शनिवार, 27 अप्रैल 2024
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विकासशील थे, हैं और रहेंगे

विकासशील थे, हैं और रहेंगे - blog on developing
चौथी-पांचवीं की नासमझ उम्र से लेकर आज तक की उम्र (नहीं बताऊंगा) गणतंत्र दिवस अमर रहे, महात्मा गांधी की जय, चाचा नेहरू की जय, स्वतंत्रता दिवस अमर रहे... वगैरह-वगैरह से साबका पड़ता रहा है और हर बार विकासशील भारत का यानी नेताओं के मुख से हमेशा यही सुनते आ रहे हैं कि हमारा भारत विकास कर रहा है। इस हाड़तोड़ मेहनत में सब जी-जान से लगे हैं। जापान जैसा देश पचासों बार मरा और न केवल जिंदा हुआ बल्कि हमसे आगे निकल गया यानी विकसित कैटेगरी में जाकर बैठ गया। हम अभी विकास ही कर रहे हैं।
 
अशिक्षा का अर्थशास्त्र
 
सबसे बड़ी बात यह कि इस देश की आबादी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा अशिक्षित है। साक्षर होना और शिक्षित होना भी 2 अलग-अलग बातें हैं। एक अनपढ़ गंवार मजदूर या ग्रामीण भी शिक्षित हो सकता है, जबकि एक साक्षर भी अशिक्षित हो सकता है। अशिक्षित होने की वजह से ही देश की जनता बजट के बारे में साक्षर लोगों की कही-सुनी को अपने हिसाब से टेकल कर विद्वान या समझदार या राजनीतिक दखलअंदाजी के मुगालते का सबूत देती है।
 
अगर देश की जनता शिक्षित होती तो बजट के सारे हिसाब-किताब की पूछ-परख करती। जनता की सुविधा के लिए किए जाने वाले खर्च की आय के स्रोत के बारे में नेताओं से पूछती कि विधायकजी या सांसदजी या मंत्रीजी-ये जो जनता को वृद्धावस्था पेंशन दे रहे हो, कन्याओं के विवाह करा रहे हो, अनपढ़ लोगों को शिक्षा दे रहे हो, गरीब लोगों को स्वास्थ्य, आवास की सुविधा दे रहे हो- इन खर्चों का टेकल कहां से हो रहा है?
 
इन सब बातों की जरूरत ही नहीं। हमें यानी जनता को इन सबकी फुर्सत कहां, क्योंकि जनता अशिक्षित है और उसने अर्थशास्त्र पढ़ा ही नहीं है। अगर जनता शिक्षित हो जाए और अर्थशास्त्र पढ़ ले तो सड़क पर थूकना स्वयं बंद कर देगी। स्वच्छता अभियान चलाकर लाखों-करोड़ों रुपए बरबाद नहीं होंगे। देश की लगभग 80 प्रतिशत अशिक्षित जनता को इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि अमेरिका या विश्व बैंक या अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने हमें किन-किन शर्तों पर कर्ज दिए हैं और वे कर्ज चुकाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
 
जनता सुबह अपने काम-धंधे पर चली जाती है, शाम को घर आकर परिवार में रम जाती है या कोई खुशी या गमी का कार्यक्रम हो तो वहां शिरकत कर लेती है। जिंदगी इसी तरह चलती है। किसे खुजाल चली है या कौन पड़ी लकड़ी उठाकर अधिकारी या नेता को मोहल्ले की समस्या के बारे में बताए। (केवल मोहल्ला ब्रांड नेता ही ऐसा करते हैं।) सरकार लोगों को शिक्षित और साक्षर करने के लिए अनेक योजनाएं चला रही हैं और ये योजनाएं कब तक चलेंगी? पता नहीं। क्या ये योजनाएं थमेगी? पता नहीं। थमेगी कहां से, क्योंकि योजनाओं का लाभ उन्हें ही मिल रहा है जिन्हें इनकी जरूरत ही नहीं।
 
कितने निजी स्कूल-कॉलेजों में गरीब लोगों को शिक्षा दी जा रही है? कागजों पर तो कर्ज उतर रहा है, वास्तविकता में नहीं। यानी कागजों पर भले ही स्कूल-कॉलेजों में गरीब लोगों को शिक्षा दी जा रही हो, वास्तविकता इससे काफी दूर है, क्योंकि शिक्षा बेची जा रही है। मंत्री, सांसद, विधायक या नेताओं के अपने स्कूल-कॉलेज हैं या इनके रिश्तेदारों के।
 
प्राइवेट सेक्टर के महंगे दाम गरीब जनता कैसे चुका सकती है? दूसरी तरफ सरकारी कामकाज ठप होते जा रहे हैं। सरकारी दादागिरी के तो अपने ही आलम है। चपरासी से लेकर साहब तक 'कमाई' में लगे हैं। जनता शिक्षित होती तो ऐसा नहीं होता। जनता अगर शिक्षित हो गई तो भ्रष्टाचारियों की मुसीबत हो जाएगी, मगर जनता शिक्षित होना नहीं चाहती।
 
जनता का भ्रष्टाचार
 
हमारे यहां बुलेट ट्रेन है, जेट हवाई जहाज है, अंतरिक्ष यात्रा पर जा चुके हैं फिर भी हम विकासशील क्यों हैं, क्योंकि इन सबके बावजूद हमारे देश में भ्रष्टाचार विश्वभर में संभवत: पहले या दूसरे नंबर पर गिना जाता है। भ्रष्टाचार के नाम पर सरकार, जनता, नेता, अभिनेता, अधिकारी-कर्मचारी सब रोते हैं।
 
बरसों हो गए रोते-रोते। ये रोना भी मजेदार है, क्योंकि न इस देश के आका चाहते हैं, न ही जनता भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती है। बड़ा-बड़ा सब दिखाई देता है, छोटे-मोटे को तो नजरअंदाज कर दिया जाता है। लाइन में लगने की बजाए किसी महिला-युवती/मध्यस्थ की मदद से टिकट/राशन ले लेते हैं। भले ही दूसरे लाइन में सड़ते रहें। ये भ्रष्टाचार नजर नहीं आता, क्योंकि इसका स्कोप शून्य है। इसे जनता ही खुद बनाती है।
 
छूट का मोहजाल
 
जनता को आकाओं ने यानी लोकतंत्र के हिस्से कहे जाने वाले नेताओं, मंत्रियों, विधायकों, सांसदों से लेकर गली-मोहल्लाछाप छुटभैया नेताओं ने केवल अपने स्वार्थ के लिए ही साधा है और स्वार्थ के लिए ही इनके हित के लिए योजनाएं बनाईं जिनका फायदा वास्तविक हितग्राहियों को न मिलते हुए इनके ही लग्गू-भग्गुओं को मिल रहा है। जनता किसी प्रदर्शनी में मिल रही छूट के मोहजाल में फंसी-सी है। उसे ये पता नहीं कि 50% की छूट देने से पहले ही उसे लागत में 'जोड़' लिया गया है।
 
बहरहाल, सबकुछ ऐसा ही चलता रहेगा। हम विकास के रास्ते पर चल रहे हैं और चलते रहेंगे, गर्व से यह कहते हुए कि भारत हमारा विकासशील देश है। कभी ये कहने का मौका ही नहीं आने देंगे कि भारत विकसित हो गया है। हम कल भी विकासशील थे, आज भी विकास कर रहे हैं यानी विकासशील हैं और भविष्य में भी विकासशील रहेंगे। कोई माई का लाल हमारी इस यात्रा को डिगा नहीं सकता।