पर्शी कहानी है- ‘करिए छिमा’। तुलसीदास ने लंका कांड में अलग संदर्भ में ‘करिए क्षमा’ का प्रयोग किया है लेकिन हम बात यहाँ शिवानी की इस कहानी के संदर्भ की करते हैं और अपराध बोध से मुक्त होने का प्रण करते हैं। जैसे उनकी नायिका किए, न किए, कहे-अनकहे के प्रति क्षमा माँगते हुए कहती हैं-
‘कइया नी कइया, करिया नी करिया, करिया छिमा, छिमा मेरे परभू...’  
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